रविवार, 14 अगस्त 2016

हिंदी कविता के ढहते परंपरागत मठ



शुभम श्री की कविताओं के बहाने हिंदी कविता के मौजूदा वितान पर जो बहस, चर्चा, रसरंजन और प्रतिवाद देखने को मिल रहे हैं वे कई स्तरों पर व्यक्तिगत रूचि-अरुचि से भले संचालित हों उनमें हिंदी समाज के वृहत्तर समाजशास्त्र की कड़ियाँ है।

ठीक एक दशक पहले हिंदी कहानियों के समंदर में ऐसी ही लहरों का हिलोर उठा था जब मरहूम रविंद्र कालिया के संपादन में वागर्थ के नवलेखन अंक पर नवलेखकों की कहानियों और हिंदी कहानी की परंपरा, भाषा, बदलते तेवर, मिज़ाज़ यानी कथ्य और शिल्प के पर्यावरण के रेखांकन पर तीखी गोलबंदी हुई थी। नवलेखन अंक के कई कहानीकार अब हिंदी आलोचकीय मर्सिया या चर्चा, कुचर्चा से परे अब स्वीकार्य या हिंदी जगत से बेदख़ल कर दिए क़िस्सागो बन गए हैं। दस साल पहले हिंदी में अपने जीवन, समाज, मनुष्यता और मनुष्य मन की आतंरिक परतों की कहानियां कहने बताने वाले लेखकों की रचनाओं को ‘कस्टमाइज़’ करने के लिए जो लकीरें खींची जा रही थी, उनके वास्तविक अकार-प्रकार की पड़ताल हमारा विषय नहीं है। बेहतर होगा कि इसपे हिंदी साहित्य का कोई ज़हीन विद्यार्थी पीएचडी करे। क्या मालूम किसी ने किया भी हो। हमारा मक़सद उस बहस के बहाने परिष्कृत हिंदी साहित्य पढ़ने-लिखने वाले लोगों के एक बेहद छोटे लेकिन अहम समुदाय के बीच बहस में लीक से हटकर लिखने के ख़तरों और करोड़ों हिंदी जन-जीवन (भौगोलिक लिहाज़ से उत्तर भारत की 55 करोड़ से ज़्यादा की आबादी) के साथ हिंदी लेखकों के रिश्ते की पड़ताल करना भी नहीं है। हम उस बहस की, इतिहास के मौजूदा चरण में, व्यापक परिणति पर भी चर्चा नहीं करना चाहते। नवलेखन अंक के इर्द-गिर्द हुई बहसों को याद करने का एक उद्देश्य उस बहस की एक कड़ी का मात्र उल्लेख है। शायद 2009-10 के दौरान नवलेखकों के एक उदीयमान सितारे ने अपनी बुज़ुर्ग पीढ़ी पर एक दिलचस्प आरोप लगाया था। उन्होंने एक सीनियर कहानीकार के बारे में एक क़िस्से से ही अपना बयान दिया। क़िस्सा मुख़्तसर-सा ये था कि दो दोस्त होते हैं। एक ग़रीब और एक अपेक्षाकृत धनी। धनी दोस्त अपनी एक फटी, मुड़ी-तुड़ी कमीज़ निर्धन को पहनने को देता है। घर जाकर वो उस मटमैली कमीज़ को धो-पोछ कर चमका देता है। कहीं से प्रेस वग़ैरह भी कर लेता है और वही कमीज़ पहनकर अपने उस धनी दोस्त से मिलने आता है। अब जिसने फटी-पुरानी कमीज़ दयानतदारी में अपने साथी को दी थी, उसे लालच हो उठता है कि अब वो कमीज़ उसे किसी तरह वापस मिल जाए।

हमारे तब के चर्चित नवलेखक और अब एक प्यारे क़िस्सागो ने उन बुज़ुर्ग कहानीकार को व्यक्तिगत तौर पर भरपूर इज़्ज़त बख़्शते हुए उनकी नवलेखकों के प्रति संरक्षणवादी ठसक को बख़्श देने का कोई इरादा नहीं जताया। बस ज़िक्र के लिए ज़िक्र कि उस वक़्त इन बहसों का प्लेटफॉर्म हिंदी की विभिन्न साहित्यिक पत्रिकाएं थीं। कथित सोशल-अन-सोशल मीडिया अभी पैदा नहीं हुआ था, जिसने अब हिंदी समाज के किसी बने-बनाए नतीजे पर पहुंचने के बावलेपन के राष्ट्रीय चरित्र और लक्षण को सनक की हद तक पहुंचा दिया है।

ये वाक़िया शुभम श्री की कविताओं के, एक पुरस्कार के बहाने, व्यापक पाठक वर्ग के सामने आने को लेकर हो रही गोलबंदी के आलोक में अहम है।

