रविवार, 29 जनवरी 2012

लेखक के लिए ज़्यादा ज़रूरी क्या है लिखना या पढ़ना?

यह फेसबुक में कवि-कहानीकार श्रीकांत दुबे की वाल पर हुई नोक-झोंक है। विषय था लेखक के लिए ज़्यादा ज़रूरी क्या है लिखना या पढ़ना? कुछ पुरानी चीज़ें खंगालते हुए आज इस पर नज़र ठहर गयी। इस बातचीत के बाद कहानीकार गौरव सोलंकी मित्र नहीं रहे। कदाचित अच्छे से अच्छा लिखना, उनका चुनाव है इसलिए उन्होंने मुझ पर आगे वक्त न जाया करना तय किया होगा। खैर, खुशी-नाराज़गी भी ज़रूरी जीवन व्यापार हैं। मैं यह सोचते हुए कि हम फेसबुक के लिए कितना समय निकालते हैं यह बातचीत यहाँ रख रहा हूँ। साथ ही मुझे खयाल आ रहा है कि ऐसी कुछ लंबी चर्चाएँ और खंगाली जायें। -शशिभूषण

Shrikant Dubey: What's More Important for a Writer: To Read or To Write?

(September 18, 2010 at 10:47pm )

Amit Jha: for a writer like you...its more important to understand then to decide whether to write / Read ?

Aparna Mishra: Both

Chandan Pandey: writing.

Reading at its best can be a way to knowledge or a sheer pleasure or reading may be a tool who lacks experience. Reading is compulsory where u r a writer or not.. but for a writer- writing is the most important.

Aparna Mishra: Chandan..... Definitely for a writer, its imp but v need to Study always to learn.....

Sheshnath Pandey: i agree with chandan...

Tariq Ali: To write....

Shashi Bhooshan : दोनों ज़रूरी हैं. आप नहीं पढ़ेंगे तो आपको कौन पढ़ेगा.लिखता तो दिन भर क्लर्क भी रहता है. हाँ कुछ लोग ज़रूर मानते हैं कि ज्यादा पढ़ने से मौलिकता का ह्रास होता है. हालांकि ऐसे मौलिक स्वांत:सुखाय, स्व पठिताय ही लिखते रहते हैं.

Gaurav Solanki: लिखना नि:संदेह ज्यादा जरूरी है. किसी लेखक को जब लगे कि वह जिन्दगी से पर्याप्त अनुभव नहीं पा सकता, तब वह जितना चाहे पढ़ सकता है और यह तो व्यक्तिगत निर्णय है कि आप अपने विषय कैसे पाते हैं. सबसे जरूरी तो मैं मानता हूं कि आप तभी पढ़ें जब उसमें मजा आ रहा है. सीखने के लिए पढ़ना तो बहुत बोझिल होता होगा. हां, अनजाने में आप कुछ सीख ही लेते हैं.

ऊपर शशिभूषण जी ने कुछ बेहद कमजोर तर्क दिए हैं. लिखता तो दिनभर क्लर्क भी रहता है, इसका क्या जवाब दिया जाए? इस भाषा में तो यह भी कहा जा सकता है कि वह दिन भर पढ़ता भी तो रहता है.

आप नहीं पढ़ेंगे तो आपको कौन पढ़ेगा, यह तरीका कि तुम मेरा पढ़ो, मैं तुम्हारा, यह उन लेखकों के लिए फायदेमंद है, जिन्हें कोई नहीं पढ़ता. ब्लॉग दुनिया इसी मंत्र से चल रही है. और स्वांत: सुखाय लिखना लेखन की सबसे मासूम फॉर्म है, इसे गाली की तरह न बोलें.

Gautam Rajrishi :असल समस्या तो यही है श्रीकांत जी...एकदम से लिखने वालों की बाढ़ आ गयी है और पढ़ने वाले इस बाढ़ में डूब गये हैं। तैरने के लिये हाथ-पैर मारें कि पढ़ने की जोहमत उठायें...?

Durgesh Singh: padhkar likhna aur anubhav se mili cheejon ko likhna do alag alag cheejein hain...bina padhe to shayad hi koi achha lekhan kar paye..kahin na kahin ham jo likhte hain usme padhe huye ka asar hota hai...lekin iska ye matlab kattai nahee hai ki aap kucch bhi padhte jaye..aur kucch bhi likhte jaye...agreed wd gaurav jab aur jo padhne ka man kare wo padhe..

