शुक्रवार, 20 जनवरी 2017

केवल चलते रहना

लड़की तू चल
तुझे चलाने का चलन है इसलिए चल
पर नापते हुए नयी राहों को कदमों से
अपनी गति, चाल और चलन के तरीके
स्वयं बनाने मत लगना
भूलना मत कि तुझे चलना है, सिर्फ़ चलना
विकल्प नहीं हैं तेरे पास ठहरने या दौड़ने के
सिवाय पूर्व निर्धारित मोड़ों या पड़ावों के
सुस्ताना या मुड़ना नहीं कहीं और
मंज़िल का पता तो हर्गिज़ न पूछना
चलते हुए रखनी है तुझे और भी सावधानियाँ
कि राह के किसी फलदार वृक्ष पर नहीं रीझना
प्यास बुझाने मत रुकना किसी कुएँ की जगत पर
किसी खेत की हरीतिमा देख मन पाखी होने लगे
फिर भी उड़ना मत वहाँ तितलियों और भौंरों संग
चलती हुई पुरवाई संग नाचने मत लगना
जलते हुए सूरज संग पिघलना मत
राह के आरोह अवरोहों से विचलित न होना
कर मत बैठना कभी थकने की शिकायत
पैरों के छाले या माथे के श्रम बिंदु
दिखा मत देना किसी को भोलेपन में बावरी
कि तेरी एक ही औचक भूल से
थम जायेंगे अनगिन बढ़ते क़दम
बदल जायेगा लड़की को चलाने का चलन
भूलना मत कि तुझे चलना है, सिर्फ़ चलना

-कविता जड़िया


रविवार, 15 जनवरी 2017

राष्ट्रभाषा हिंदी नारा नहीं हमारा साझा सपना है

आज जो हिंदी है वह बोलियों का समुच्चय है। हिंदी की बोलियां हिंदी की धमनियां और शिराएं हैं। कई ऐसी बोलियां भी हैं जो हिंदी के बराबर साहित्यिक धारिता वाली हैं। उन्हें बोली कहना भी अटपटा लगता है। वे बड़ी आसानी से न केवल भाषा कहला सकती थी बल्कि संवैधानिक शर्तों पर भाषा बन सकती हैं। कुछ बोलियाँ भाषा बन भी चुकी हैं। लेकिन इसे ही हथियार बना लेने से पूर्व यह नहीं भूलना चाहिए कि बोलियों को बहुत पहले ही हिंदी की उपभाषा के ही अन्तर्गत बोली कहने के पीछे एक विराट, समावेशी, अग्रगामी कामना रही है। वह कामना यह है कि एक दिन इन बोलियों को भाषा की तरह हिन्दी के विरुद्ध ही खड़े हो जाने की नौबत न आ जाये। हिंदी उत्तरोत्तर अपने वास्तविक पद तक पहुँच पाये इसके लिए यह त्याग अपरिहार्य था और आज भी आवश्यक है।

यदि हिंदी की बोलियां भाषा बनती जाएँ तो अंत में हिंदी बचेगी ही नहीं। इसमें दो राय नहीं। मुझे यह बात बहुत अच्छी लगती है कि फणीश्वरनाथ रेणु हों या हरिवंश राय बच्चन इनकी हिंदी में दो बड़ी बोलियों की अंतर्धारा है। हरिवंश राय बच्चन के गद्य में अवधी के शब्दों का जो ठाठ और बाहुल्य है वह उन्हें अत्यन्त लोकप्रिय और बोधगम्य बनाता है। इसी तरह के अनेक उदाहरण हैं जहाँ हिंदी साहित्य में बोलियों की विविधता और वैभव है। हिंदी साहित्य वास्तव में बोली से आये मनीषियों का ही अपूर्व सृजन है।

यदि आगामी कुछ दिनों में ही भोजपुरी भाषा बन जाती है जैसा कि संविधान की आठवी अनुसूची में उसे शामिल करने की तैयारी पूर्ण है तो मैं कहूंगा बघेली भी क्यों नहीं? यदि बघेली भी भाषा बने तो जल्द से जल्द, अधिक से अधिक मुझे क्या मिलेगा? मैं भी तत्काल प्रभाव से बघेली की सेवा करता हुआ बघेलखंड का रत्न बनने में लग जाऊंगा। हिंदी में रहते हुए एक महाद्वीप में हूँ। फिर एक टापू में रहूँगा। कमज़ोर आवाज़ में भी पुकारूंगा तो आवाज़ गूंजेगी।

