शुक्रवार, 24 जून 2016

शुक्रिया सीबीएसई

सीबीएसई के वर्ष 2016 का 12वीं का परीक्षा परिणाम विगत 21 मई को घोषित हुआ।

यद्यपि मेरे विषय (हिंदी, केन्द्रिक) का परीक्षा परिणाम सौ प्रतिशत और 70 PI के साथ अच्छा कहा जा सकने लायक रहा फिर भी मुझे बड़ा धक्का लगा था।

कारण था अजय वर्मा को मिले केवल 81 अंक।

पूरे सत्र अजय का जो प्रदर्शन रहा था मैंने उससे उम्मीद पाल ली थी कि 0.1 प्रतिशत मेरिट यानी सब्जेक्ट टॉपर विद्यार्थियों की सूची में उसे ज़रूर जगह मिलेगी।

81 अंक देखकर मैं अजय से अधिक दुःखी हुआ। अजय मुझसे कई गुना आहत था। हम दोनों ने तय किया कि पहले कॉपी निकलवाकर देखेंगे। फिर तय करेंगे क्या करना है।

जब कॉपी की छायाप्रति मिली तो जैसा कि अनुमान था ग़लत मूल्याङ्कन हुआ था। विद्यार्थी की मनोदशा के मद्देनज़र देखें तो आपराधिक। सही उत्तर पर भी 0 अंक दिया गया था। अधिकांश उत्तरों पर औसत अंक।

पुनर्मूल्यांकन के लिए आवेदन किया गया। आज अजय ने नतीज़ा भेजा तो पहले के 81 अंक की जगह 89 अंक हो गए हैं।

संतुष्टि तो अब भी नहीं है फिर भी शुक्रिया सीबीएसई कि एक विद्यार्थी और शिक्षक को खुद को सही साबित करने का एक अवसर दिया। कहने की ज़रूरत नहीं कि मैं अपने उस प्रथम मूल्यांकनकर्ता शिक्षक के लिये शर्मिंदा हूँ।

अब मैं इत्मिनान से अपने सभी विद्यार्थियों को बधाई दे सकता हूँ। विशेष रूप से अभिज्ञा खीची को जिसने 95 अंक लाये और ऋतिक को जिसने सभी आशंकाओं को निर्मूल कर पास होकर दिखाया।

के.वि. शाजापुर के सभी बच्चों को हार्दिक बधाई। सबने मिलकर अपना, परिजनों, शिक्षकों और विद्यालय का मान बढ़ाया।

अपने अब तक के छोटे से शिक्षकीय जीवन में मैं सबसे अधिक भरोसा अपने बच्चों पर करता रहा हूँ। बुरे से बुरे दिनों में मेरे बच्चों ने मुझे सही साबित किया।

बहुत खुश हूँ। खुश होने का बेसब्री से इंतज़ार कर रहा था।

-शशिभूषण

शनिवार, 18 जून 2016

उड़ता पंजाब

उड़ता पंजाब एक गंभीर फि़ल्म है। मनोरंजन की जगह सामाजिक-राजनीतिक संजीदगी फिल्म में मुख्य हैं। नशा मुक्ति के जिस सरोकार को यह हमारे सामने रखती है वह सबके लिए जवाबदेही का मसला है। लगभग पूरा देश नशे के कारोबार की चपेट में है। छोटे छोटे बच्चे मौत के मुँह मे जा रहे हैं, जवान, बूढ़े, औरते अकाल मौत में पड़ रहे हैं। जिन्हें रोकना चाहिए वही नशे के संरक्षक हैं।

फिल्म केवल पंजाब की नहीं है। बिहार की भी है। सभी प्रांतों की है। पंजाब में ड्रग्स है क्योंकि वहाँ संपन्नता है। निर्धन समाज में ड्रग्स का कारोबार नहीं फैल सकता। ग़रीब इलाक़ों में तंबाकू, बीड़ी, सिगरेट, गांजा, अफ़ीम, शराब का धंधा है। नशा व्यक्ति को नष्ट कर देता है थोड़े ना नुकुर के बाद हर कोई मान लेगा।

फिल्म कोई छूट नहीं लेती। अगर लेती तो एक दो भांगड़ा, आईटम सांग ज़रूर होते। प्रेम प्रसंग भी परिणति तक पहुँचते। फ़िल्म में दो लड़कियो को हम देखते हैं। एक डॉक्टर। दूसरी मज़दूर। दोनों अच्छी लड़किया हैं। खूब संघर्ष करती हैं। डॉक्टर लड़की जिस सादगी से पुलिस के सहायक निरीक्षक को अपने कर्तव्य की याद दिला देती है वह महत्वपूर्ण है।

आलिया भट्ट ने यादगार काम किया है। वे जब अपने हॉकी खिलाड़ी होने का हवाला देकर पीड़ा से बोलती हैं तो अपने सतत शोषण में भी सत्ता को अमिट चुनौती देती हैं। किसी पीड़ित लडकी की व्यथा में समकालीन राजनीतिक सत्य को देखना हो तो इससे बेहतर दृष्य नहीं हो सकता। उड़ता पंजाब चुनाव और कुछ जुमलों के शानदार इस्तेमाल से राजनीतिक बनी है। हो सकता है इसकी परेशानियाँ भी इसी कारण रही हों।

शाहिद कपूर ने वही काम किया जो उन्होंने फिल्म हैदर में बखूबी सीखा था।

फिल्म में कुछ भी ग़लत नहीं है। इसकी कल्पना करना भी बहुत तकलीफ़देह है कि इसमें 80 से अधिक कट के सुझाव थे। वह लड़ाई जो इस फिल्म ने लड़ी फिल्म को अलग पहचान देती है। अदालत की टिप्पणी ने फिल्म को लोगों तक पहुँचने में मदद की इसमें शक नहीं।