Shashi Bhooshan: गौरव जी,एक होता है अनुभव दूसरा होता है जीवनानुभव. वे बातें भी हमारे अनुभव में आती हैं जिन्हें हम पढ़ते हैं, सुनते हैं इसे थोड़ा स्पष्ट कहें तो कह सकते हैं कि रंगमंच,फिल्मों आदि में हम देखते हैं....

फिर बारी आती है जीवनानुभवों की जिन्हें हम सीधे-सीधे जीते हैं या तनिक रूढ़ मुहावरे में कहें तो भोगते हैं. भोगा हुआ यथार्थ आज तक सिक्के की तरह चल रहा है...

अब जो आप कह रहे हैं उसे समझना इतना मुश्किल नहीं पर दुनिया मे गोर्की ही लेखक नहीं हुए जीवन जिनका विश्वविद्यालय था. ऐसे लेखक भी हुए किताबें जिनके मुख्य अनुभव थीं. जीवन तो पशु पक्षी भी जीते ही हैं(अब इसे चालू समझ में पशु पक्षियों का अपमान न समझ लें)सो लेखक मनुष्य भी जीता है और सीखता है.

हिंदी से उदाहरण लें तो धर्मवीर भारती ने अंधा युग महाभारत पढ़कर ही लिखा होगा. दिनकर की कविताओं में पढ़ा हुआ ही है. हजारी प्रसाद द्विवेदी के उपन्यास पढ़े हुए से ही आए हैं. थोड़ा तुलसी आदि में भी रुचि हो आपकी तो बताऊँ नाना पुराण निगमागम सम्मतं की ही उपज है उनकी कविताई.

पर आप जैसे विशुद्ध लेखकों की जो समस्या है उसी का आभास आपके किंचित चुप कराऊ तर्कों में झलकता रहता हैं. आप पत्रकारिता से संबंधित रहे हैं क्या आपने मार्क नहीं किया कि समकालीन हिंदी कहानियों का उपशीर्षक प्रधान होना पत्रकारिता से प्रेरित है?

किस लेखक का लेखन जीवनानुभव है किसका अनुभव आधारित यह पहचान लेना मुश्किल नहीं होता.

प्रेमचंद ने ज़ोर देकर कहा था कि अगर आप किसी विधा में लिखते हैं तो उसके विशेषज्ञ और अन्य विधाओं के श्रेष्ठ अध्येता बनें

अपने कमज़ोर तर्क के बारे में कहूँ कि उँगली किसी की ओर हो तो उँगली ही नहीं देखना चाहिए. तू मेरा पढ़ मैं तेरा पढूँ मेरा कहने का अभिप्राय ही नहीं हैं. पर लगता है आप ऐसे ही बैठकों में बतियाते होंगे.तू चुप मेरी सुन.बंधु,बोलने के लिए भी अच्छा श्रोता होना होता है. मैं यहाँ उदय प्रकाश जी की एक बात भी कहना चाहता हूँ कि लेखक के पास पढ़ने, सोचने और सोने का खूब वक्त होना चाहिए.

पढ़ना बड़ा ज़रूरी सीखना है. हम समकालीन मुहावरे सीखतें हैं,भाषा का समकालीन मिजाज़ पकड़ते हैं. तत्कालीन मुद्दों की तमीज़ हमें पढ़ने से ही आती है.अगर इसे आरोप न लें तो कहूँ कई कहानीकारों ने संघर्ष के दिनों में अनुवाद आदि से शिल्प भी सीखें हैं. मैं ऐसी तमाम कहानियों के बारे में बात कर सकता हूँ जो अनुभव से परंपरा की तरह आगे बढ़ीं हैं.

एक बात और विट ही सबकुछ नहीं होता. तर्क में तथ्य भी हों. और इतना मौलिक भी कोई नहीं होता कि सब अपने जीवन से ही सीख ले

Gaurav Solanki: शशिभूषण जी, आप कुछ अच्छा लिखिए. मुझे और लोगो को वह अच्छा लगेगा तो हम बिना उसके स्रोत जाने आपकी तारीफ करेंगे. आपकी दिक्कत यह है कि आप तर्क देने की बजाय पर्सनल होना पसंद करते हैं. कहानी लिखने के लिए अच्छा कहानीकार होना काम आता है, न कि अच्छे कहानीकारों के जीवन जानना और उनके उदाहरण देना. मेरे पास इस बहस का वक्त नहीं है. हमसे चिढ़िए मत, काम कीजिए. सब ठीक हो जाएगा. कुंठाएं भाप की तरह उड़ जाएंगी.