जैसे ही बघेलखंड या विंध्य प्रदेश नाम से अलग राज्य बनेगा मेरे लिए किसी अकादमी में जगह पाने में कम प्रतियोगिता होगी। लेकिन एक हृदयविदारक घटना यह होगी कि पूरे विंध्य प्रदेश में सौ पचास लोग ही हिंदी भाषी बचेंगे। क्योंकि वहां अभी भी सब बघेली ही बोलते हैं। केवल सार्वजानिक जगहों पर भी बघेली बोलने लिखने की अनिवार्यता की आवश्यकता है।

कुल मिलाकर यह कहने में मुझे संकोच नहीं कि भोजपुरी के भाषा की तरह आठवीं अनुसूची में शामिल होने से हिंदी कमज़ोर होगी। दूसरी बोलियों के भाषा बनने से और कमज़ोर होगी। बोलियां लड़ाई छेडेंगी। वे भाषा बनेंगी। विश्व में हिंदी भाषी घटते जायेंगे। भारत में नए राज्यों के गठन की मांग उठेगी। इतने अधिक इतने अधिक भाषायी आधार पर नए राज्य भारत में हो सकते हैं कि यह संघ गणराज्य लड़खड़ा भी सकता है। तब उन्हें एक सूत्र में पिरोने कौन सी भाषा आयेगी? अभी हिंदी से तक़लीफ़ किस भाषा को है?

भारत में इस वक़्त हिंदी से बोलियों की जो लड़ाई केवल शुरू होती प्रतीत हो रही है उसके बारे में प्रभु जोशी जी का वह अंदेशा सही ही प्रतीत होता है कि यह दुश्मन सुरंग कदाचित अंग्रेज़ी द्वारा ही लंबे समय की तैयारी के बाद बहुत अंदर तक पहुंचाई जा चुकी है। बस दिल्ली से समय समय पर कुछ बार मुहर की ज़रूरत है।

इसलिए मैं भी समझता हूँ आज आवश्यकता हिंदी को ही समेकित रूप में समृद्ध करने की है। बोलियों को संपन्न करने की है। उन्हें जो चाहिए वह सब मिले और हिंदी उनसे जितना चाहिए उतना ले। क्योंकि हमारे राष्ट्रनिर्माताओं का वह सपना आज तक हमारा इंतज़ार कर रहा है जो हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में देखना चाहता है।

मैं बोलियों के विरुद्ध नहीं हूँ लेकिन अंग्रेज़ी के भाषायी साम्राज्यवाद और पूर्व परिचित औपनिवेशिक कारगुजारियों से कतई निश्चिन्त नहीं हूँ। आज विश्व स्तर पर हिंदी के ख़िलाफ़ जो कूटनीति और धन बल है उसे कुछ कुछ देख पा रहा हूँ। मैं रोज़ हिंदी को हिंग्लिश में टूटती देखने वाला विवश नागरिक हूँ। हिंदी को राष्ट्रभाषा की तरह देखना मेरा भी एक सपना है। अपनी इस नीयत और कामना का अधिक ख़ुलासा करने के लिए कुछ दिनों पूर्व लिखी एक प्रतिज्ञा आप सबसे बांटना चाहता हूँ-

प्रतिज्ञा

हम भारत के लोग सब भारतीय हैं। हमें अपना देश और भारतीय भाषाएं प्यारी हैं।

हम दुनिया भर में बोली जानेवाली भाषाओं, निवासियों के प्रति अमिट सम्मान रखते हुए हिंदी को सर्वश्रेष्ठ बनाने का संकल्प लेते हैं। हम जिस भाषा को अपनाएंगे उसका व्यवहार पूरी गरिमा से करेंगे।

संसार भर की भाषाओं में विद्यमान सर्वश्रेष्ठ साहित्य,विचार, ज्ञान और विज्ञान के प्रति अपने मस्तिष्क, आँख और कान खुले रखेंगे।

हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने के लिए भारतीय महामनाओं के सपने और प्रयत्नों को साकार करेंगे।

हिंदी हमारी राजभाषा है। इसे राष्ट्रभाषा बनाने का प्रयत्न और भारतीय संघ गणराज्य के प्रभुत्व की रक्षा करना हमारा कर्तव्य है।

हम सभी भाषाओं की अस्मिता अक्षुण्ण रखते हुए हिंदी की उन्नति के लिए प्रतिबद्ध रहने की प्रतिज्ञा करते हैं।

जय हिंद!