कोई फिल्म किसी राजनीतिक दल के लिए असुविधाजनक हो सकती है। हो सकता है किसी राजनीतिक दल को उससे फायदा मिलता हो। यह गौंड़ बात है। हमारे यहाँ बहुदलीय प्रणाली है। सभी दल संतुष्ट हो जायें इसकी कामना ठीक नहीं। फ़िल्म अधिक पारखियों के लिए मामूली भी हो सकती है। लेकिन इंसानो की सोचिए तो फ़िल्म नेकी का संदेश देती है इसमें संदेह नहीं। लोकप्रिय कलाकर किस तरह ग़लत आदतों को प्रचलित कर देते हैं फ़िल्म में खूब दिखाया गया है।

नशे को लेकर हमारे समाज में दोहरे मापदंड हमेशा से रहे हैं। नशे के खिलाफ़ पूरा भारतीय समाज एक दिन में खड़ा हो जायेगा इसकी आशा करना ठीक नहीं। फिल्म यह बताने में सफल रही है कि नशा एक राजनीतिक कारोबार भी है। इससे अच्छी फिल्में भी होंगी। मगर उड़ता पंजाब की नीयत या स्तर पर संदेह करना ठीक न होगा।

कुल मिलाकर फ़िल्म उड़ता पंजाब देखी जानी चाहिए। आखिर उन लोगों ने भी फ़िल्म देखी ही जिन्होंने आधा स्टार दिया। हर किसी को स्टार देने का अपना अधिकार सुरक्षित रखना चाहिए।

-शशिभूषण

शुक्रवार, 17 जून 2016

पाठक के लिए कृति ही मुख्य होती है

इंसान में पढ़ने की लगन हो, वह पढ़ना चाहे तो अच्छी किताबों, पत्रिकाओं तक पहुँच जाता है। एक अच्छी किताब दूसरी अच्छी किताब का पता दे देती है। शायद ही कोई ऐसा कृतघ्न हो जो उन किताबों की बुराई करे जिन्होंने उसे बेहतर बनाया।

किताब का कवर, ले आउट, प्रिंट और पेपर क्वालिटी भी किताबों का मुरीद सामान्यतया नहीं देखता। पुस्तकालय इसीलिए बनाये जाते रहे कि बिना खरीदे भी किताब, पत्रिकाएं पढ़ी जा सकें। अच्छा उपन्यास या कहानी संग्रह मिले तो पढ़ने का शौकीन भूख-प्यास भूल उन्हें चाट जाता है। किताब पढ़ने, उनके आदान-प्रदान से भी अच्छे रिश्ते बनते रहे हैं।


पाठक के लिए मुख्य होती है कृति। कृतिकार से भी भेंट का सुयोग बने तो सौभाग्य।

यह अब तक अच्छा ही चला आ रहा है कि दुनिया का सबसे अच्छा संपादक भी उस शख्स को लेखक नहीं बना सकता जिसके पास लिखने को महत्वपूर्ण और नया न हो। किताबों, पत्रिकाओं की तारीफ़, विज्ञापन या प्रचार उतने ही सहायक होते हैं जैसे बाज़ार से उन्हें गुज़रना हो।

यह कहने की आवश्यकता नहीं कि यदि पाठक तक न पहुँचे तो कोई प्रकाशन अर्थहीन है। मेरे खयाल से लेखक-आलोचक-प्रकाशक-संपादक-पाठक परस्पर सहयोग से ही विकसित होते हैं। किताबों के लिए शिक्षकों की भी दरकार होती है।

इस बात में शायद ही किसी पाठक की दिलचस्पी हो कि वह किस एक को श्रेष्ठ माने। किताब या कृति की उपयुक्त प्रशंसा यदि उत्साहवर्धक और रचनात्मक होती है तो समुचित आलोचना भी परिष्कार के लिए आवश्यक होती है। लेखक-आलोचक-प्रकाशक-संपादक कब किसे अपनाते हैं और किसकी उपेक्षा करते हैं आमतौर पर पाठक को यह जानने की भी गरज नहीं होती।

आलोचक ही यह दर्ज़ करते हैं कि कितना मीठा मीठा गप्प था कितना कड़वा कड़वा थू। इस पर किसी अन्य के अतिरिक्त दावों से भला क्या फायदा?

जितनी अधिक किताबें पाठकों तक पहुँचती रही हैं उससे ज्यादा सुधीजन किताबों तक पहुँचते रहे हैं। प्यासे कुएँ के पास जाते रहे हैं। हाथों तक पहुँचा हुआ पानी का गिलास नि:शुल्क नहीं हो सकता। इसलिए इस बात से विशेष फर्क़ नहीं पड़ना चाहिए कि किताब का ब्लर्ब किसने लिखा या प्रकाशक ने किससे समीक्षा लिखवायी। अंत में किताब रह जाती है और पाठक का एकांत।

लेखक इससे कम ही उदास होते रहे कि उन्हें क्या मिला? उदाहरण ही देना हो तो याद कीजिए- शैलेश मटियानी को क्या दिया गया? हिंदी का यह अप्रतिम कहानीकार और उपन्यासकार यही प्रार्थना करता रचता रहा कि हे ईश्वर मुझे लेखक बना दो। उस्ताद बिस्मिल्ला खाँ भी सुर ही माँगते रहे जीवन भर अपने खुदा से।

पाठक के लिए कृति ही मुख्य होती है। आलोचक-संपादक-प्रकाशक भी कृति से ही ईमानदार रिश्ता रखकर गरिमा को प्राप्त होते हैं।

-शशिभूषण

प्रत्यूषा बनर्जी

पिछले दिनों के समाचारों के आधार पर प्रत्यूषा बनर्जी की आत्महत्या की बात पक्के तौर पर कहना जल्दबाज़ी होगी।

लेकिन इसे नहीं भूला जा सकता कि बालिका वधू में जो उसने अवसादग्रस्त, दुखी और श्रेष्ठ पारिवारिक रहने का अभिनय लंबे समय तक किया वह या उस जैसा अभिनय भी उसे अपने विरुद्ध कर सकता है।

काम का आखिर अपने प्रति हमारे नज़रिये में असर पड़ता ही है।


यदि प्रत्यूषा ने आत्महत्या की है तो माफ़ कीजिये ससुराल सिमर का में सिमर का रोल कर रही अभिनेत्री के लिए एक चेतावनी की तरह है।

यदि मैं ऐसे सीरियल देखकर अपने बाल नोचने की सोच सकता हूँ तो ऐसे रोल के बाद ये घर आकर कैसे सामान्य रहती होगी!