Shashi Bhooshan: गौरव जी, शायद आप निर्वैयक्तिक तर्क दे रहे हैं! शायद आप लेखक होने को सिर्फ़ कहानीकार होने के सीमित दायरे में ही देखते हैं अब तक.

खैर, आपको, लोगों को क्या अच्छा लगेगा, तारीफ़ें कितना सफल कहानीकार बना देंगी मुझे मैं नहीं सोचता. सोचना भी नहीं चाहता

मैं आपसे चिढ़ता हूँ यह आप ही बता रहे हैं मुझे. तद्भव, वागर्थ पढ़कर और अब कथादेश का इंतज़ार करते हुए मुझे खयाल ही नहीं आया कि आपको लेकर कुंठित हुआ जा सकता है. मैं जब अपके ब्लाग पर गया टिप्पणियाँ की, आपके दिए गए नंबरों पर फ़ोन लगाया तब भी मुझे कोई चिढ़ नहीं थी आपसे. पर आप कुछ तीखा सुनने का मन बना ही चुके हैं तो कहूँ जैसी मध्यवर्गीय प्रेम कहानियों में लिप्त हैं आप उससे टीवी सीर्यल लेखकों को ही कुंठा होगी.

मैं उन लोगों में हूँ जो वृहत हिंदी समाज का सदस्य मानते हैं खुद को. यह सदस्यता मैं लिखकर, पढ़कर, पढ़ाकर, हस्तक्षेप करके नवीनीकृत करता रहता हूँ. ईमानदारी से कहूँ कि अक्सर लिखने से ज्यादा दूसरी ज़रूरी ज़िम्मेदारियों और जवाबदेहियों में उलझा रहा पिछले सालों इसलिए अपने लिखने को करियर नहीं बना पाया. यह भी अच्छा ही हुआ. क्योंकि तब शायद पेट आपसे कुंठित हो जाने को उकसा भी देता. इसी के चलते हो सकता है गिनती मे कुछ कम कहानियाँ हों मेरे पास. पर इसको बताने की ज़रूरत भी नहीं शायद.

मैं काम ही करता हूँ बंधु सुबह के चार बजे से रात के बारह बजे तक.

आपको अपना बेहद सफल कहानीकार मानना मुबारक हो.

पर बंधु, बहस में कूदें तो तुनकमिजाज़ी छोड़ें और अपने कीमती वक्त की दुहाई देना भी मुल्तवी रखे.

यहाँ अपने देश में जो भी नमक हलाली करता है खाली नहीं है.

Udbhav Singh: गौरव जी और शशिभुषण जी, आपने विषय का सत्यानाश कर दिया है. चन्दन जी ने कितना स्पष्ट और सुथरा हुआ जबाव दिया है. चन्दन जी के उत्तर से सहमत हूँ.

Gaurav Solanki: वृहत हिन्दी समाज! :) वैसे मैं नहीं जानता था कि आप कहानियां लिखते हैं. मैंने यह नहीं कहा कि मैं बड़ा कहानीकार हूं. यह कैसे कह सकता हूं भला? बस यही कहा कि आप हम कुछ लोगों से चिढ़ते हैं. आपको मेरा पूरा बायोडाटा पता है, खूब खबर रखते हैं और उन पर टीवी आदि के गॉसिप और चुटकुले गढ़ने की क्षमता रखते हैं, ये सब बातें मेरे कुछ महत्वपूर्ण होने का अहसास तो दे ही रही हैं. :)

मैं आपके बारे में इसके अलावा कुछ नहीं जानता कि आप प्रतिक्रियाएं बहुत देते हैं इसलिए चाहकर भी पर्सनल कमेंट नहीं कर सकता. फेसबुक का वृहत हिन्दी समाज और उसके virtual celebrity आपको मुबारक. मुझमें चन्दन जितना धैर्य नहीं कि आपकी बातों का जवाब देता रहूं. एक सलाह है कि सिर्फ चार घंटे सोना स्वास्थ्य के लिए अच्छा नहीं. काम के घंटों को प्लीज थोड़ा कम कीजिए.