आइये हम हिंदी को केवल बचाने के लिए नहीं उसके लिए आज़ादी की लड़ाई लड़ चुके महापुरुषों के सपनों को साकार करने के लिए भी एक कदम बढ़ाएं।

शशिभूषण

बुधवार, 4 जनवरी 2017

कुछ हालिया सीख


1. पापा और मम्मा, जो भी सुन रहे हैं प्लीज ध्यान दीजिए। बाहर कोई आये हैं। गेट पर खड़े हैं।

क्या हुआ?

अपनी छत पर पतंग आ पड़ी है। निकाल कर दे दीजिए।

समय नहीं है। बाद में देंगे।

दे दीजिए न, आप लोग भले काम करिए वरना लोग नहीं मानेंगे आप दोनों टीचर हैं।

अच्छा? तुम दे दो। स्टूडेंट को भी भलाई करनी चाहिए।

आप लोग को अच्छे से पता है तो याद भी कर लीजिए न मुझे छत का गेट खोलना नहीं आता।


2. पापा, समझदारी से काम लीजिये अब

क्या हुआ?

आपने चश्मा लगा रखा है, लगा रखा है कि नहीं? पावर वाला!

लगा तो रखा है

आपने मोबाईल पर भी हमेशा की तरह आँख गड़ा रखी है तो क्या होगा? सोचिये

क्या होगा?

सवाल से कुछ नहीं होगा

फिर कैसे होगा?

ऐसे होगा कि आप जहाँ समझदारी छोड़कर आ गए हैं वहां से ले आइये

ओह ये बात है

मुश्किल बात नहीं है पापा आप समझ नहीं रहे हैं


3. दिवि आप सयानी हो चुकी हैं

मैं बच्ची हूँ अभी। पांच साल की

सिखाती तो अम्मा की तरह हैं

आप लोग काम ही ऐसे करते हैं

अच्छा ?

हाँ और एक बात और है

क्या ?

सिखा कोई भी सकता है बस पता होना चाहिए।


4. पापा, लीजिए रोल बनाईए

देख रही हो मैं पढ़ाई कर रहा हूँ

एक्टिविटी भी अच्छी होती है

अभी पढाई अधिक ज़रूरी है दिवि

ठीक है फिर सीख न पायें तो मुझे मत कहना

क्या कर रहे हो तुम लोग? दिवि कहां हो?

दिवि प्रो यशपाल कमेटी से आगे निकल गयी हैं

मम्मा मैं यहीं हूँ

000

इस वक़्त दिवि ट्रेन में ऊपर की बर्थ पर सो रही हैं। सुबह जागने पर जब उन्हें सुनाया जायेगा तो वे मोबाईल छीनकर पढ़ना चाहेंगी।

पढ़ने के बाद कह सकती हैं। अच्छा है लेकिन पापा आप अधिक कहानी मत बनाया कीजिये।

हो सकता है मैं कहूँ

अच्छा जी!!!

हम लोग : साहित्य अकादमी - सम्मान और सरोकार- NDTV

एनडीटीवी के कार्यक्रम 'हम लोग' में नासिरा शर्मा को उनके उपन्यास पर मिले साहित्य अकादमी सम्मान के उपलक्ष्य में; मृदुला गर्ग, अल्पना मिश्र और संजीव कुमार को सुनने का मौक़ा मिला।

नासिरा जी अंत तक सबसे संतुलित लगीं। मृदुला जी का तंज तार्किकता के अभाव में निष्प्रभावी लगा। उन्होंने बोलते बोलते मन्नू भंडारी के उपन्यास 'महाभोज' के बारे में बोल दिया इसमें कुछ नहीं। यह सामान्य राय नहीं बल्कि अपनी पसंद नापसंद के अतिरेक में किसी कृति को भी ख़ारिज कर देना है।

यदि, यही दूसरे अन्य सन्दर्भ में कर रहे हों तो फिर शिकायत कैसी? प्रायोजित और गन्दी साहित्यिक राजनीति किस तरह?

मुझे इस बात से बड़ी निराशा हुई कि मृदुला जी की यदि अशोक वाजपेयी से असहमति हो भी तब भी सम्मान वापसी के पूरे दौर को, इससे जुड़े सभी महत्वपूर्ण लेखकों को जो गैर हिंदी भाषी भी रहे; इस तरह ख़ारिज कैसे कर सकती हैं?