ये धारावाहिक बहुत खतरनाक, जीवन और समाज विरोधी हैं।

बालिका वधू, नागिन और ससुराल सिमर का जैसे अंतहीन और घातक सीरियल में लंबे समय तक बेस्ट रोल करने के बाद सामान्य जीवन जी पाना, अपने प्रति सकारात्मक रहना असंभव समझिये।

इनमें काम करना, बिग बॉस के घर में रहना ये सब घातक होंगे ही सरल ज़िन्दगी के लिए।

मुझे कुछ चैनल के एंकर को देखकर भी डर लगता है।

कितने भयंकर व्यापारी आ बैठे हैं।

अभिनय मुक्त करनेवाला नहीं बीमार बहुत बीमार करनेवाला हो रहा है।

कंधे में बन्दर बैठाये, भालू को रस्सी पकड़ खींचते, या झोले में सांप रखे तमाशेबाज़ से आपको सहानुभूति हो सकती है मगर करोड़ों में खेलनेवाले ऐसे सीरियल पर हमें गुस्सा आना चाहिए।

ये बंधुआ बनाकर, झूठी प्रसिद्धि दिलाकर अपने कलाकारों को भीतर से कमजोर कर रहे हैं।

इनके कलाकार यदि राजनीति में भी आ रहे हैं तो समझिये बाढ़ का पानी घर में घुस चुका है।

समाचार चैनल भी सास, बहू, बेटी पर जो कार्यक्रम करते हैं वे खतरनाक हैं।
-शशिभूषण

कोई किसी के मारने से नहीं मरता है

अपना वजन सबसे भारी होता है
अपनी आँच से मन बहुत जलता है
लौटे आये गाली तो दिल कहाँ धर दें
अपनों के गिले से सीना फूट सा फटता है
गरीब जी जाता है
सबसे अमीर मरता है
जिसका कोई नहीं
उसे बदनसीबी पाल लेती है
सबसे बडा गदाधर
बच्चे की गेंद से गिरता है
तू कहां रोता है दुनिया पर दीवाने
बोलता है बात करता है
खुश रहा कर इतराया भी कर
जो किसी से नहीं लडता
बड़ा लडैया उसी से हारता है
जो कभी नहीं निकलता मोहल्ले में
फ़ोन पर सबसे बात करता है
दुनिया जिसे कहती है नास्तिक
वहीं चौरस्ते पर पंडाल धरता है
दोस्त लिखकर रह जाते हैं स्टेटस
पड़ोसी मदद के लिए रिक्वेस्ट करता है
मत भूल तुझे भी पैदाकर पाला किसी ने
कोई किसी के मारने से नहीं मरता है
सांस रोकी है तो ऊपर भी निकल
माना खुद्दार है अपनी खाता है
मगर पानी में रहता है।

-शशिभूषण

भिंडी



आप सीधे सादे ढंग से कह सकते थे
मुझे भिंडी की सब्जी पसंद नहीं है
यह कहने से न आपका स्वास्थ्य खराब होता
न ही आप हरित सब्जी विरोधी समझे जाते


आप यह पहले बड़ी आसानी से कहते रहे हैं
थाली में भिंडी की सब्जी छोड़ना आपको याद होगा
कहा जाता कि कभी भिंडी की सब्जी भी खा लेना चाहिए
तो आप बिना मुँह बिचकाये चबा चबाकर खा लिया करते थे

भिंडी की सब्जी न खाने के पीछे आपका कोई प्रण नहीं हैं
अच्छी लगने लगे या बाज़ार में वही बचे तो आप ज़रूर खा लेंगे
आपने एक बार बच्चों से कहा भी था चुनावी मत बनो सब खाया करो
भिंडी खरीद ही लिया करते थे कि सब्जी न बनने से अच्छा भिंडी की सब्जी

कोई बहाना नहीं बनाया करते थे आप
भिंडी कहने से दौड़ाया भी नहीं करते थे आप
अब जो जो भिंडी कहकर आपको सभा से उचका देते हैं
उन्हें आप ही समझाया करते थे चिढ़ना नहीं चाहिए

आप जानते हैं और हमें भी अच्छी तरह याद है
यह जो पीछे पीछे आपके बच्चे हँसते दौड़ते हैं
आप उन्हें भिंडी पुकारने के कारण भगाते फिरते हैं
कई बार आपने उन्हीं के सामने तारीफ़ करके भिंडी खायी

अब आप याद भी नहीं करना चाहते
रौ में बोल गये थे दोहराना नहीं चाहते
"भिंडी का हरापन भी अमेरिका की सेंध है
भारत की खेती पूँजीवीद का अश्वमेध है"

बातें थी जिन्हें आप क्या खूब कहना चाहते थे
दुनिया से जाने के बाद स्मृति में रहना चाहते थे
आप तड़का लगाते गप शप में राजनीति का
खूब समझाते कैसे कैसे सत्ता करवट लेती है

लोग सुनते थे गुनते थे हँसते थे चुप रह जाते थे
कभी कभार दिलचस्पी में आपके पीछे लग जाते थे
आप अपनी सोची हुई दुनिया में बड़ी दूर तक जा रहे थे
अफ़सोस ज़माने को वैसे ही रहना था आपको भिंडी खाना था।

-शशिभूषण

गाली

‘मेरे पास समय नहीं’
इसे गाली मान लेने का मन नहीं होगा
यदि इस बात को गाली मान लिया जाये
तो सबके साथ अशिष्टता होगी
जो रात-दिन काम करते हैं
किताबों में कवर नहीं चढा पाते
चाय का कप केवल खंगाल लेते हैं
चप्पल पहनते हैं
दाढ़ी रखते हैं
दवाई खाना भूल जाते हैं
आखिरी वक्त में
किसी को बुला रहे
या अस्पताल में जनम दे रही मां को
याद कर सकने वाला
‘मेरे पास समय नहीं’
को गाली कैसे मान सकता है?
जीवनभर ‘मेरे पास पैसे नहीं’ की हिंसा सह चुका तक
‘मेरे पास समय नहीं’ को गाली नहीं मान पायेगा
आप समरथ हैं
चाहे जितना कहिए
'मेरे पास समय नहीं'
हम यही मानेंगे
आपके पास समय नहीं है
तो ज़रूर कोई बड़ा काम होगा!