फेसबुक पर जो मत-मतान्तर आये हैं अब तक उनमें एक वर्ग इतना अचूक शुद्धतावादी बन बैठा है जितना कि कोई नीम-हकीम दावा करता है। भला हो भी क्यूँ न? ये जो इलहाम हो गया कि निर्णायक उदय प्रकाश थे। उदय से कुछेक ज़रूरी असहमतियों के बावजूद ये स्पष्ट करना ज़रूरी है कि मेरी नज़र में वे हिंदी राजपथ के निर्माण से बेदख़ल कर दिए कारीगर हैं। इसे वे कई बार कह चुके हैं कि वे भाषा के आदिवासी हैं। उनकी इस जागरूक आत्म-चेतना पर आक्रामक सवाल उछालने के लिए मेरे पास कोई तथ्य नहीं है। उनकी कहानियों, कविताओं, सुगठित गद्य को पढ़ कर मुझे हर हमेशा यह अहसास हुआ कि भविष्य के सच्चे उत्तराधिकारियों को जब जब अपनी तकलीफ़ों को शब्द देने की ज़रुरत होगी, वे ख़ुद को उदय की रचनाओं के क़रीब पाएंगे। 2010 में, गोरखपुर में, उनके मंचीय पथ-विचलन को अगर हम एक मात्र कसौटी बनाने की छिछोरी ज़िद न मानें तो उदय पर खुन्नस खाने वाले लोग अकारण ही अपनी ऊर्जा ग़लत जगह लगाते हैं। शुभम श्री की कविता के बहाने जो लोग “हिंदी के परंपरागत” पाठक के द्वारा “हॄदयंगम” न कर पाने की बेचारगी बज़ाहिर कर रहे हैं और शायद किसी फलित ज्योतिष के हवाले उन महफिलों के गुलज़ार रहने की आशंका व्यक्त कर रहे हैं जो “शहडोल के किसानों” को डोनाल्ड ट्रंप के किसी बयानों से “प्रभावित करने” की जुगत में लगे हैं या कि उदय पर “अपनी जैसी कविताओं/कहानियों को पसंद/प्रोत्साहित/पुरस्कृत करने” से आगाह कर रहे हैं वे इंसानी समाज की हर बड़ी लड़ाई को एक टुच्ची, दलदली राह पर धकेलने की हिमाक़त कर रहे हैं।

ये अपने ही बयानों को दुबारा पढ़ने, जांचने-परखने या उन्हीं के शब्दों में “पुनर्विचार” करने और अपने अंतर्विरोधों को रेखांकित करने की निजी तक़लीफ़ उठाने से गुरेज़ करेंगे।

इनके लिए दीपक रूहानी का एक शे’र ही काफ़ी और मौजूं है:
कुछ लोग बदहवास हुए आँधियों में इस तरह
जो पेड़ खोखले थे उन्ही से लिपट गए।

अब रही बात शुभम श्री की कविताओं की।

शुभम श्री की कई कविताएं हाशिया नामक ब्लॉग पे पिछले 3-4 सालों से हैं। जिन्होंने भाभूअ पुरस्कार ये बाद शुभम श्री की कविताओं को पढ़ा है, वे ज़रा और ठहर लें। तसल्ली से शुभम की सारी कविताएं पढ़ लें। कविता के असर से उबर आएं। फिर जितनी चाहे आलोचना करें।

हिंदी कविता और छुटभैये लीकों पर चलने वाले हिंदी गुटों के परंपरागत मठ टूट रहे हैं। इसलिए इसके मठाधीशों की आखेटक दृष्टि से की जा रही आलोचनाओं को गंभीरता से लेना कोई बुद्धिमानी नहीं होगी।
-अनिल मिश्र ( फेसबुक वाल, 11 अगस्त 2016) 

Comments

Prakash Upreti सही एकदम ...

Bhawna Masiwal कविता पढ़ी नहीं है अब तक..मगर आप की पोस्ट के बाद पढने का विचार बन गया है|

Reyazul Haque Anil ko likhte dekh kar maza aa gaya. Aur likha bhi ġazab hai. Hashiya par le rahe hain.

Som Prabh अनिल, सोशल साइट पर यह भाषा मौजूद नहीं है। इस प्रसंग में तो ज्यादातर लिखने की दुनिया से जुड़े लोगों के पास भी नहीं ही दिखा। इसे होना चाहिए था। होता तो हम सब कहीं बेहतर ढंग से अपनी -अपनी बात कर रहे होते।यह बहुत संपन्न करने वाला है।
मैं इसे दूसरी तरफ ले जाना चाहूंगा। मुझे नहीं लगता कि हिंदी के किसी भी लेखक, कवि को ऐसी खुली पाठकीय टिप्पणियों से गुजरना पड़ा होगा। ज्यादा से ज्यादा उसे सिर्फ लेखकीय बिरादरी में जांचा गया होगा। अपने -अपने क्लबों में स्वीकृत हुए लेखकों ने इतनी खुली, भयहीन, अराजक, उपहास करती, स्पष्ट और बहुत सी अन्य किस्म की टिप्पणियों का सामना शायद ही किया है। इसलिए कई वरिष्ठों को दिक्कत भी हो रही है। वे सही तरीके से प्रतिक्रिया नहीं कर पा रहे हैं, अनावश्यक आक्रामकता भी दिख रही है।असद जैदी ने तो सारेे असहमत लोगों को एक ही खांचे में रखते हुए इसे 'साहित्य में भगवे का प्रवेश' बता दिया। कुछ ने इसे मर्दवादी, कुंठितों का विरोध कहा है। यह दिखाता है कि हिंदी के लेखक को सिर्फ क्लबों में संवाद करने की आदत है, और वे पहली बार अपने पाठक को भी इतनी संख्या में प्रतिक्रिया करते देख रहे हैं। हिंदी समाज की स्वीकृति जैसे मिथ को यह ढहा रहा है क्योंकि ऐसी किसी चीज का अस्तित्व फिलहाल नहीं है।सहमतों की दमघोंटू दुनिया बनाने की जगह, ऐसी तीखी प्रतिक्रियाओं से हिंदी के लेखक को खुद को संपन्न करना चाहिए। भले ही उनका साहित्यिक मूल्य अधिक न हो, लेकिन यह लेखक की किसी किस्म की हेकड़ी को दुरुस्त करना है।