एम एम कलबुर्गी की नृशंस हत्या के बाद साहित्य अकादमी की उदासीनता और सरकारी अनुगामिता से व्यथित होकर सम्मान लौटाने से शुरू हुए व्यापक प्रतिरोध और बहस को उन्होंने लेखकों की परस्पर असहिष्णुता या गुटबाज़ी में ग़र्क़ कर दिया।

ऐसे अवसरों पर यह जानना काफ़ी तकलीफदेह होता है कि हमारे उम्रदराज़, सफल लेखक भी विचारहीनता की रचनात्मक स्वायत्तता के लिए कैसे बौना, आत्मकेंद्रित होना स्वीकार कर लेते हैं!!!

मृदुला जी यदि काशीनाथ सिंह से सहमति रखती ही हैं, उन्हीं के शब्दों में वे अकादमी की जूरी में रहते उनकी वकालत भी कर चुकी हैं तब क्या उन्हें यह याद कर लेना सचमुच कठिन था कि काशीनाथ सिंह जी भी सम्मान वापस कर चुके हैं? नामवर जी से नासिरा शर्मा जी को भी आपत्ति है माना लेकिन काशीनाथ सिंह से किसी को क्या नाराज़गी हो सकती है? वे तो लेखन में भी आज तक शिथिल नहीं हुए हैं बल्कि कठोर नियमित रचनात्मक और नयी ज़मीन तोड़नेवाले हैं।

बात यदि महिला लेखन या दलित लेखन या अल्पसंख्यक लेखन तक सीमित नहीं रहकर लेखकीय गरिमा की बहाली की ही हो रही हो तब मृदुला जी जैसे कथित तटस्थ वक्तव्य और उलझा ही देते हैं।

हम लोग : साहित्य अकादमी - सम्मान और सरोकार- NDTV

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अपराजेय संघर्षशीलता की कहानियाँ

कहानियों की किताब पर एक पुरानी टीप जो कहीं न छपी लेकिन आज कोई पुराना मेल खोजते मिल गयी। 2007-08 की बात है। तब सत्यनारायण पटेल का अंतिका प्रकाशन से पहला कहानी संग्रह 'भेम का भेरू मांगता कुल्हाड़ी ईमान' आया ही था। छपे न छपे अपना लिखा उतना ही प्रिय होता है। लेखक से नाराज़गी या राजी ख़ुशी हो सकती है लेकिन अपने लिखे से कैसा बिगाड़!!! समय और मन मिले तो पढ़ियेगा। अपने हिसाब से मैंने कुछ ठीक-ठाक बात कहने की कोशिश की है। - ब्लॉगर

सत्यनारायण पटेल का होना हमारे समय में एक ऐसे कथाकार का होना है जिसकी कथाभूमि पूरी तरह से लोक-जीवन हो। यह जीवन बहुरंगी छटा का श्रमिक और किसान जीवन है। संघर्षशील आमजन यहाँ नायकत्व पाता है। इस कथाकार की भाषा में लोक संस्कृति के स्वर हैं, जिसमें लोक की गर्वीली आत्मा बोलती है।

हिन्दी में कई ऐसे महत्वपूर्ण कथाकार हुए हैं जिन्होंने सबसे पहले एक आयडिया चुना फिर उसी को केन्द्र में रख कर कहानी का प्लॉट बुना। यानी तयशुदा थीम की ज़मीन पर कल्पनाशीलता के उपकरणो से संवेदना के बीज बोए। नतीजे में या तो पहले से चला आता हुआ कोई विचार पुष्ट हुआ या नए विचार की कोंपलें फूटीं। चूंकि कहानी स्वायत्त, समय-समाज की चौपाल पर सबसे मार्मिक साक्ष्य होती है इसलिये वह कैसे भी मुकम्मल हो एक उपलब्धि के रूप में ली जाती रही है। उसे उपलब्धि के रूप में स्वीकार भी किया जाना चाहिए।

अभी तक ऐसे कहानीकारों के मूल्यांकन की परंपरा विकसित नहीं हो पाई है जिनकी रचनात्मक जिजीविषा आयडिया या विचार नहीं प्रत्यक्ष जीवन है। ऐसे कथाकारों को कृपांक सा देते हुए आंचलिक आदि सिद्ध कर देने के प्रयास ज़रूर बहुत हो चुके हैं। कभी-कभी कथित ग्लोबल लेखकों के साये में पलती आलोचनाओं ने ऐसे कहानीकारों को प्रकृतवादी कहने की बेशर्मी तक दिखा दी है।

