शनिवार, 10 दिसंबर 2016

भक्त बनाम संविधान

पिछले कुछ सालों में भारत को कुछ मिला हो न मिला हो लेकिन प्रतिरोध का एक शानदार शब्द ज़रूर मिला है। वह शब्द है भक्त।

भक्त, भारत का अब विवेकपूर्ण असहमति का एक स्वीकृत सार्वभौम शब्द है। चरमपंथियों, अतिवादियों, अलगाववादियों, अंध अनुयाइयों, विघटनकारी और पेशेवर धार्मिक उन्मादियों को एक शब्द में बुलाना हो तो भक्त पर्याप्त शब्द है।

मुझे मालुम नहीं इस शब्द को प्रचलन में लाने के लिए सबसे अधिक श्रेय किसे दिया जाना चाहिए। लेकिन इस शब्द की साहित्यिक ऐतिहासिक पृष्ठभूमि आपको याद दिलाना चाहूंगा।

मुक्तिबोध ने बहुत ज़ोर देकर कहा था कि भक्ति आंदोलन जो संतो के सुधार और विराट सामाजिक परिवर्तन का उद्देश्य लेकर अपने चरमोत्कर्ष पर चल रहा था उसे उत्तरार्ध में भक्त कवियों ने हथिया लिया।

उल्लेखनीय है कि भक्त कवि अधिकांश सवर्ण थे और वर्णव्यवस्था के पोषक थे। स्मरण रहे बकौल मुक्तिबोध संतो के खून पसीने से सींचे हुए अखिल भारतीय भक्ति आंदोलन को भक्त अतीत में ऐसा धक्का दे चुके हैं कि वह आज धार्मिक कारोबार में तब्दील हो चुका है। इससे अधिक सत्यानाश और क्या हो सकता है!!!

लेकिन अब डरने की बात नहीं। संविधान अपने साथ है। कुल मिलाकर यही वह ठीक वक्त है जब बिना डरे, बिना झुके भक्तों को भक्त कहा जाये। संविधान की मूल आत्मा को बचाये रखा जाये।

अपनी सीमित समझ के साथ मैं कहना चाहता हूँ कि भक्त कह सकने वाले, भारतीय समावेशी सांस्कृतिक एकता के आलोचकीय प्रतीक हैं। 
शशिभूषण

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