सोमवार, 10 अक्तूबर 2016

बयां जब कहानी करें न आँखों का पानी मरे

पत्रिका 'सामायिक सरस्वती' में प्रकाशित एक विवाद में कथाकार-चित्रकार-फिल्मकार प्रभु जोशी पर कहानीकार भालचंद्र जोशी जी का आरोप है कि उन्होंने आदतन अपने बहुत क़रीबी लोगों की हमेशा छवि ख़राब की। इस आरोप में उन्होंने बतौर सबूत तीन ऐसे साहित्यकारों का नाम भी लिया है जिन्हें मैं थोड़ा-बहुत जानता हूँ। तीनों संयोग से कहानीकार हैं। अपनी विशिष्ट पहचान रखते हैं। नाम हैं प्रकाश कान्त, जीवन सिंह ठाकुर और सत्यनारायण पटेल। तीनो कहानीकार मूल रूप से देवास के हैं। प्रभु जोशी का जन्मस्थान भी देवास ही है।

प्रकाश कान्त को प्रभु जोशी कान्त कहते हैं। जीवन सिंह ठाकुर को काका और सत्यनारायण पटेल को सत्यनारायण। तीनो कहानीकार प्रभु जोशी को प्रभु दा कहते हैं। प्रभु जोशी ने कम से कम बीस बार मुझसे कहा होगा कि मुझे कान्त और काका के बारे में संस्मरण लिखना है। मैं सत्यनारायण पटेल के साथ प्रभु जोशी के घर गया हूँ और प्रभु जोशी के साथ कान्त और काका के घर जा चुका हूँ। मैंने हमेशा एक गरिमा, अपनापन और कभी ख़त्म न होने वाली दोस्ती की गंध महसूस की है। भालचंद्र जोशी जी के आरोप में जो बदबू है वह बर्दाश्त नहीं हुई।

काका का प्रभु जोशी एक किस्सा सुनाते हैं- परीक्षा चल रही थीं; मैं पढ़ रहा था और काका कोई राजनीतिक तैयारी में लगे थे। वे पर्चे वगैरह लिखते थे। मैंने कहा काका, कल परीक्षा है तो काका ने कहा वियतनाम में और वहां वहां ऐसा संकट आया पड़ा है और तुम्हें परीक्षा की पड़ी है। बाद में रिजल्ट आया तो काका बहुत उदास थे। बोले प्रभु दा यह व्यवस्था हमें पास नहीं कर सकती। मैंने कहा काका एक रात की बात थी पढ़ लेते। बस। ऐसे हैं अपने काका। विश्वस्तरीय चिंताओं में रहते आये हमेशा से। अंतराष्ट्रीय राजनीति में उलझे, जब उलझे। समाजवादी हैं। सौजन्य की मूर्ति। विनम्र इतने हैं कि हमेशा हाथ जोड़कर अभिवादन करते हैं। डस्टबिन में कचरा भी डालेंगे तो क्षमा मांगकर। बोल सकते हैं डस्टबिन, माफ़ करना हमें कचरा डालने के लिये आपका उपयोग करना पड़ रहा।

कान्त के बारे में प्रभु जोशी कहते हैं कि जिस महाविद्यालय में मैं लाइब्रेरी में बुक लिफ्टर था उस महाविद्यालय में कान्त एम ए में पढ़ते हुए हीरो लेखक थे। लड़कियों के चहेते। खूब छपते थे और महाविद्यालय में लोकप्रिय थे। मैंने कहानी लिखनी शुरू ही की कान्त को देखकर।

जिस किसी ने प्रभु जोशी की अविस्मरणीय कहानी 'आकाश में दरार' पढ़ी होगी उसे यह बताने की ज़रूरत नहीं कि उसमें प्रकाश और परभु नाम के परस्पर दोस्त हैं। प्रभु जोशी ने तस्दीक नहीं की है कभी लेकिन मेरा अनुमान है वह प्रकाश, कान्त ही हो सकते हैं। वे पूरे के पूरे न भी उतरे हों तो भी याद वही आते हैं। कहानी के पात्रों में समकालीन लोगों की निशानदेही कर लेना गलत हो सकता है लेकिन इसकी भी नोबत आ जाये तो क्या करें?