-शशिभूषण

इति सिद्धम्!



तुमने इसे मां की गाली क्यों दी?
मैंने किसी को माँ की गाली नहीं दी
तुमने दी
मैंने नहीं दी
तुम माँ की गाली देते हो
मैं कोई गाली नहीं देता
साला, गाली नहीं?
होगी, मैं यों ही बोल जाता हूँ
साला, गाली है
हमारे बीच आम है
मां की गाली भी आम है
होगी किसी के लिए
तुमने माँ की गाली दी थी
मैं गाली नहीं देता
तुमने दी गाली
मादर...मान लो दी ही तो..
हा हा..यही तो कहा तुमने गाली दी थी
दी तो नहीं थी पर अब देता हूँ क्या कर लोगे?
हो हो.. तुम मां की गाली देते हो
साले, मैं गाली देता हूँ तो दुखी हो सकते हो, थप्पड़ मार सकते थे। हो हो की क्या बात है?
तुम मां की गाली देते हो मुझे यही साबित करना था
मज़बूर करके साबित कर देना नीचता है
मज़बूर हो जाना बड़ी नीचता है
कैसे?
जाने दो लोड मत लेना
क्यों न लूँ लोड?
मैं भी मां की गाली देता हूँ यार...
.....
बुरा मत मानना
.....

-शशिभूषण

पूर्वाग्रह न रहें बहस चलती रहे



पत्रकार पूजा सिंह ने मुझसे कई बार कहा सर जी मुझे आपसे लड़ाई करनी है। संयोग ऐसे रहे कि मुझे कहना पड़ता कर लेंगे लड़ाई भी। समय मिलते ही ज़रूर लड़ाई करेंगे।

ज़िंदगी ऐसी है, इतने रिश्तों की शक्ल में लोग प्रिय हो जाते हैं कि लड़ाई से समझौता करना पड़ता है। लगता है आत्मीयता के ऊपर किसी एक बात को क्यों हावी होने दिया जाये? फिर समय भी हर हाल में कम पड़ जाता है।

मुझे अंदाज़ा नहीं था पूजा के पास शिकायतों की खेप तैयार हो रही है। इसमे आग में घी का काम कर रखा था उदय प्रकाश की कहानी वारेन हेस्टिंग्स का सांड़ पर मेरे द्वारा की गयी आलोचना ने। पूजा ने भोपाल में मेरी बातें सुनी थी। उदय प्रकाश जी की एक खासियत भी है वे किसी को भी लड़ जाने की हद तक प्रिय हो जाते हैं। उदय प्रकाश जी को पसंद करनेवाले परस्पर उनके निंदको से अधिक लड़ते हैं। यह अलग रहस्य है।

इस बार पूजा के अकेले उज्जैन आने से समय मिल ही गया। यद्यपि तबियत खराब थी। दस्त रोकने की दवाई और ग्लूकोज लेना पड़ रहा था। दवाई के प्रति ऐसा विलक्षण रवैया भी कि शकल करैला हो जाये। 200 किमी की यात्रा और आजकल की गर्मी। इसी बीच पूजा ने मेरी ग़लतफ़हमी भी दूर कर दी कि मेरी तबियत ऐसे खराब होती है कि किसी को यक़ीन नहीं होता मैं बीमार भी हूँ। मैने इस मार्मिक बात की मन ही मन तस्दीक की।

लेकिन रिस्क छोड़ दें, अनजान न दिखें तो किस बात की पूजा! मैंने भरसक कोशिश की हल्की फुल्की बातें की जायें। उन्हें शुक्रवार के लिए उज्जैन का सिंहस्थ कवर करना है तो उसी से जुड़ी बातें हों। बहस में उलझ गयीं तो काम प्रभावित होगा। अधिक दिन रुकना संभव नहीं।

लेकिन अपना सोचा कहाँ होता है। कई बाबाओं और एक साध्वी के दर्शन के उपरांत आतिथ्य, मेज़बानी, स्वास्थ्य और समय को दांव पर लगाती हुई कठोर बहस शुरू हुई। गउघाट पर। ऐसी बहस लड़कियाँ जिसकी आदी नहीं होती। आसपास के लोग जिस पर चौंककर देखते हैं। लेकिन पूजा की तैयारी थी। वे तमाम विषय भी ले आयीं। साहित्य, पत्रकारिता, समाज और इंसानी कमजोरियाँ सब तरह के विषय।

पूजा ने स्त्रियों के बारे में आये मेरे विचारों में बदलाव और मेरे खरा कॉमरेड न होने को सख्ती से रेखांकित किया। मैं तिलमिला गया। उन्होंने मुझसे कहा आपको जितना जल्दी हो सके समझ लेना चाहिए कि लड़कियाँ वह सब नहीं कर पाती हैं जो वे कर सकती हैं और करना चाहती हैं। इसमें रोक, छल और घुटन सब होते हैं। इसी के आलोक में उनकी प्रतिभा और कृतित्व को देखना चाहिए।

मैंने कहा पूर्वाग्रह किसी कीमत पर नहीं रखना चाहिए। स्त्रियों को भी रोज़मर्रा के आंकलन से ऊपर गंभीर विषयों पर तर्कसंगत बहस की तैयारी करनी चाहिए। अपनी सीमाओं से युक्ति निकालकर तथ्यों की चुनौती देनी चाहिए। ध्यान रहे वस्तुपरक बहस एक क्रूरतापूर्ण गतिविधि है। यह स्त्री-पुरुष नहीं देखती। इसमें घायल होने के बाद अपनी मल्हम पट्टी का इंतज़ाम भी खुद ही रखना चाहिए।