सत्यनारायण पटेल की कहानियों के पात्र और कथा स्थितियाँ खेतिहर, मज़दूर जिंदगी, मालवी धरती और बोली बानी से आए हैं। ये एकदम खरी, जीवंत, भरोसेमंद कहानियाँ हैं। इन्हें पढ़कर आप ये कहने का साहस नहीं कर सकते कि गढ़ी हुई कहानियाँ हैं। जैसे ‘पनही’ कहानी का पूरण जूते गढ़ता है ठीक उसी तल्लीनता, विवरणात्मक संलग्नता और गरिमा के साथ सत्यनारायण पटेल कहानी बुनते हैं। यह कथाकार जैसे कहानियाँ सुनाता है- फुरसत से, पूरी लंबाई में, धीरे-धीरे कदाचित रूक-रूक कर। सत्यनारायण पटेल की कहानियाँ पढ़कर निराशा या अंधेरे वक्त की ऊब महसूस नहीं होती है, बल्कि अनुभवों का भरा-पूरा जिंदादिल संसार सामने आता है। अनुभव जो हमारी समझ के रुके हुए रास्ते खोलते हैं, ताकत देते हैं। इनकी कोई भी कहानी उठा लीजिए चरित्रों का समूह मिलेगा। इस समुह में कोई हमारी बात रखता हुआ सुनाई देगा तो कोई वर्ग शत्रु की क्रूरता के साथ खड़ा मिलेगा। यहां एक सा जीवन जीने वाले, एक सी स्थगित भाषा बोलने वाले जिसमें धर्म, राजनीति, बाजार या सांस्कृतिक सत्ता का व्याकरण होता है, चरित्र नहीं मिलेंगे।

सत्यनारायण पटेल, इन अर्थों में आज के प्रगतिशील कथाकार हैं जिन अर्थों में पहले प्रगतिशील कवि हुआ करते थे। इस कथाकार में परिवर्तन, संघर्ष, समता, सामाजिक न्याय और समाजवाद के प्रति अटूट आस्था मिलती है। कृत्रिम उत्तर आधुनिक शोरगुल वाले परिदृश्य में जब लेखकीय समझ को ही विश्वदृष्टि और विचारधारा कहने की आलोचकों में हड़बड़ी है और समकालीन कथाकारों के विचारधारा निरपेक्ष होने को बड़ी खूबी की तरह प्रचारित करने की चलताऊ कोशिश है; कथाकार सत्यनारायण पटेल मार्क्सवाद की ठोस ज़मीन पर खड़े हुए दिखते है। इनकी मार्क्सवाद या सामाजिक क्रांति के प्रति प्रबल आस्था पर अब तक कोई फर्क नहीं पड़ा है जबकि सत्यानारायण पटेल समाज, राजनीति, इतिहास और सत्ता के सारे समीकरणों के रोज़ रोज़ का तीखा और प्रतिरोधी गवाह हैं। यह सब कहकर मैं इस कथाकार को पुरानी धारा का जनवादी कथाकार नहीं हमारे समय का देशज प्रतिबद्ध प्रगतिशील कथाकार कहना चाहता हूँ।

यह कहानीकार, कहानियों के लिये छद्म वातावरण का निर्माण नहीं करता। इसकी कहानियाँ दिलचस्प वर्णन या बतकही से शुरू नहीं होती। बल्कि विवरण कहीं-कहीं तो खाली छोटे-छोटे संकेत स्थितियों के अनुरूप आते जाते हैं। इसी कारण इनका शिल्प सख्त स्फीत हो गया है। सत्यनारायण पटेल की कहानियों का शिल्प कच्चे नारियल की तरह है। पहले उसे काटना, भेदना पड़ता है। लेकिन एक बार यह हो जाए तो कौन नहीं जानता नारियल पानी की मिठास शीतल पेयों की सजावटी, विज्ञापनी मिठास से बेहतर होती है। यह हमें समृद्ध और मजबूत बनाती है। हमारे समय की केक कहानियों के बीच इनकी कहानी बिनिया कंडे(अनगढ़ उपले) से सिंकी हुई सोंधे अंगाकर(रोटी) हैं।

