रविवार, 6 अक्तूबर 2013

शब्द और स्मृति

लोकसेवक मालिक हैं। बापू कोई भी कहला सकता है। कहा जाता है कि सत्ताओं द्वारा अर्थ बदल दिये जाते हैं। स्मृतियाँ झुठला दी जाती हैं। शासकों के संबोधन मे अर्थ और स्मृतियों की बड़ी गूँज सुनायी देती है । लेकिन आदेशों में ईमानदार और निर्दोषों के लिए सज़ा होती है। कहा जाता है कि सब स्वतंत्र हैं। लेकिन जो कहा जाये वही करने की आज़ादी है। सभी दफ्तरों में गाँधी जी की तस्वीर देखी जा सकती है। गाँधी जी की स्मृति दफ्तर में शायद ही कभी आती हो। लोकसेवक जिस वेश भूषा में गाँधी जी की तस्वीर के सामने या ठीक नीचे बैठते हैं उसकी तुलना अंबेडकर से की जा सकती है। लेकिन दफ्तर में अंबेडकर की ही स्मृति आती हो ऐसा नहीं है। लोकसेवक अंबेडकर और गाँधी को अपनी जेब में रखते हैं। बोलने का हक़ सबको है। कहा तो यहाँ तक जाता है ...लेकिन सरकार का मतलब आज तक नहीं बदला। सही सत्ता पकड़ने के हाँके में भी जंगल काँपता है। जिसकी सुनी जाती है देश उससे चलता है। अर्थ और स्मृतियों का क्या है उनसे केवल कुछ दीवाने पैदा होते हैं। 

-शशिभूषण

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