शनिवार, 10 दिसंबर 2016

लोकतान्त्रिक राजतन्त्र

किसी भी युग में और कैसे भी दौर में नागरिकों के लिए अराजनीतिक रहना असंभव होता है। ख़ासकर लोकतंत्र में जहाँ मत व्यक्त करने और मतदान के अधिकार हों। जहाँ प्रचार और मत निर्माण की क़ानूनी आज़ादी हो। यदि राज्य ही तय करता हो कि आपको सड़क में किस ओर से चलना है या कि बैंक में कितनी राशि जमा करनी है, कितनी निकाल सकते हैं तब अराजनीतिक कैसे रहा जा सकता है?

जब नोट के वोट या वोट के नोट का हाहाकार उपमहाद्वीप कहे जानेवाले देश में व्याप्त हो। मीडिया और बुद्धिजीवी ऐसे विभाजित हो गए हों कि तय करना असंभव हो किसके आंसू सच्चे हैं जनता के या नेता के? या दोनों ही आंसू सच्चे हैं? अथवा दोनों के ही आंसू, आंसू नहीं दिखावा हैं?

बयानों की तो छोड़ ही दें। उनकी विविधता मात्र से मस्तिष्क में एक अराजक भारी भीड़ हो।

जब सरकार और विपक्ष लगातार अपने फैसलों या विरोध से ऐसी परिस्थितियां पैदा करते हैं जिनमें नागरिकों का रोज़मर्रा का जीवन प्रभावित होने लगता है, खाने पीने, शादी व्याह तक पर सत्ताधारी, बहस-हस्तक्षेप करने लगते हैं तो नागरिकों की छोटी-मोटी प्रतिक्रियाओं में भी राजनीति परिलक्षित होती ही है।

वह कितना ग़रीब, दिवालिया राजनीतिक रूप से अति सक्रिय नागरिक समय होगा जब भारत में कब्ज़ का मरीज़ कोई अधेड़ हीss हीss... करते हुए पाकिस्तान जाने की कहे या कोई बच्चा जिसे अभी नाक साफ़ करना न आया हो किसी दूसरे बच्चे को ए पाकिस्तानी... कहकर बुलाये।

जब हर नागरिक कोई राजनीतिक बयान देने लगे अथवा लोगों की हर बात का कोई राजनीतिक सन्दर्भ निकल आये तो समझिए सरकार और जनता के बीच सम्बन्ध न केवल तनावपूर्ण हैं बल्कि न्यायपूर्ण भी नहीं हैं। जब विद्यार्थी और सैनिक आत्महत्या पर उतर आएं तो राजनीति कितनी भीतर धंस चुकी है सोच सकते हैं।

राजनीति हो या स्वास्थ्य यदि इन पर सतत चर्चा हो रही है तो बदलाव या सुधार की आवश्यकता से हरगिज़ इंकार नहीं किया जा सकता। बहुत पुरानी मान्यता है कि स्वस्थ व्यक्ति स्वास्थ्य के बारे में नहीं सोचता। तंदुरुस्ती की चिंता ही तब होती है जब कोई ऐब दिख जाए।

कैसा भी आदर्श राज्य हो सबको राजनीति करने की सुविधा नहीं होती। पेशे के नियम और मांग भी होते हैं। यदि सैलून में बाल काटनेवाला अपना स्टाइल पहले ही तय कर दे तो क्या कहा जायेगा? विशेष परिस्थितियों को छोड़कर हर कोई यही चाहता है अपना काम किया जाये और यदि बातचीत या बहस हो तो उसमें राजनीतिक निहितार्थ न निकाले जाएँ।

मेरी राय में कुछ ही साल हुए हैं जब भारत में ऐसा दौर शुरू हुआ है जिसमें बिना राजनीतिक हुए आपसी बातचीत भी असंभव हो चली है। सादे से सादा व्यक्ति भी राजनीतिक जुमला बोलता मिल रहा है। कोई बात हो, कोई विषय मुख्यमंत्री, प्रधानमंत्री तक ज़िक्र पहुँच ही जाता है। आप किस तरफ़ के हैं इसकी शिनाख़्त कर ही ली जाती है।

पूरा देश जैसे सत्ता पक्ष और विपक्ष में बंट चुका है। जैसे कोई आपातकाल आया हुआ है कि फैसला हो ही जाना चाहिए। हर व्यक्ति जैसे राजनीतिक कार्यकर्त्ता के संदेह के साथ देखा जा रहा है।

बिलकुल नामालूम सी चर्चा में भी देशभक्त या देशद्रोही का ज़िक्र आ जाना उस व्यक्ति को खासा परेशान कर देता है जिसकी देशभक्ति जांचने का न तो अवसर होता है न ज़रूरत। इसी प्रकार देशद्रोह जैसे संदेह तक बातचीत को ले आना कितना भयावह है शब्दों में बयान नहीं किया जा सकता।

मेरी राय में इन दिनों देश में जो परिस्थितियां हैं वे लोकतान्त्रिक राजतन्त्र के सबसे निकट हैं। जहाँ नागरिक स्वतंत्रता सबसे कम दिखती है और सत्ता से जुड़ा हुआ किसी प्रकार का व्यक्ति चाहे वह पत्रकार ही क्यों न हो राजा की तरह आदेश देने और अपनी बात थोप देने के लिए असीमित रूप से ताक़तवर और आज़ाद है।

ऐसा वक़्त धीरे धीरे सिकुड़ता जा रहा है जिसमें अपना काम किया जाये और बेसुरे गले से ही सही एक गाना गाया जाये जिसे किसी राष्ट्रीय सन्देश की तरह न सुन लिया जाये।

कितना अजीब है कि इंसान का देश घबरा उठे। कितना विचित्र है कि लोकधर्म बौना होकर रह जाये।

शशिभूषण

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