Shashi Bhooshan अनिल जी,
आप जिन बातों को छोड़ आगे बढ़ गए उनमें से कई महत्वपूर्ण मुद्दे थे पर कोई बात नहीं

आपने जिस किस्से का ज़िक्र किया वह कहानीकार चन्दन पांडेय का काशीनाथ सिंह पर किस्सा था। अपने मूल रूप में वह मुल्ला नसीरुद्दीन का किस्सा है। प्रसंग था युवा लेखकों को मनुष्य विरोधी कहा जाना। इनमें ज्ञान जी भी थे जो चन्दन को पहल में छापते रहे।

उनमें से कई युवा लेखक ऐसे भी हैं जो रवींद्र कालिया को सख्त नापसंद करते थे लेकिन यदि किसी युवा लेखक को कालिया जी के नाम से सम्मान मिल जाये तो उसे ज़ोरदार बधाई देते हैं।

मैं रवींद्र कालिया को संपादक के रूप में साहित्य के बड़े हितैशी के रूप में जानता हूँ। उन्होंने किसी निर्णय से बहुत बड़े और दूरगामी साहित्य हित का काम किया।

यद्यपि तब भी बहुत से लोग चुप थे जो उसी समूह के थे।

मैं उदय प्रकाश जी का सम्मान अपने विवेक के आधार पर करता आ रहा हूँ। इसमें कोई कमी अब तक तो नहीं आई है।

हाशिया का नियमित पाठक हूँ। रियाजुल जी का मुरीद। पोस्ट शेयर भी करते रहने से नहीं चूकता।

यदि हिंदी समाज भाषा में कोई इंसानी लड़ाई लड़ रहा है तो मैं उसके साथ हूँ और यदि अभी नहीं समझ पा रहा तो आगे भी कोशिश करूँगा।

यदि आज कविता बहुत समझी और स्वीकार की जा रही है तो आपसे गुज़ारिश है कि आप अपनी इस गवाही पर कायम रहना। आपको कभी भी बुलाया जा सकता है।

शुभम श्री को मिला सम्मान कविता के लिये उसके रचनाकार को मिला सम्मान है इसलिये मैं इसकी इज़्ज़त करना चाहता हूँ।

लेकिन जो निर्णायक का दावा है वह आलोचना से परे नहीं है। आगे भी शायद न रहे। यदि उदय जी अपने निर्णय के साथ होंगे तो उनपर बात भी होगी ही।

यह एक बड़ी प्रवृत्ति है कि हम अंततः अपने जैसे लोगों के साथ जा खड़े होते हैं। लेकिन विविधता और बहुलता कदम कदम पर हमारी परीक्षा लेती हैं।

आप जिसे लड़ाई कह रहे हैं वह खुद को साबित करना भी होती है।

Anil Mishra शशि, 
आपने जो मुद्दे छेड़े थे मैंने सायास उन्हें छोड़ा। वजह स्पष्ट थी। एक, समस्याओं को चीन्हने के क्रम में आपकी बातें मुझे रेशनल लगीं, लेकिन जो प्रिस्क्रिप्शन आप लिख रहे थे वो प्रभु जोशी की अनायास गंभीर मुद्रा में छिछली बातों का दोहराव भर था। 

हमारे सामने कोई आदर्श नहीं है। कोई आदर्श हमारे सीनियर्स ने छोड़ा भी नहीं है। हमें उनकी गलतियों से सीखना होगा। क्रिटिकल हो कर एक्जामिन करना होगा। उनके बहाव में छलांग मारना हवा में लाठी भांजना ही होगा। नवलेखन अंक के वक़्त ऐसी गलतियां कइयों ने की है। 

दूसरा: समाज, भाषा, तरीक़े, मठों के झीने आवरण सब तार तार हुए हैं, हो रहे हैं। अभिव्यक्ति के इतने नए रूप निखर रहे हैं कि कल्पना करना मुश्किल है। इसके फ़ायदे नुक़सान की बात मैं छोड़ रहा हूँ। मैं सिर्फ़ ये कहना चाहता हूँ कि इनसे परिचय बनाना, इनकी संगत करना पुराने माध्यमों के रचनाकारों के लिए ज़रा असहज करने वाला है। जिसकी ओर सोम इशारा कर रहे हैं कि इतनी खुली, अराजक, भयहीन, उपहास करती टिप्पणियों का सामना शायद ही किया हो। इस परिप्रेक्ष्य में, शुभम की कविताएं नायाब है। लेकिन, खुन्नस निकालने को उन्हें वाग्जाल में फांसना मुझे कविता की संवेदना से खिलवाड़ लगता है।

आपने कहानीकारों और मुल्ला नासीर के प्रसंग का नाम लिया। मुझे नाम गिनाने में रत्ती भर दिलचस्पी नहीं है। हिन्दी के कई युवा तुर्क नाम गिना के आतंकित करते रहते हैं। समझने वाले समझ जाते, जो न समझते तब की बहसों को पलटते तो अपनी नज़र से उन्हें जांचते परखते। नाम गिना के क्या साबित करना चाहते हैं? 
बघेली में एक कहावत है: केखर केखर लेई नाव/कथरी ओढ़े सगला गाँव।
सब्बा ख़ैर।

Shashi Bhooshan हम एक दूसरे को बेहतर समझते हैं।
बघेली के ही एक कवि अमोल बटोही की कविता है

"का कही का न कही
कही त संघ नाश न कही त बुद्धि नाश.."