मेरा इशारा था कि रियायत की उम्मीद मत करना। पूजा का दावा था मैं परवाह नहीं करती।

कई बातें बेनतीज़ा रहीं। पूजा अगले दिन भोपाल लौट गयीं। हो सकता है उन्होंने मेरी समझदारी का अनुमान कर तसल्ली कर ली हो कि मेरे सकुशल भोपाल पहुँच जाने को मैंने जान ही लिया होगा। न उन्होंने बताया। न मैं पूछ पाया।

अब फेसबुक पर देने को कोई नसीहत नहीं है। बस शुक्रिया है कि मेरी यह समझ बढ़ी है कि पत्रकारिता बहुत कठिन, चुनौतीपूर्ण और श्रमसाध्य काम है। स्त्रियों के लिए कई गुना कठिन। असंभव सा। अपने को खतरे में डालने जैसा। अपना ही जुनून न हो तो कोई करवा नहीं सकता।

पूजा में जुनून और साहस की कोई कमी नहीं है। उनका दायरा भी बड़ा है। मैं साधन, सुरक्षा और अवसरों के लिए दुआ ही कर सकता हूँ।

अंत में बस यह हल्का-फुल्का सवाल पूछना चाहता हूँ कि बड़े-बड़े जोखिम उठा लेनेवाली किसी महिला पत्रकार को छिपकिली से आखिर क्यों डरना चाहिए?


-शशिभूषण

दिलीप मंडल



आप दिलीप मंडल की आलोचना क्यों नहीं करते?
मुझे लगता है उनकी तार्किक बातों से मेरे कारण कोई एक भी विमुख हुआ तो यह नुकसान होगा।

ऐसा भी तो हो सकता है आप क्या खाकर उनकी आलोचना करेंगे? कहाँ वो कहाँ आप!
नहीं यह बात नहीं भूखे को भोजन का आनंद अधिक आता है।


यह भी तो हो सकता है उनकी बातें अकाट्य हों?
हर किस्म की बात काटी जा सकती है। बात कर सकनेवाले पर वार करना ठीक बात नहीं।

ये कहिये आप भी दिलीप मंडल के भक्त हैं
मैं उनके तर्कों का अक्सर मुरीद हूँ

दिलीप मंडल के बारे में कुछ तो कह सकते हैं?
मुझे एक ही बात कहनी है। अपने नायक खड़ा करने के लिए दूसरों के नायकों का सर काटने दौड़ते रहना ठीक बात नहीं तब जबकि आप बौद्धिक मोर्चे पर हों।

यह क्या बात हुई जब तक पुराने हटेंगे नहीं नए कैसे आएंगे?
मेरी राय में नए नायकों का स्वागत पुराने नायकों की लाश बिछाकर करना शिक्षक का काम नहीं है।

आप दिलीप मंडल को शिक्षक मानते हैं?
शिक्षक तो वे हैं ही। सावित्री बाई को आगे रखकर बात करना किसी शिक्षक की ही ज़िद होगी

दिलीप मंडल राजनीतिक कार्यकर्त्ता नहीं हैं?
अम्बेडकर का अनुयायी अराजनीतिक कैसे होगा

वे पत्रकार नहीं हैं?
पत्रकारिता उनकी खूबी है

आप अपेक्षा करते हैं कि दिलीप मंडल आपसे सहमत होंगे?
नहीं मैं अपेक्षा नहीं करता। वे मुझसे बड़े हैं।

कैसे बड़े हैं?
वे नायक बदलने के अभियान में हैं
मैं बच्चों को पढ़ाता हूँ

लेकिन हैं तो आप दोनों ही शिक्षक?
शिक्षकों में भी बड़े छोटे होते हैं

कैसे?
जो सब शिक्षकों को संगठित कर एक जगह ला पाये वह कोई विरला होता है। ऐसे वरिष्ठ शिक्षक के साथ शिक्षक समान होते हैं

कोई उदाहरण दीजिये
दिलीप मंडल ने आज ही ध्यान दिलाया है जवाहर लाल नेहरू जनेऊधारी हैं

इसमें गलत क्या है? फ़ोटो है उनके पास।
यही तो बात है। फ़ोटो का सहारा लेना पर्याप्त नहीं

क्यों क्या फ़ोटो सच नहीं कह सकते?
काफ़ी नहीं होते। कल दिलीप जी के फ़ोटो भी इण्डिया टुडे के साथ होंगे। उन्हें इण्डिया टुडे में लानेवाले आज कहाँ हैं?

क्या इण्डिया टुडे ख़राब है
यह भी जनेऊ जैसा ही है



-शशिभूषण

एक ही मुराद है अपने लिखे से किसी निर्दोष को पीड़ा न हो

उज्जैन सिंहस्थ 2016 शुरू ही हुआ था कि दैनिक अखबार ‘पत्रिका’ पर नज़र पड़ी। अखबार के तेवर ऐसे थे कि परखने का मन हुआ- देखना चाहिए स्थायी बल है या सिंहस्थ जमाऊ जलवा है। कुछ रोज़ मँगाना तय किया गया। एक अंग्रेज़ी अखबार ‘टाईम्स ऑफ़ इंडिया’ को मिलाकर घर में तीन अखबार हो रहे थे। निर्णय लेना ही पड़ा। ‘टाईम्स ऑफ़ इंडिया’ को स्थगित किया गया। ‘पत्रिका’ की आमद शुरू हुई।

इसमें कोई शक़ नहीं कि सिंहस्थ को लेकर ‘पत्रिका’ ने साहसिक, दिलचस्प और विश्लेषणपरक खबरें छापीं। बड़े-बड़े बाबाओं, महामंडलेश्वरों और नामानंदों के प्रति आलोचनात्मक दो टूक रवैया रखा। सरकारी नीतियों और कार्यों के प्रति पर्याप्त निर्ममता बरती। कई खुलासे किए। सिंहस्थ के खरे-खोटे हिस्से खूब छपे।