Shashi Bhooshan: अगर आप नहीं जानते कि मैं कहानीकार हूँ तो इसमें आपकी उम्र का दोष है. मान लीजिए कथादेश में आज आपकी कहानी छपी है मेरी पांच साल पहले छपी हो. लेकिन तब तो आप कुछ आगे गैरज़रूरी हो जानेवाली महत्वपूर्ण किताबें घोट रहे थे...अफ़सोस मुझसे अनभिज्ञता ज़ाहिर करने को जैसा अपना बड़प्पन मान रहे हैं आप तो फिर तो आप यह भी मानते होगे कि मैं आपसे उलझकर प्रसिद्ध हो रहा हूँ...

कल को आप यह भी सोच सकते हैं कि मेरा बायोडाटा रखनेवाला मेरी असहमति में ख्यात हो गया. पर मैं तो चाहता हूँ अगर आपके पास समकालीन कहानी की कोई समझ हो तो उससे मुझे चुनौती दें. ये अपनी प्रसिद्धि के खेलों में न भरमाये. वैसे आपका सोच ऊपर की बहस से काफ़ी कुछ उजागर हो गया है.

आपके लिए एक सुंदर शब्द है आत्ममुग्ध इसे समय निकालकर बूझ लेना. आप मेरे बारे में नहीं जानते इससे मुझे कोई हीन भावना नहीं. मैं आपको, आप जैसे अल्पवय चर्चित कथाकारों की महत्वाकांक्षाओं को समझता हूँ यह मेरे लिए बड़ी बात है. कहानी की दुनिया आप जितनी छोटी नहीं.हर वह कहानी महान नहीं होती जिस पर फिल्म बनती है अभी आपको यह जानना है.

बंधु आपके ही समय में अमरकांत और विनोद कुमार शुक्ल भी लिख रहे हैं इस पर भी निगाह दौड़ाओ तो कुछ स्वयंभूपना कम हो.

आपकी व्यस्तता जिस ओर खींच रही है उसे आप ही अप्रतिम सफलता मान सकते हैं.

रही बात चंदन की तो मैं इसे प्रवृत्ति की तरह देख रहा हूँ कि उनकी कुछ सफलताओं को आप लोग इसलिए भी बढ़कर चूम रहे हैं कि वैसा ही हो सकें. अपने इस अनुकरण को समझना. मैं चंदन को पहली कहानी से पढ़ रहा हूँ. चंदन को मेरी बातों का जवाब देना होता है यह मेरी बदतमीज़ी नहीं कोई पतला सेतु है जो आपने न देखा होगा.

अभी और मुस्कुराना सीखो भाई. गद्य का तंज कम होगा. पात्रों की टाइप्ड मन:स्थितियाँ सुलझ सकेंगी.

Shashi Bhooshan: गौरव जी, एक बहस मे मित्रता से कूद गए...कोई बात नहीं. कहानी ज़रूर लिखते रहना.

Shrikant Dubey : एक पंक्ति का यह सवाल जिस उम्मीद के साथ किया था, आप सब के अलग अलग दृष्टिकोण उसे पूरा भी किये. मुझे लगता है की यह एक ऐसी सब्जेक्टिव बात थी, जिस पर कोई भी राय अब्सोल्यूट नहीं हो सकती थी. (अगर हो सकती, तो शायद मैं भी अपने एक निष्कर्ष के साथ बैठा रहता और ये सवाल ही नहीं करता). लिहाजा, सबसे जरूरी ये था की हम हर एक बात से तर्कसंगत का चुनाव करते हुए आगे बढ़ते, बजाय व्यक्तिगत आरोप-प्रत्यारोप के.

प्रसंगशः - शशि और गौरव, दोनों से यह कहते हुए इस संवाद के कटु अनुभवों को भूल जाने की अपील करता हूँ, कि जरूरी नहीं कि रचनात्मकता से जुड़ी सारी नसीहतें दुनिया जाहाँ के बड़े नामों के उद्धरण या पुरानी नजीरों से ही ली जाएँ. बल्कि अपने समकालीन रचनाकारों की गलतियों से भी कुछ न कुछ सीखते जाने में कोई हर्ज नहीं है. अगर मैं आपसे बुरा लिखता हूँ, तो ये आपके लिए सेलिब्रेट करने वाली कोई बात नहीं होनी चाहिए, और ऐसे ही खुद के अच्छा लिख लेने पर किसी और को कमतर समझना भी बेमानी है. वास्तव में, ऐसी सकारात्मकता की उम्मीद हिंदी में और किसी भी पीढी नहीं की जा सकती थी. लेकिन हमारी पीढी, यकीनन, ऐसा करने के लिए सराही भी जा रही है.