मैं पुनः देखता हूं कि प्रिस्क्रिप्शन में मैंने कौन कौन सी दवा लिख दी हैं। आप लोग सीधा मारते है गच्च और फिर शांत। अब असर होगा तो प्रतिक्रिया भी होगी।

प्रभु जोशी का अपना अंदाज़ है। मैं उनसे टकरा सकूँ ऐसा अध्ययन नहीं है अभी मेरा। हाँ उनसे असहमत होता रहता हूँ।

उदय प्रकाश और प्रभु जोशी हिंदी के दो बड़े ध्रुव हैं यदि आप मानते हों कि हिंदी के ग्लोब में कई ध्रुव हैं।

मैं नाम ले लिया करता हूँ। नाम हो तो उसे लिया जाना चाहिए। हालाँकि आपकी बात दुरुस्त है कि नाम लेने से कोई खास फ़र्क नहीं पड़ता।

Shashi Bhooshan समकालीन युवा कविता का सबसे प्रतिष्ठित और बहुचर्चितभारत भूषण अग्रवाल पुरस्‍कार इस बार युवा कवयित्री शुभमश्री, (जन्‍म 1991) की कविता 'पोएट्री मैनेजमेंट' को देने का निर्णय लिया गया है।

यह कविता नयी दिल्‍ली से प्रकाशित होने वली अनियतकालिक पत्रिका 'जलसा-4' में प्रकाशित हुई है।

बहुत कम उम्र और बहुत कम समय में शुभमश्री ने आज की कविता में अपनी बिल्‍कुल अलग पहचान बनाई है। कविता की चली आती प्रचलित भाषिक संरचनाओं, बनावटों, विन्‍यासों को ही किसी खेल की तरह उलटने-पलटने का निजी काम उन्‍होंने नहीं किया है बल्कि समाज, परिवार, राजनीति, अकादेमिकता आदि के बारे में बनी-बनाई रूढ़ और सर्वमान्‍य हो चुकी बौद्धिक अवधारणाओं के जंगल को अपनी बेलौस कविताओं की अचंभित कर देने वाली 'भाषा की भूल-भुलइया' में तहस-नहस कर डाला है। हमारे आज के समय में शुभमश्री एक असंदिग्‍ध प्रामाणिक विद्रोही (rebel) कवि हैं। सिर्फ पच्‍चीस वर्ष की आयु में इस दशक के पिछले कुछ वर्षों में उनके पास ऐसी अनगिनत कविताएं हैं, जिन्‍होंने राजनीति, मीडिया, संस्‍कृति में लगातार पुष्‍ट की जा रहीं तथा हमारी चेतना में संस्‍कारों की तरह बस चुकी धारणाओं, मान्‍यताओं, विचारों को किसी काग़ज़ी नीबू की तरह निचोड़ कर अनुत्‍तरित सवालों से भर देती हें। औश्र ऐसा वे कविता के भाषिक पाठ में प्रत्‍यक्ष दिखाई देने वाली किसी गंभीर बौद्धिक मुद्रा या भंगिमा के साथ नहीं करतीं, बल्कि वे इसे बच्‍चों के किसी सहज कौतुक भरे खेल के द्वारा इस तरह हासिल करती हैं कि हम हतप्रभ रह जाते हैं। इतना ही नहीं वे अब तक लिखी जा रही कविताओं के बारे में बनाये जाते मिथकों, धारणाओं और भांति-भांति के आलोचनात्‍मक प्रतिमानों द्वारा प्रतिष्ठित की जाती अवधारणाओं को भी इस तरह मासूम व्‍यंजनाओं, कूटोक्तियों से छिन्‍न-भिन्‍न कर देती हैं कि हमें आज के कई कवि और आलोचक जोकर या विदूषक लगने लगते हैं। उनकी एक कविता 'कविताएं चंद नंबरों की मोहताज हैं' की इन पंक्तियों के ज़रिए इसे समझा जा सकता है:

'भावुक होना शर्म की बात है आजकल और कविताओं को दिल से पढ़ना बेवकूफ़ी / शायद हमारा बचपना है या नादानी / कि साहित्‍य हमें जिंदगी लगता है और लिखे हुए शब्‍द सांस / कितना बड़ा मज़ाक है कि परीक्षाओं की तमाम औपचारिकताओं के बावजूद / हमें साहित्‍य साहित्‍य ही लगता है प्रश्‍नपत्र नहीं / खूबसूरती का हमारे आसपास बुना ये यूटोपिया टूटता भी तो नहीं... नागार्जुन-धूमिल-सर्वश्‍वर-रघुवीर सिर्फ आठ ंनबर के सवाल हैं।'

अपने भाषिक पाठ में बच्‍चों का खेल दिखाई देतीं शुभमश्री की कविताएं गहरी अंतर्दृष्टि और कलात्‍मक-मानवीय प्रतिबद्धता तथा निष्‍ठा से भरी मार्मिक डिस्‍टोपिया की बेचैन और प्रश्‍नाकुल कर देने वाली अप्रतिम कविताएं हैं।

शुभमश्री ने किसी कर्मकांड या रिचुअल की तरह रूढ़, खोखली, उकताहटों से भरी पिछले कुछ दशकों की हिंदी कविता के भविष्‍य के लिए नयी खिड़कियां ही नहीं खोली हैं बल्कि उसे जड़-मूल से बदल डाला है। जब कविता लिखना एक 'फालतू' का 'बोगस काम' या खाते-पीते चर्चित पेशेवरों के लिए 'पार्ट टाइम' का 'बेधंधे का धंधा' बन चुकीं थीं, शुभमश्री ने उसे फिर से अर्थसंपन्‍न कर दिया है।

उनकी कविताएं हमारे समय की कविता के भूगोल में एक बहुप्रतीक्षित दुर्लभ आविष्‍कार की तरह अब हमेशा के लिए हैं।
उदय प्रकाश