लेकिन सिंहस्थ की खबरों में जोखिम, ऐतिहासिक और सांस्कृतिक ऐंगल लाने का श्रेय जाता है बनारस से आये पत्रकार आवेश तिवारी को। जितने दिन उज्जैन रहे आवेश जोरदार रहे। कमाल यह था कि आवेश अपनी खबरों के शानदार फोटोग्राफर भी हैं। हर स्टोरी के साथ बढ़िया फोटो छपे। उज्जैन में खूब दौड़े और खबरों को सब दूर दौड़ाया। एक बाबा को तो बाकायदा कमंडल पकड़ाकर चलते बनो पर मजबूर कर दिया।

मेरी राय में आवेश तिवारी में पत्रकार के सभी गुण हैं। वे भाँप सकते हैं। चाँप सकते हैं। भाग भी सकते हैं। दौड़ा भी सकते हैं। नौबत आ ही जाये तो कुश्ती भी लड़ सकते हैं। ज़रूरतमंद को कंधे में लादकर घाट भी पार करा सकते हैं। आवेश का कहना है भाई, बस एक ही मुराद है अपने लिखे से किसी निर्दोष को पीड़ा न हो। आवेश तिवारी का एक प्रसंग आपको भी गौर करने के काबिल लगेगा।

हम रामघाट में थे। रात का समय। टहलते-टहलते बाबाओं के पास पहुँचे। वैसे बाबा जिन्हें देखना भी चाहें और देखें भी नहीं। आवेश ने बात शुरू की तो एक युवा नागा खुलने लगा। इन्होंने पहचान लिया।
बनारस से हो?
हाँ?
वाह! खाना-पीना हो रहा है बढ़िया कि नहीं?
दिक्कत है!
बनारसी हो खाने-पीने में कमी न करना।

यह वार्तालाप सुनकर मुखिया बाबा आ गया। जोर की हाँक लगाई-हटो। डंडा दिखा बुदबुदाकर गाली दी। आवेश कठोर हुए-बनारसी, बनारसी से टेढा बोलने लगे तो समझो बुरे दिन आ गये। गरम मत होना। बाबा शांत हुआ। फिर वे परस्पर बातें करने लगे। मैं दूसरे साथियों में व्यस्त हो गया।

थोड़ी देर में क्या देखता हूँ कि जैसे आवेश ने कोई मंत्र फूँक दिया था। एक नागा के कंधे पर दूसरा नागा चढ़ गया। दोनों अपनी कलाबाज़ी दिखाने लगे। आवेश मज़े से फोटो लेने लगे। भीड़ लग गयी। दूसरे भी सेल्फ़ी लेने लगे।

आज यह याद आ गयी। सिंहस्थ हो चुका है। आवेश पहले ही जा चुके हैं। पत्रिका की टीम भी अपना काम उसी मुस्तैदी से करती रही है। अपने घर में ‘नयी दुनिया’ का कोई विकल्प नहीं है। अब केवल यह निर्णय करना है कि टाईम्स ऑफ़ इंडिया फिर शुरू करें या नहीं!

चलिए, यह अपना घरू मामला है तय हो जायेगा। अब कौन सा अखबार पढ़ रहे यह बताते रहना ज़रूरी नहीं। हम सेलिब्रेटी नहीं न हैं!

-शशिभूषण

लिखना चुनें



मैं समझता हूँ कविता, कहानी, डायरी, आवेदन, चिट्ठी जो लिख सकते हों, जो भी पसंद हो सबको खूब लिखना चाहिए। रोज़ कुछ न कुछ लिखें। छपे न छपे। कोई पढ़े न पढ़े इसकी परवाह छोड़कर। एक मामूली इंसान जब टूटी-फूटी कविता लिखता है, रिश्तेदारों या मित्रों को पत्र लिखता है, यहाँ तक की जब कोई बच्चा एक पुर्जे में कुछ लिख कांपते हाथों से दोस्त लड़की को थमा देता है तो वह भाषा का साथी होता है।

मैं चाहता हूँ लोगों को इतना मज़बूत और आत्मविश्वासी बनने में योग दिया जाये कि जब वे अपना कोई कार्ड भी छपवायें तो उसमें अपनी पसंद की दो लाईन लिख सकें। अपनी भाषा को लेकर लोगों में प्रेम भरने की ज़रूरत है। कौन कवि है, कौन कहानीकार इससे अधिक ज़रूरी है लोग भाषा को लिखित रूप में अधिक से अधिक बरतें।


मोहल्ले और गाँव में टूटी-फूटी भाषा लिखने वाले उतने दोषी नहीं हैं जितने दोषी लाखों पढ़ाई में खर्च करने के बाद किसी संस्थान में काम करते हुए ग़लत भाषा लिखनेवाले हैं। भाषा का एक प्रयोजन मूलक रूप भी होता है। किसी का मोबाईल खो जाये, तीन दिन से बिजली न आये तो उसे एक आवेदन लिखना आये इसकी ज़िम्मेदारी केवल भाषा के मास्टर की नहीं हो सकती। इसे नामवर सिंह सबको नहीं सिखाएँगे। जो भी पढ़े-लिखे हैं उन्हें यह आना चाहिए और वे दूसरों को सिखायें।

कौन सच्चा कवि है, कौन नाहक कविता पेलता रहता है ऐसी चर्चाएँ बहुत छोटे समुदाय की हैं। इससे उसी वर्ग का नफ़ा-नुकसान होता है। नागरिकों को यह भी देखना है कि उनके नेम प्लेट, होर्डिंग या बैनर में ग़लत शब्द न लिखे हों।
(शशिभूषण के यों ही बोल दिये गये किसी भाषण का अंश)

राज्यसभा टीवी पर विश्वनाथ सचदेव



आज राज्यसभा टीवी पर प्रसिद्ध पत्रकार, लेखक और संपादक विश्वनाथ सचदेव का पत्रकार-संपादक आलोक मेहता द्वारा लिया गया साक्षात्कार देखा। बहुत से पुराने, ज़रूरी प्रसंगों और बातों का जानना हुआ।

आलोक जी ने बहुत अच्छे से विश्वनाथ जी की वरिष्ठता का पूरा खयाल रखते हुए असुविधाजनक सवाल भी पूछे। एक सवाल जिसके जवाब अलग-अलग समय में हम सुनते रहते हैं यह था-

आलोक जी ने विश्वनाथ जी से पूछा -कुछ संपादक कहते हैं कि हमारे ऊपर मालिक का दवाब नहीं रहा, मालिकों ने कभी हमें निर्देशित नहीं किया। आपका क्या अनुभव था?


