बुधवार, 22 फ़रवरी 2012

बिटिया

दिवि के साथ तो कविता लिखने की ज़रूरत ही नहीं महसूस होती। हर क़िस्म के भाषायी सृजन से बड़ा लगता है उसका साथ। उसके साथ हर पल सारी संवेदनाएँ जीती रहती हूँ। फिर भी आज जाने कैसे यह कविता लिखने से खुद को रोक नहीं पायी। -कविता जड़िया


बिटिया के संग रहते हुए
दुनिया से मुँह फेरे हूँ इन दिनों
बिटिया की गोल मुइयाँ में ही
दुनिया को ढूँढ़े हूँ इन दिनों

सबकी शिक़ायत, सबकी बग़ावत
झुठला रही हूँ आँखों को मूँदे
कोशिश यही ढरकने न पाएँ
बिटिया की आँखों से मोती की बूँदें

झरती रेत से मेरे समय को
है थामे उसी की नाज़ुक हथेली
कभी वो दिखे पुरखिन ज्ञाता
कभी बन जाए नन्ही पहेली

उसी की हँसी में हँसें मेरी खुशियाँ
हो उसके रुदन में कलेजा हलाल
उसी की दया से दिनचर्या नियमित
करे भौंहें टेढ़ी तो होवे बवाल

उसी की छुअन में हैं भोजन के षटरस
उसी की किलोलों में नौ रस समाए
तन से हो दूरी भले कुछ डगों की
मन ये ज़रा दूर भी रह न पाए

जो कुम्हलाए वो तो हो जीवन उदास
जो खिल जाए वो तो भगे हर बीमारी
जो टन्नाए वो तो भन्नाए माथा
हँसे वो तो संग-संग हँसे सृष्टि सारी

बिटिया की चुटिया में बँधी हुई है
मेरे भावी जीवन की हर कड़ी
बिटिया की निंदिया में खोई हुई है
जीवन के कष्टों की हर घड़ी

बिटिया की पोपली बोली में ही
समाया है जीवन का ज्ञान सारा
बिटिया के बेहतर पालन में ही
होना है इस जीवन का गुज़ारा।

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