Anil Mishra मैं नहीं मानता कि हिंदी का कोई ग्लोब है। ग्लोब का अपना ग्लोब है। और अगर हो भी तो मुझे इसके कथित ध्रुवों (मुक्तिबोध के शब्दों में मठ) के बंटवारे से कोई लेना देना नहीं है। 

मुझे इस भाषा से बेदख़ल कर दिए गए लोगों, भाषा की नफ़ासत से मरहूम कर दिए गए उबड़-खाबड़ प्रदेश की तलाश में दिलचस्पी है। जहां शुभम श्री की कविताएं मेरी मदद करती हैं। ऐसी कविताओं पर बिला वजह लांक्षन लगाने वाले लोगों को मैं नीची नज़र से देखता हूँ, चाहे उनका अध्ययन भले ही बहुत हो। मैं उनके अध्ययन से दहशत में क्यूं आऊं?? और ये बात उसे भाभूअ पुरस्कार मिलने से पहले की भी कविताओं में लागू होती है।

मैंने उदय का वक्तव्य पढ़ा है। मुझे उनके वक्तव्य में वही निश्छलता दिखती है जैसे कि जब हम बच्चे थे तो लाल मखमली बीर-बहूटी को चींटों से बचाने के लिए उसे अपनी हथेलियों से ढांके रहते थे और जैसे जैसे वो अपनी राह बनाती जाती थी हम बच्चे हथेलियां खोलते जाते थे।

Shashi Bhooshan यह अच्छा है कि आप 'भाषा से बेदखल आदिवासी' का उदय प्रकाशीय मुहावरा मानते हैं लेकिन किसी ग्लोब को नहीं मानते। हालाँकि उदय जी भूगोल में ही नए अविष्कार की वजनी बात कह रहे हैं। कुल मिलाकर यह देखने और दिखने की ही बात है। मेरे हिसाब से नीयत में खोट नहीं देखना चाहिए। फिर कहता हूँ शुभम की कविताएं मुझे भी अच्छी लगीं। और यह भी देख रहा हूँ कि वैसी कविताएं लिखी जा रही हैं और लिखी जाती रही हैं।

Anil Mishra आप फिर ग़लत समझ रहे हैं। मैंने कहा है हिन्दी के ग्लोब को नहीं मानता, चूंकि तकनीकी तौर पे ग्लोबल होने के बावजूद हिंदी अपने लोकल का सार्वभौमीकरण नहीं कर सकी है। 

"भाषा से बेदखल आदिवासी का उदय प्रकाशीय मुहावरा" सिर्फ़ मान्यता की बात नहीं, (जबकि मैंने बेदख़ल कर दिए गए लोगों की बात की है। इसमें आदिवासी, दलित, महिलाएं, अल्पसंख्यक और अन्य कई दबाए सताए कुचले गए लोग और समूह शामिल हैं) यह हमारे जन-जीवन का अकाट्य सत्य है।

मैं ये नहीं मानता कि कविता को परखने की पहली कसौटी ये घोषणा हो कि कविता मुझे अच्छी लगती है कि नहीं।

रविंद्र नाथ टैगोर 1920-30 में ही ऐसी साहित्यिक आलोचना को उथली कह चुके है। हम तो उनसे तकरीबन 100 साल आगे का जीवन देख रहे हैं।

Shashi Bhooshan मैं समझने की कोशिश करता हूँ कि क्यों ग़लत समझ रहा हूँ।

लेकिन आपको यह समझने की कोशिश करनी है कि मैंने प्रभु जोशी के बहाने अपना नितान्त अपना मत रखने की कोशिश की थी।

मेरा मंतव्य भी था कि राय अपनी ही रहे।

मुझे यह अच्छा लगता है कि सदा आर पार की बजाय संतुलित बात से कुछ सीखा जाये।

इसीलिए मूल पोस्ट में आपने गौर किया होगा कि मैंने सम्मान के साथ होने की बात कही है।

इससे पहले भी मैंने सम्मान के समर्थन में बात कही। मैंने उदय जी को संबोधित एक स्वतन्त्र पोस्ट भी लिखी।

हुआ यह होगा कि मेरी वास्तविक आकृति परछाई लगी होगी।

इसके बावजूद मैं आपके चर्चा करने को अच्छा मान रहा हूँ। आपने टैग किया तो मैंने उसे तुरंत अपनी वाल पर पब्लिश का ऑप्शन चुना।

Shashi Bhooshan ये दो कविताएं भी देखें

शिवलिंग 1

औरतें जिन्हें
रखा जाता है
परदे में
आती हैं तुम्हारे सामने
उठाती हैं घूँघट
करती हैं पूजा
तन, मन, धन से
नवाती हैं शीश
डालती हैं तुम पर
दूध, पानी, फूल , पत्तियां
लेती हैं उसे पदार्थ को हाथ
छूती हैं ओठों से
पीती हैं
बताओ शिव कैसा लगता है तुम्हें
जब होती है
शिव लिंग पूजा

शिव लिंग 2

स्त्री
नहीं करती बर्दाश्त
कि दूसरी स्त्री
छू ले उसके पति को
करे स्पर्श उसके
अंगों का
संतान प्राप्ति
के लिये
लगाये उसके
जिस्म पर
चन्दन हल्दी
भिगो दे
पानी दूध से
कहो पार्वती
कैसे तुम
सहती हो
पर स्त्री स्पर्श
अपने पति लिंग पर