सतत अनिश्चितता सत्यनारायण पटेल की कहानियों की एक और मुख्य विशेषता है। यह कथाकार परिवेश का कोई टुकड़ा सलीके से उठाता है और उसके सहारे कहानी की पर्ते धीरे-धीरे खोलने लगता है। इनकी कहानियाँ क्रमशः खुलती और आगे बढ़ती हैं। पात्रों का अधिनायकत्व रचने वाले दूसरे कथाकार होंगे। सत्यनारायण के यहाँ उनकी लोकतांत्रिक मौजूदगी देखने को मिलेगी। इस संग्रह की सारी कहानियों में कोई पात्र ऐसा नहीं मिलेगा जिस पर पूरी कहानी निर्भर हो, बल्कि वह केन्द्रीय लगने वाला पात्र भी क्रमश: गौंड़ होने लगता है। और अंतत: दूसरा पात्र उसकी केंद्रीयता को नेपथ्य में कर देता है। ऐसा इसलिए है क्योंकि सत्यनारायण पटेल एक यादगार चरित्र खड़ा करने की बजाय एक सक्रिय समूह खड़ा करने की महत्वाकांक्षा रखते हैं। इनकी कहानियां अपेक्षाकृत लंबी और औपन्यासिक होती हैं। ‘भेम का भेम मांगता कुल्हाड़ी ईमान’ का अंत याद कीजिए जहां कथा नायक गरम कुल्हाड़ी लेकर आगे बढ़ रहा है और पूरा समुदाय निर्णायक होता जा रहा है जैसे अब जो प्रतिरोध में आगे आएगा वह नायक हो जायेगा। `पनही` का पूरण हो या `गांव और कांकड़ के बीच` का बालू ये सब अंत में सँघर्षशीलों के समूह में पर्यवसित हो जाते हैं। यही वजह है कि सत्यनारायण पटेल की कहानियों में अपराजेय संधर्षशीलता दिखाई पड़ती है।

ऐसा नहीं है कि इस कथाकार को हमारे समय के अंधेरे, नैराश्य, विभ्रम और पराजयों का पता नहीं है। लेकिन यह कथाकार इनके विरूद्ध प्रतिसंसार खोजने में लगता है। जो निश्चित रूप से लड़कर हासिल होगा। यही संघर्ष से प्राप्त प्रतिसंसार इस कथाकार की उपलब्धि है। सत्यनारायण पटेल की कहानियों में दलित और स्त्री जीवन अपने विशिष्ट स्वरूप में संघर्ष चेतना के साथ अभिव्यक्त होता है। वे समकालीन कथा जगत में दलित और स्त्रियों को विमर्शो के फार्मूले सिद्ध करने के लिये इस्तेमाल करने वाले कथाकारों से अलग हैं। वे ब्राम्हणवाद से लड़ने के लिये नारेबाजी का सहारा नहीं लेते, बल्कि वर्गीय अर्न्तविरोध कैसे शोषकों तथा शोषितों के बीच की गुत्थियाँ नहीं सुलझने देते, शोषितों को एकजुट नहीं होने देते इसको परत दर परत उघाड़ने के लिये जीवन का तटस्थ रूपांकन करते हैं। जब वे दलित पृष्ठभूमि उठाते हैं तो पहले से चले आ रहे सिद्धांतो को पुष्ट करने में प्रयासरत् नहीं दिखाई देते, बल्कि दलितों के सुख-दुख, संर्घष, हार-जीत को वर्गीय तेतना के साथ प्रकट करते हैं। सत्यनारायण पटेल की कहानियों की स्त्रियां- पीराक (पनही), केसर(बिरादरी मंदारी की बंदरिया), झन्नू(गांव और कांकड़ के बीच), चत्तर(बोंदा बा), सकीना (भेम का भेरू मांगता कुल्हाड़ी ईमान), व्यक्तित्व संपन्न संघर्षशील स्त्रियाँ हैं।