विश्वनाथ जी ने जवाब दिया- मालिक जब संपादक नियुक्त करते हैं तो वे संपादक की क़ाबिलियत जानकर रखते हैं। मालिक को यह मालुम होता है कि संपादक यह समझने में ग़लती नहीं करेगा कि कौन सी बात मालिक के हित में है, किस बात से मालिक का हित सधता है।

साक्षात्कार में और भी अच्छे, विचारणीय प्रसंग थे। विश्वनाथ सचदेव बहुत पुराने और सफल संपादकों में से एक हैं। टाईम्स ऑफ़ इंडिया से पत्रकारिता की शुरुआत कर नवभारत टाईम्स और धर्मयुग का संपादन कर चुके हैं। फिलहाल साहित्यिक पत्रिका नवनीत के संपादक हैं। आलोक मेहता से भी शायद ही कोई अनजान हो।

सुबह का असर कहिए आज शाम को बुकस्टॉल के पास से गुज़रा तो नवनीत का जून अंक ले आया। पत्रिका अच्छी लगी। बहुत सी ज़रूर पढ़ने लायक चीज़ें हैं।

कुल मिलाकर कभी-कभी राज्य सभा टीवी देखना अच्छा लगता है। नाहक चिल्ल पों नहीं होती। सीधे-सादे ढंग से बनाये गये कार्यक्रम अच्छे अनुभव दे जाते हैं।




-शशिभूषण

पल प्रतिपल



आजकल ऐसा लग रहा है कि पत्रिकाओं का हर पाठक 'पल प्रतिपल 79' पढ़ रहा है। केवल पढ़ ही नही रहा इसके बारे में अपनी राय फेसबुक पर विस्तार से लिख भी रहा है।

मैने सोचा यदि 'पल प्रतिपल' के इतने पाठक और इतनी दूर-दूर पहुँच हैं तो 'पल प्रतिपल 78' में पाठकों का किसी भी नाम से कोई स्तंभ क्यों नहीं है?

इसका जवाब 78वे अंक के संपादकीय में ही मिल गया। संपादक देश निर्मोही लिखते हैं-


" यह सफ़र तीस साल पहले आरंभ हुआ। एक अरसे तक लगातार इसके अंक निकलते चले गये और एक बड़ा पाठक वर्ग हमारे साथ जुड़ता चला गया। फिर सात वर्ष पहले इसे अचानक बंद करना पड़ा। इतने वर्ष तक यह पत्रिका मेरे पास मौन होकर यूँ मौजूद रही जैसे अब इसका वजूद मुझसे कभी जुदा नहीं हो सकता।"- पृष्ट 5

त्रैमासिक के रूप में प्रकाशित 'पल प्रतिपल 78' छमाही है। शीर्षक है 'कथा का समकाल' सुना है 79 वां अंक भी कथा का समकाल ही है। यह भी पढ़ा-सुना है कि इसमें कुछ कहानीकार दुहराये गये हैं। जितना मैंने पढ़ा उसके अनुसार पल प्रतिपल 78 से पल प्रतिपल 79 की कोई सूचना नहीं मिलती।

मैने सोचा भारतीय उपमहाद्वीप में 'कथा का समकाल' पर केन्द्रित कोई पत्रिका अपने अगले ही अंक में कहानीकारों को दुहरा कैसे सकती है? फिर खयाल आया कि हो सकता है कुछ अत्यंत महत्वपूर्ण समकालीन लेखकों की उपेक्षा शेष पत्रिकाओं ने अतीत में कर रखी हो जिसकी भरपाई यह पत्रिका करना चाहती है।

खैर, क्या मैं यह इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि मैं पल प्रतिपल की संपादकीय टीम की नज़र में आ जाना चाहता हूँ या फेसबुक में इधर-उधर बिखरी टीपों को संपादक के ही संयोजन में पढ पढ़कर कुंठित हो गया हूँ?

इधर माना यह भी जा रहा है कि फेसबुक का पवित्र इस्तेमाल केवल कुछ लोगों को ही आता है। बाक़ी लोग प्रकट हो जाना चाहते रहते हैं।

मैं दो कारणों से यह लिख रहा हूँ-

1- यह पत्रिका हम जैसे पाठकों तक भी पहुँचनी चाहिए।
2- यदि पत्रिका कोई विशेषांक निकालती है तो इसके लिए बड़े पैमाने पर रचनायें आमंत्रित की जायें।

कहने में यह अति साधारण लगेगा लेकिन पत्रिकाओं में आजकल यह प्रवृत्ति हावी है कि अपने मित्रों और उनके मित्रों की रचनायें मिलाकर कोई विशेषांक निकाल धमाका कर दिया जाये।

इसका अपवाद हंस, कथादेश, बया, परिकथा, रचना समय आदि ही रहे। वरना मेरा अनुभव यह है कि बड़ी बड़ी पत्रिकाओं ने एक अंक पहले बताकर सीधे विशेषांक ही पेश किया।

यहाँ लिख दिया है ताकि यह बात भी पल प्रतिपल जैसी किसी अच्छी पत्रिका के पाठकों के ध्यान में रहे।

-शशिभूषण

प्रणव धनावड़े एकलव्य नहीं है



वेस्ट ज़ोन की अंडर 16 टीम में प्रणव धनावड़े का चयन नहीं हुआ था। महान क्रिकेटर माने जानेवाले और भारत रत्न सचिन तेंदुलकर के बेटे अर्जुन तेंदुलकर इसी टीम के लिए सेलेक्ट हुए।