- आरती रानी प्रजापति
जेएनयू
बया, अप्रैल जून 2016

Shashi Bhooshan अनिल जी मैं नीचे लिखी कविता के बारे में आपकी राय चाहता हूँ। कवि का नाम जाने देते हैं।

साध्वी

छुट्टी लेकर दफ्तर का
छूटा काम किया है
मैंने भी अफसर का
नाम किया है

बच्चे का दूध छुड़ाकर
बीवी को प्यार किया है
तुमने भी
किसी की प्रेमिका को
शर्मसार किया है

देव धरम को लात मार
बाबाओं को नमन किया है
पढ़ लिख योग कर शिक्षा का
काम तमाम किया है

लिख लेना 
याद नहीं रहता
बोल दिया है
जब चाहे मिलना
ओढ़नी डाली
सलवार खोल लिया है

मेरा नाम लेना
मैंने तुम्हारा नाम लिया है
अपनी गांड मरवाकर
सबने बाप का
नाम किया है

मनोज पांडेय शुभम श्री की कविताओं के बहाने पिछले तीन चार दिनों से न जाने कितनी बहसें संपन्न हो रही हैं। यह बेहद खुशी की बात होती और इससे हिंदी समाज की जीवंतता को सलाम करने का मन होता अगर उनमें सचमुच बहस करने जैसा कुछ होता। मैंने सोचा था कि अब इस मसले पर कोई पोस्ट या कमेंट नहीं करूँगा बल्कि फोन आदि पर हो रही बातचीत में भी इन कविताओं पर कोई बहस करने से बचूँगा। पर कल आई प्रभु जोशी की पोस्ट ने मुझे एक गहरी शर्म और लानत से भर दिया। सोशल मीडिया पर चल रही इस बहस में धूमिल का जिक्र कई बार आया है। धूमिल की ही एक पंक्ति उधार लेकर कहूँ, जिसमें वह कहते हैं कि ‘कविता भाषा में आदमी होने की तमीज है’ तो कह सकता हूँ कि लोग बहस करते हुए कम से कम भाषा में तो आदमी होने की तमीज भूल ही गए हैं। प्रभु जोशी की यह टिप्पणी असल में शुभम के बहाने उदय प्रकाश को निपटाने की कोशिश है पर यह कोशिश इतनी फूहड़ है कि इसने ‘प्रभु’ के ही तमाम आवरणों को हटा दिया है और भीतर से उनका बजबजाता हुआ लंपटपन बाहर निकल आया है। शुभम श्री को इस बात के लिए भी बधाई कि उनकी कविताओं ने बहुतेरे ‘प्रगतिशीलों’ और ‘आधुनिकों’ को अपनी खोल से बाहर निकलने के लिए विवश कर दिया है। वे अपनी सारी गलाजत के साथ बाहर निकल आए हैं और गंध फैला रहे हैं। इस मामले शुभम श्री की कविताएँ वह काम कर रही हैं जिसके लिए कभी मुक्तिबोध ने अपनी कविता ‘मैं तुम लोगों से दूर हूँ’ में लिखा था कि... ‘जो है उससे बेहतर चाहिए ...पूरी दुनिया साफ करने के लिए मेहतर चाहिए।’

मनोज पांडेय उदय प्रकाश पर हमला करना एक कई सालों से चल रहा हिट फैशन है। निश्चित रूप से इसमें उनकी अराजक हरकतों का भी काफी कुछ योगदान है पर मुख्य रूप से इनमें वे ही शामिल हैं जो उनकी विस्फोटक प्रतिभा और साहित्य के प्रति समर्पण के आगे खुद को कुंठित महसूस करते रहे हैं। कई बार उनसे अनावश्यक रूप से लड़ते झगड़ते उदय प्रकाश अपना बहुत सारा समय नष्ट भी करते हैं जो वे लिखने में लगाते तो क्या बात होती। पर पहले अनुज लुगुन और इस बार शुभम श्री के नाम को प्रस्तावित कर उन्होंने निराश नहीं होने दिया है। जबकि इसी बीच कई ऐसे कवियों को यह पुरस्कार दिया गया जिनके पास कविता जैसा कुछ भी नहीं था। वे पुरस्कार के बाद से कहाँ गायब हैं यह भी कोई नहीं पूछने वाला। मैं तो कई सालों से यह देखता आया हूँ कि पुरस्कारों को लेकर कोई हल्ला ही तब होता है जबकि वह गलती से किसी जेनुइन व्यक्ति को मिल जाता है। वीरेन डंगवाल जैसे प्यारे कवि को साहित्य अकादेमी मिली तो बहुत हल्ला हुआ पर गोविंद मिश्र या कि रामदरश मिश्र जैसों को जब यह पेंशन की तरह दी गई तो कहीं से कोई प्रतिक्रिया नहीं आई। 
दरअसल हिंदी साहित्य एक भयानक शुद्धतावाद से ग्रस्त है। खासकर कविता को लेकर कुछ लोगों के मन में दो तरह की धारणाएँ हैं। एक वे हैं जो कविता को गाय की तरह पवित्र मानते हैं और जो भी उनसे भिन्न राय रखता है उस पर गौरक्षकों की तरह टूट पड़ते हैं। दूसरे वे जिन्हें लगता है कि कविता को बाघ की तरह होना चाहिए और सर्वहारा के दुश्मनों को फाड़ खाना चाहिए और वे बाघ बचाने की मुहिम में जुटे रहते हैं। इन गौरक्षकों और बाघ के प्लास्टिक के नाखून लगाए घूमने वालों के पास इतना साहस भी नहीं है कि वे अपने हवाले से कोई बात करें। वे अक्सर पाठक नाम के किसी अमूर्त जीव के हवाले से कुछ इस तरह से बात करते हैं जैसे कि वे उसे अपनी जेब में रखकर घूमते हैं। सब कुछ इसी जेबी पाठक के नाम पर, अपने नाम पर कुछ भी नहीं। सारी लंपटई, सारी राजनीति, सारा मर्दाना गलीजपन, सारा जातिवाद सब कुछ इसी पाठक के नाम पर। पाठक न हुआ इनका वोटबैंक हो गया।