सकीना को छोडकर सबकी सब प्रतिरोध करती हैं, निर्णय लेती हैं और समय आने पर शोषण के विरूद्ध सामाजिक लड़ाई के सूत्रधार की भूमिका निभाती हैं। इन औरतों को भारतीय ग्रामीण समाज में ढूंढ पाना कोई मुश्किल काम भी नहीं है। ये उन कहानियों की स्त्रियों से भिन्न हैं जो सीधे कहानियों में ही अवतरित् होती है, सुंदर, बौद्धिक, कमाऊ होती हैं। अपनी आर्थिक आजादी के बल पर पुरूष सत्ता को चुनौतियां देती रहती है। चुनाव लड़ती हैं, एन.जी.ओ. चलाती हैं, लिव इन रिलेशन की संमर्थक हैं या अकेली रहती है। विभिन्न संगठनों के माध्यम से स्त्री चेतना का अदान- प्रदान करती हैं। लेकिन अंतत: खुद को शोषितों के बीच ही पाती है। इसके विपरीत ये वो स्त्रियां हैं जो गरीबी और बिरादरी के जालों को भेदने के लिये पति को शोषक माने बिना उसे लड़ने के लिये उकसाती हैं और साथ-साथ खड़ी होती हैं।

सत्यनारायण पटेल की कहानियों में संवाद विशेष महत्व रखते हैं। हालांकि वे लम्बे होते हैं, ज्यादातर पात्रों की स्थानीय बोलियों(मालवी) में होते हैं जिससे कहानी का प्रवाह बाधित भी होता है। फिर भी यह उल्लेख्य खूबी है कि जब समकालीन हिंदी कहानी में अलग-अलग चरित्र करीब-करीब एक जैसी भाषा बोलते हैं तब उनकी कहानियों में चरित्रों की निजता बोलती है।

`पनही` कहानी में पूरण जब पनही गढने के बाद पटेल को देने निकलता हैं तो एक बार उसे गौर से देखता है इस बार उसे पनही की नाथन पर टँके फूल(पत्नी) की आँखें लगे। पनही का ऊपरी हिस्सा जिसके नीचे पांव का पंजा रहता हैं, वह पूडी सा दिखा, पनही की कमर के कटाव को देखकर वह मुग्ध हो गया और पैर की एड़ी ढकने वाला भाग देखकर, पीराक आंखों में उतर आयी। पटेल को पनही देखकर पनही की नाथन पर टंके फूल पटेलन के कानों के सुरल्ये लगे। लेकिन जब पटेल पूरण को शाबासी देने के लिये आगे बढ़ता है तो उसके मुंह से जो बोल फूटते है वह सांमत आवाज है- “किसी को खींचकर मार दो तो जीभ निसरी जाए”

‘पनही’ संग्रह की पहली कहानी है। इसमें चमडे का जूता गढ़ने वाले पूरण का क़िस्सा है। पूरण ग्रामीण मज़दूर है। पनही बनाने का उसका हुनर इलाके भर में मशहूर है। वह हर बार पटेल के लिये नये डिजाईन की पहले से सुंदर पनही गढ़ता है। उसका पनही बनाना किसी कला की साधना जैसा है। लेकिन इस काम से मिलने वाली आमदनी इतनी कम है कि परिवार का पेट पालना मुश्किल है। एक और विडंबना देखिए पनही बनाने वाला पूरण खुद पनही नहीं पहनता। इसकी बिरादरी का कोई भी पनही नहीं पहन सकता। एक बार पूरण नयी बनायी पनही लेकर पटेल के पास जाता है। तो वह मजदूरी बढ़ाने की मिन्नत करता है जिससे पटेल इंकार कर देता है। पूरण आगे की बातचीत से गुस्से में आ जाता हैं और बोल देता है- "ढोर घीसने के काम में इतनो ही तमारे फायदो नजर आवे तो तम करो, म्हारे नी करनू् है।" पटेल आग बबूला हो जाता है।

यहाँ से कहानी उस दिशा में आगे बढ़ती है। जब पूरण की मुश्किलें और उसकी बिरादरी के संघर्ष शुरू होते है। उसके साथी बिरादर एकजुट हो जाते है लेकिन वह पत्नी से कहता है –“तुम लोगो के माथे कटवाओगी।“ पीराक जवाब देती है -"पटेल की पनही पर धरे माथे की क्या आरती उतारें, ऐसा माथा कट जाए तो भला।" पूरण की दुविधा मिट जाती है वह लोगों के साथ इस सपने के लिये लडने को तैयार हो जाता है कि अब हमारी औलादें पढेंगी, पनही पहनेंगी और पटेलों की जी हुजूरी नहीं करेंगी। वह अपने लोगों से कहता है- "अब मेरा मुह क्या देख रहे हो, जाओ टापरे मे जो कुछ हो-लाठी, हँसिया लेकर तैयार रहो पटेलों के छोरे आते ही होंगे और हां उबाडे पगे मत आजो कोई ।"