सत्यनारायण पटेल के बारे में प्रभु जोशी का कहना है कि उसकी कहानी में विवरण अधिक होते हैं लेकिन वह अच्छा काम कर रहा है। भाषा में मालवी शब्दों का प्रयोग ग़लत नहीं। उन्होंने एक रेडियो प्रोग्राम में मालवा के कहानीकारों में सत्यनारायण पटेल को शुमार भी किया है।

ये तीन उदाहरण अपने रिस्क और जवाबदेही पर इसलिए कि किसी वरिष्ठ साहित्यकार-कलाकार पर हमला ही करना हो तो भी इस कदर उसे अपने निकट के लोगों से दूर न किया जाए। निकटतम लोगों के बीच किसी को बैरी और निकृष्ट साबित कर देने की कोशिश किसी के लिए भी बड़ी असहनीय होती है।

भालचंद्र जोशी जी को अपने लिखे हुए के सम्मान में कदाचित प्रभु जोशी को बूढ़ा और चुका हुआ तथा प्राइमरी के बच्चों जैसा पेंटर कहने की आवश्यकता नहीं थी। यह बहुत निम्नस्तर का हमला है। जिसमें हमलावर ही चोट खाता है। मैंने सुना है प्रभु जोशी अपने कठिन अतीत में पुताई आदि का काम कर चुके हैं तो गरीबी की यह मेहनत भी सम्मान की दरकार रखती है। फ़िलहाल वे जलरंग के स्वयं शिक्षित ख्यात चित्रकार हैं। सब जानते हैं।

इस पूरे प्रसंग में पुनर्लेखन के दावे पर भालचंद्र जोशी जी का व्यक्तिगत होकर चरित्र हनन करने लगना मुझे आपत्तिजनक लगा। वे थोड़ा समय लेकर अपने लेखन के पक्ष में अपने तर्कों को गरिमापूर्ण बना सकते थे। आगे बहुत सारा लिखने के लिए भगवान का दिया सबकुछ है उनके पास। प्रभु जोशी ने उन्हें चैलेन्ज ही तो किया है कि अपने जैसा लिखकर दिखाओ तो वे जवाब के साथ सामायिक सरस्वती को एक नयी कहानी भी भेज देते। सब पोल खुल जाती प्रभु जोशी के दावे की। यह आगे भी किया जा सकता है।

यदि प्रभु जोशी आज ही सही भी साबित हो जाएँ तब भी भालचंद्र जी के पास बंदरिया का एक मार्मिक रोल बचता है जिसमें वह अपने मरे बच्चे को नहीं छोड़ती और ज़माने पर पलटवार भी नहीं करती कि नीच लोगो तुम मेरे बच्चे को मरा साबित करनेवाले महानीच हो।

वे कोशिश करते तो प्रभु जोशी से पूछ सकते थे मुझे दाखिल ख़ारिज करो मेरे बड़े भाई लेकिन अपनी ही लिखी कहानियों को मारकर क्या पाओगे? पहले जो अंग दान कर चुके उन्हें अपनी काया नें फिर कैसे लगाओगे? दुनिया की महान लोककथाओं के कथाकारों को कौन जानता है? कहानी को जारज बनाकर किसका भला होगा? क्या साहित्य का? क्या समाज का? और आज तक पुनर्लेखन का कौन सा वाद फैसले तक पहुंचा है?

लेकिन भालचंद्र जी ने चरित्रहनन का रास्ता चुना। यह नहीं होना था। उचित जवाब देने की बजाय दुश्मन को उसके निकट लोगों की नज़र में गिरा देने की कोशिश करना अमानवीय होता है।

यही एक वजह है जिसके कारण मैं प्रभु जोशी के व्यक्तित्व के पक्ष में खड़ा हूँ। रही बात कृतित्व की तो प्रभु जोशी का सृजन अमिट और अपनी मिसाल आप है

शशिभूषण

2 टिप्‍पणियां:

  1. आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि- आपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (11-10-2016) के चर्चा मंच "विजयादशमी की बधायी हो" (चर्चा अंक-2492) पर भी होगी!
    श्री राम नवमी और विजयादशमी की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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