मनोज पांडेय शुभम श्री की कविताएँ मुझे पसंद है क्योंकि वह इस समय के बारे में मेरी समझ में, मेरे तर्कों में बहुत कुछ नया जोड़ती है और अपने समाज को समझने में मेरी मदद करती हैं। यही नहीं वह मुझे कई बार आईना भी दिखाती हैं कि यह है तुम्हारी असली शकल। अब तुम मुँह छुपाओ अपना या लड़ो इससे यह तुम्हारा काम। जहाँ तक पुरस्कृत कविता का सवाल है तो वह मुझे कई वजहों से पसंद है। यह हिंदी कविता के पर्यावरण पर बिल्कुल अलग तरीके से नजर डालती है। बहुतेरे लोग जो पूँजीवाद और साम्राज्यवाद पर झूठमूठ की कविता लिखकर कविता का सेंसेक्स चढ़ाते गिराते रहे हैं उन्हें निश्चित तौर पर इस कविता के आईने में अपनी फूहड़ शक्ल दिखाई दे रही होगी। बहुत सारे लोगों को लगता है कि यह कविता हिंदी और कविता का उपहास करती है। रघुवीर सहाय जब हिंदी को किसी दुहाजू की नई बीवी बता रहे थे जो घर का माल मैके पहुँचाते हुए खाती, मुटाती और गंधाती जा रही थी तो क्या वह हिंदी का मजाक बना रहे थे? या जिनको ‘पोएट्री मैनेजमेंट’ से दिक्कत है उनकी निराला के ‘कैपीटलिस्ट’ पर क्या राय है? क्या ‘कविता प्रबंधन’ से वह बात बन सकती थी जो ‘पोएट्री मैनेजमेंट’ से बन रही है... जहाँ शीर्षक से ही कविता में एक वक्र पैदा हो जाता है जो पूरे परिदृश्य को सिर के बल खड़ा कर देता है। अब खाते, मुटाते गंधाते लोगों को सिर के बल खड़े होने पर तकलीफ तो होगी ही। यह पूरी कविता एक अजूबी कल्पना है जो जड़ता की जंग लगे कल्पनाहीन लोगों को परेशान करेगी ही। यह अपनी व्याप्ति में हिंदी समाज में कविता की स्थिति, कविता और बाजार की सत्ता संरचना का जैसा जबर्दस्त विखंडन प्रस्तुत करती है वह बहुतेरों के लिए कल्पनातीत है और समझ से परे भी। तो वे यही कर सकते हैं कि पाठक के नाम पर कवि और कविता का मजाक बनाएँ और कपड़े के भीतर झाँककर सब कुछ देख लेनेवाली अपनी लंपट कल्पनाशीलता से पुरस्कार के मैनेज होने की बात करें। जाहिर की शुभम के स्त्री होने ने और उनकी कविता के शीर्षक ने इस काम में उनकी मदद ही कर दी है।

मनोज पांडेय इसके बावजूद यह कविता पढ़ते हुए आखिरी पंक्तियों तक पहुँचते हुए मैं उदास हो जाता हूँ जब कविता विखंडन छोड़ यथार्थ की जमीन पर उतर आती है। पाँच छह साल से प्रूफ पढ़ने की नौकरी करते हुए रोजी कमाता मैं एक अंदाजा लगाता हूँ कि यह विखंडन कितनी उदासी और अपनी भाषा और कविता के प्रति कितने गहरे सरोकारों से पैदा हुआ होगा। दिक्कत यह है कि व्यंग्य को अक्सर हँसी के करीब समझ लिया जाता है जबकि उसका सबसे नजदीकी रिश्ता एक बेचैन उदासी से बनता है। किसको फुर्सत है कि वह बैठकर जरा आराम से कविता की आँखों में झाँके। और अगर फुर्सत निकल आए तो भी सब कुछ को एक फूहड़ हँसी में बदल देने की हत्यारी जल्दबाजी में किसी के पास रचना की आँखों में झाँकने की ताब कहाँ।

Krishna Mohan बहुत ख़ूब मनोज पांडेय। मुझे हमेशा ये लगता रहा है कि आपको अपने विचारशील गद्य को और अधिक गंभीरता से लेना चाहिए।

मनोज पांडेय शुक्रिया सर

Anil Mishra आपने मामले को समझने में मदद की है। शुक्रिया।

Shashi Bhooshan यह बतौर एक सूचना ही है कि प्रभु जोशी जी ने इस प्रसंग पर 15 से 20 पेज का लेख लिखा है। 

संभव है यह वैसा ही लेख साबित हो जैसे अनामिका और पवन करण की कविता प्रसंग पर उनका लेख 'कविता का कहीं कोई मगध तो नहीं' साबित हुआ।

यदि प्रभु जोशी, उदय प्रकाश को निपटाने की चाहते हों तो मुझे पसंद नहीं। लेकिन यदि वे उनकी स्थापनाओं को खारिज़ करते है या मान्यता देते हैं तो दोनों ही मेरे पढ़ने के आनंद होंगे। 
मनोज की प्रभु जोशी के सम्बन्ध में बातों को छोड़कर मैं उनकी शेष बातों से अपनी सहमति व्यक्त करता हूँ।
Prabhu Joshi जी यह चर्चा भी आपके सामने है। 
कदाचित मैं अपनी बात कह चुका हूँ।

Nil Nishu जवाब मिलेगा। करारा जवाब मिलेगा।।

Dinesh Joshi Poetry Management`is a col age of satirical comments, Her other poems are memory friendly & long lived.