पूरी कहानी अपनी बनावट में अत्यंत सघन है। मुक्ति कामना की जैसी अनुगूंज कहानी में है वह अद्वितीय उदाहरण है। कहानी हमें खाली झकझोरती ही नहीं हमारी चेतना में इतिहास की भांति दर्ज हो जाती है। जैसे पूरण पीराक और उनके लोग कहानी के पात्र नहीं हमारे पीछे छूट गये संघर्षशील साथी हो, जो दूर दराज कहीं अब भी लड़ रहे होंगे लेकिन हमारी जिंदगी में कहानी हो गये।`पनही` महज कहानी नहीं संघर्ष चेतना का सुंदर, कल्पनाशील आख्यान है।

‘बोंदा बा’ संग्रह की तीसरी कहानी है। दाम्पत्य की मार्मिकताओं का जैसा यथार्थ, गहन चित्रण इस कहानी में हुआ है वह उपलब्धि है। ‘बोंदा बा’ का दुख सार्वभौम सच्चाई है लेकिन उसका प्रतिरोध कलात्मक दृष्टि का सफलतम उदाहरण है। औलाद की क्रूरताओं और पत्नी के असहाय प्रेम मे बोंदा बा का जो चरित्र उभरता है वह दाम्पत्य की विडंबनाओं का प्रतिनिधि चरित्र है। ठंड से बेहाल बोंदा बा ठंड भगाने के लिये जिस तरह घर के कपड़े जला डालने का निर्णय लेता है उसका अपने प्रति अत्याचार के प्रतिकार की यह व्यंजना विलक्षण है। कहानी का अंत होता इस उम्मीद से कि एक एककर कपड़े जल रहे थे, लपटें आसमान छू रहीं थीं और भुनसारा हो रहा था।

`बिरादरी मंदारी की बंदरिया` उस सामाजिक यथार्थ को प्रकट करती है जिसमें बिरादरी शोषक सत्ता और भ्रष्ट व्यवस्था का आचरण करती है। दबंगई कैसे रिश्तों, संबंधों, दोस्तियों, विश्वासों का खून चूसकर बिरादरी की जोंक तैयार करती है जिसके मुँह में इंसान लगातार रक्त क्षीण होते जाते है यह सब कहानी में आप बिना कवित्वपूर्ण शैली और किसी बौद्धिक ताम-झाम के बगैर देख सकते है।

`गांव और काँकड़ के बीच` कहानी के केंद्र में कभी समाप्त न होने वाले जाति संघर्ष है। इन संघषों को धर्म, प्रचलित राजनिति, स्वीकृत दलित-सवर्ण सोच के दायरे में रखकर न देखा जाना एक उपलब्धि है। कहानी बताती है कि वर्तमान सामाजिक संरचना में जाति दरअसल संपत्ति केंद्र हैं। इस समाज में जब भी कोई इंसान जैसा सोचने लगता है तो सबसे पहले उसकी किसी कमजोरी को आधार बनाकर बिरादरी बाहर करने की कोशिश की जाती है। इसके बावजूद जब वह नही मानता यानी जाति, वर्ण के बाहर श्रमिक की जातीयता हासिल कर लेता है, एक समूह का अंग बन जाता है, फिर शोषण को चुनौती देता हैं तो उसे मार दिया जाता है। कहानी की खूबसूरती इसमें है कि वह बताती है- अकेला आदमी मार दिया जा सकता है लेकिन समुदाय नहीं मरता ।

`भेम का भेरू मांगता कुल्हाड़ी ईमान` सत्यनारायण पटेल की कहानी कला को एक नया आयाम देती है जिसमें भाषा और जीवन के संधान की प्रवृत्ति का उत्कर्ष दिखायी पड़ता है।

कुल मिलाकर कहना चाहिए सत्यनारायण पटेल की कहानियाँ जीवनानुभवों की निर्मिति हैं। कोरे अनुभवों या सैद्धांतिकी के आधार पर निर्मित समझ उनकी कहानियों के भीतर धंसने में बाधक होगी। उन्हें इन कहानियों का सच्चा आस्वाद मिलेगा जो अपने-अपने द्वीपों के वासी नहीं होंगे या फिर उन्हे जो कहानियों को जिंदगियाँ बूझने का अचूक उपाय मानते है।

शशिभूषण