प्रणव धनवड़े का चयन न होने को लेकर अलग-अलग प्रतिक्रियाएँ पढ़ने-सुनने-देखने को मिलीं। सबसे असुविधाजनक प्रतिक्रियाएं वे थीं जिसमे प्रणव को एकलव्य कहा गया। यह साबित किया गया कि प्रणव कथित रूप से निचली जाति में पैदा होने के कारण और ऑटो ड्राइवर का गरीब बेटा होने के कारण नहीं चुने गये।

यह भी बताया गया कि अर्जुन तेंदुलकर प्रणव से कम अच्छे क्रिकेटर हैं। प्रणव की खुले मन से तारीफ़ करने के बावजूद सचिन तेंदुलकर अपने बेटे के पक्ष में आ गये होंगे। प्रणव के नहीं चुने जाने के पीछे वही सचिन तेंदुलकर हैं जिनके लिए उनसे श्रेष्ठ माने जानेवाले क्रिकेटर विनोद कांबली पीछे धकेल दिये गये।


हो सकता है कोई ठोस सबूत न होने के बावजूद यही बातें सच हों। यह भी हो ही सकता है कि इस घटना में जातिगत दुराग्रह न होने के राहत देनेवाले संकेत हों।

इस पूरे प्रकरण में मुझे जो बात सबसे अच्छी लगी वह थी प्रणव के पिता और प्रणव का बयान। मेरे इस अच्छे लगने को कुछ लोगों द्वारा इस तरह भी देखा जा सकता है कि इस बयान से तेंदुलकर का बचाव होता है इसलिए ले देकर सवर्ण मानसिकता के पक्ष में खड़े हो जाना ही हम जैसों की नियति है।

जब प्रणव ने स्पष्ट किया कि उनकी उस यादगार और ऐतिहासिक पारी खेलने से पहले इस टीम का चयन हो चुका था, कि अर्जुन उनके अभिमान रहित मित्र हैं, कि तेंदुलकर सर उसे चाहते हैं तो मुझे सचमुच अच्छा लगा कि यह खिलाड़ी अत्यंत परिपक्व है और यदि भविष्य में सचमुच कोई दुर्घटना न हुई तो इसका भविष्य अच्छा है।

मान लीजिए प्रणव अपने को एकलव्य कहे जाने का तनाव स्वीकार कर लेता, अर्जुन और सचिन को लेकर बढ़िया बाईट दे देता तो क्या होता? तब क्या यह खिलाड़ी असमय लड़ाई में कूदकर भारतीय क्रिकेट के सभी दुष्चक्रों को कुछ टीकाकरों, बहसबाज़ों के सहारे काट लेता? क्या इससे उसे भविष्य की किसी टीम में बड़ा मौका मिल जाता? हर्गिज नहीं। बल्कि वह बड़ी आसानी से अपनी अभूतपूर्व प्रतिभा के साथ अवसरहीन गुमनामी के अँधेरे में बढ़ा दिया जाता।

शुक्र है कि ऐसा नहीं हुआ। तब क्या वे लोग पूरी तरह ग़लत थे जिन्होंने प्रणव को एकलव्य की तरह उछाला? मेरी राय में उन लोगों ने भी ठीक ही किया। चाहे जिस तरीक़े से हो प्रतिभाशाली लोगों को अकेला नहीं छोड़ना चाहिए। खासकर ऐसे देश में जहाँ जाति के आधार पर किसी को अयोग्य ही नहीं नीच तक समझनेवाले बड़ी संख्या में पढ़े लिखे तथा रसूखदार लोग हों।

धन्यवाद प्रणव, तुमने अपने पिता और विवेक के साथ मिलकर एक बड़े खिलाड़ी के मान की रक्षा भी की है। यह ऐसी बात है जो कभी तुम्हारा अहित नहीं होने देगी। मुझे ऐसा ही लगता है।




-शशिभूषण

सैराट


मैंने भी मराठी फ़िल्म 'सैराट' देखी। मुझे मराठी नहीं आती। अंग्रेज़ी में लिखे आ रहे संवाद समझ नहीं आये। इस तरह यह अनोखी फ़िल्म थी जिसमे किसने किससे क्या कहा मैने नहीं समझा।

मैंने दृश्य देखे और कहानी में, चरित्रों में पूरी तरह डूब गया। जब फ़िल्म ख़त्म हुई तो मैं कुछ भी कहने की स्थिति में नहीं था। क्रोध, शोक और करुणा की त्रिवेणी में मैं स्तब्ध और निःशब्द रह गया। मेरे भीतर हाहाकार और सन्नाटा दोनों बराबर थे।

नन्हे शिशु के सूनी सड़क पर असहाय, भविष्यहीन कदम और घर में उसके मां बाप की निर्दोष, निरापद, स्वावलंबी ज़िन्दगी की निर्मम हत्या से पैदा मौत ने ऐसा कर दिया था कि लगा यह सब अभी-अभी अपने घर में घटा है।


कुछ बड़ा कहने की आज भी स्थिति नहीं न ही सामर्थ्य। सिर्फ़ यही कह सकता हूँ कि यह फ़िल्म प्रेम, क्रोध, शोक और करुणा की अनमोल सामाजिक कृति है। जो भी देखेगा अपने भीतर बदलाव अवश्य पायेगा।

इससे पहले कि सुधारगृहों के चौकीदार, व्यापारी चिकित्सकों के सहयोग से निर्मित कोई नयी पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट बांचकर फ़िल्म को सुधार की खोखली, नकली कोशिश साबित कर दें आप फ़िल्म देख लें।

जब आप फ़िल्म देख चुकें तो कहीं गवाही देने मत दौड़ें। एक गिलास पानी पियें और मौन टहलने निकल जाएँ। यदि टहलना मुनासिब नहीं तो संभव एकांत में कुछ देर एकाकी गुनें




-शशिभूषण