Shashi Bhooshan प्रिय शशिभूषण,
जब तुमने ध्यान दिलाया तो मैंने, युवा कथाकार मनोज पण्डे की वह पोस्ट पढ़ी. पढ़ कर, मुझे ऐसा कुछ भी अप्रत्याशित और अवमानना या आपत्तिजनक नहीं लगा. क्योंकि, ऐसा अमूमन होता ही है कि हम कई बार अपने प्रिय रचनाकार को, उसके रचनात्मक और बौध्दिक शौर्य का कमतर आकलन की त्रुटिवश ऐसा कर लेते है, गालिबन वह मिटटी के किसी कच्चे पात्र की तरह है. और डरने लगते है कि कहीं वह, असहमति के ऐसे मामूली धक्के से दरक ना जाएँ.

ऐसी चिंताएं, कदाचित, अपने आकलन की उतावली पर, नियंत्रण कर पाने की असफलता के कारण उत्पन्न होती हैं. और वे अपने प्रिय कलाकार या लेखक को, यह सब बताने की अनियंत्रित होने वाली उत्कंठा में, उससे व्यक्त असहमत को भ्रमवश शत्रु की तरह ही चीन्ह लेते हैं.

कहना न होगा कि यह बहुत सहज है और एक कारण ये भी है कि भाई मनोज पाण्डे को, शायद इस बात का पता नहीं है कि उदय मेरा प्रिय मित्र और प्रिय कथाकार भी है, और इस मित्रता ने, तीन दशक से ऊपर का कालखंड पूरा कर लिया है मैं उदय की कहानियों का आरम्भ से ही पाठक और प्रशंसक रहा हूँ. मैं जब आखिरी कहानी लिख रहा था, तब उदय की पहली कहानी सारिका में [ मौसाजी ] छप रही थी. इसके पश्चात् सन १९७७ से मैंने कोई कहानी ही नहीं लिखी. और ‘हंस’ और ‘ज्ञानोदय’ में, मेरी जो एक–दो कहानी छपी दिखाई दी, वे भी पूर्व प्रकाशित कहानियां थी, मैंने सम्पादक महोदय को कहा भी था इस बात का उल्लेख, कहानी के अंत में कर दे. लेकिन उन्होंने कहा कि १९७७ की छपी कहानी को किसने पढ़ा होगा, इसे हम बिना इस उल्लेख के ही छापेंगे. 

बहरहाल, मेरी साहित्य के संसार की नागरिकता और उसके इतिहास में रत्ती भर उल्लेख की आकांक्षा नहीं है, दुर्भाग्यवश , मेरी असहमति को साहित्यिक ईर्ष्या की तरह पढ़ा जा रहा है, और कहा जा रहा है कि मैं इसलिए उदय को लक्ष्य कर रहा हूँ. हाँ, ये बात मेरे मन में किंचित क्षोभ ज़रूर पैदा कर सकती है.

उदय अजेय है, और वह वध्य नहीं है, वह अपनी आत्मा में अस्सी से अधिक घाव लिए हुए है और हरदम हंसता ही मिलता है. बहरहाल, मेरी असहमति को देख कर , भाई मनोज पांडे की चिंता, एक तरह से उदय के बौध्दिक पुरुषार्थ को कम कर के आँकना है . पता नहीं, यह मनोज का उदय के प्रति अधिक स्नेह है या की उदय की विचार की समर सिध्दि पर संदेह. हाँ, एक बात ज़रूर है, वह यह कि भाई, मनोज की टिप्पणी से सिर्फ उन लोगों में उत्साह का संचार हो सकता है, जो ‘अच्छा निबटा दिया' वाली विचारणा में टुच्ची तुष्टि पाते है. हो सकता है, ऐसे लोग भाई मनोज की टिप्पणी को तुरंत अपनी वाल पर शेयर कर लेंगे. 

याद रखिये, ऑडेन और एलियट में विचार के स्तर पर, गहरी असहमतियाँ थी, बावजूद इसके वे एक दूसरे के गहरे मित्र थे. एलियट ऑडेन से अक्सर कहा करते थे, तुम्हारे भाषिक पुरुषार्थ के समक्ष मैं, स्वयं को दुर्बल मानता हूँ, क्योंकि , तुम्हारे पास दुहरी शब्दावलि है, लेकिन यह थोड़ा क्षोभपूर्ण तथ्य है कि हिंदी में किसी उत्कृष्ट लेखक को, कई बार उसके निकटस्थ लोग, ऐसी सूचनाएं देते बरामद होते है, जो नितांत अवांछनीय होती है, ज्ञानरंजन, कमलेश्वर, या अशोक वाजपेयी के शत्रुओं की आबादी में अभिवृध्दि इसी तरह की चूकों से ही हुई है.

अत: कुल मिलाकर, भाई शशिभूषण तुम्हे यही कहना चाह रहा हूँ, कथाकार भाई मनोज पांडे में युवतर होने से जो स्वभावगत सहज उतावली है, उसी के कारण ऐसी टिप्पणी हो गयी है. मुझे इस बात से कोई, क्षोभ नहीं . उम्मीद है, मैं अंशत: अपनी बात तुम तक पहुंचा सका हूँ.
-प्रभु जोशी



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