@ गौरव : शशिभूषण 'फटा पैंट और एक दिन का प्रेम' जैसी एक शानदार कहानी के लेखक हैं, ज्ञानोदय के जिस अंक में ये कहानी आई थी, वो शायद मेरे पास मिल जाये. मैं खोजकर तुम्हे दूंगा, और तुम्हे इसे पढ़ना होगा.

Ram Sharma: sarkar ko namaskar

Gaurav Solanki :यार श्रीकांत, ये आदमी मेरी जिन्दगी और उसकी जरूरी-गैर जरूरी किताबों, उसकी महत्वाकांक्षाओं, उसकी टीवी सीरियलनुमा मध्यमवर्गीय प्रेम कहानियों, उनकी छपने की जगहों, उनके किरदारों और मेरी तथाकथित सफलता, आत्ममुग्धता में इतना इनवॉल्व क्यों है जैसे मेरी जीवनी लिखने की तैयारी हो रही हो? जब मैंने साफ कहा कि भाई, पर्सनल न हों. और श्रीमान शशिभूषण, यह मैं आखिरी बार कह रहा हूं कि न मैं चंदन की सफलताओं को चूम रहा हूं, न किसी और की. अपनी सीमाओं में रहना सीखिए. फेसबुक पर लिखने का अर्थ यह नहीं कि कुछ भी बक दिया जाए, आप जानते हैं कि आपकी प्रतिक्रिया भी तहलका में छपी थी. मैं आपका मित्र कभी नहीं था. ऐसे दावे मत कीजिए. फेसबुक पर आपकी फ्रेंड रिक्वेस्ट इसलिए स्वीकार की कि मुझे लगा कि आप मेरी कहानियां पसंद करते होंगे. वह गलतफहमी आपने दूर कर दी है. यदि कोई ईश्वर है तो वह बेहतर जानता होगा कि आपने ऐसे अनजान आदमी को मित्रता का निवेदन क्यों भेजा जो आत्ममुग्ध है और जिसकी कहानियों से टीवी सीरियल वालों को ही चिढ़ हो सकती है. आपका वृहत हिन्दी समाज आपको मुबारक. आप लड़ाकू औरतों की तरह की बातें करने लगे हैं और अब कुछ भी बोल सकते हैं. मुझे अपना सम्मान प्यारा है, इसलिए माफ कीजिए. भड़ास निकालने के लिए किसी और को पकड़िए. आपने मेरे व्यक्तिगत जीवन पर एक और भी टिप्पणी की तो मेरी भाषा इतनी शालीन भी नहीं रहेगी.

Anurag Singh: shrikant ji ka prashn achha hai.padhna jaruri hai. chandan jaise lekhak hi bina padhe likhne ki wakalat karte hai. gaurav aur shashi ko am sahamt se bat karni chahiye. koi narajgi na rakhe. ap logo ne nahak hi chandan jaiso ko itna mahtaw diya hai.

Shashi Bhooshan: अगर मैं आपसे बुरा लिखता हूँ, तो ये आपके लिए सेलिब्रेट करने वाली कोई बात नहीं होनी चाहिए, और ऐसे ही खुद के अच्छा लिख लेने पर किसी और को कमतर समझना भी बेमानी है-श्रीकांत आपकी यह बात वाकई गौर करने लायक है.

गौरव जी, आप मेरे लिए क़तई अजनबी नहीं थे. आगे भी नहीं होंगे.आप कहानीकार हैं, कवि हैं, ब्लागर है, फेसबुक में हैं, तहलका में थे और मैं आपको जानता हूँ तो इसका यह मतलब नहीं कि मैं षडयंत्रकारी हूँ. लोग आपको जानें यह ऐसे ही उद्यम हैं.

तहलका में मेरी प्रतिक्रिया छपी इससे मैं धन्य हूँ. इसे फोन पर साथी, कथाकार मनोज पांडेय ने सुनाया था. छपा हुआ सचमुच देखने का सौभाग्य मुझे नहीं ही मिला. अंतिम मिलावटी पंक्ति में जिस तरह पूरी बात को चंदन के खिलाफ़ उलट दिया गया है उससे हतप्रभ भी था मैं. एक पत्र के साथ इतना खिलवाड़ तो फिर...

आप चिंता न करें मैं बिल्कुल दुखी नहीं हूं कि आपने मुझसे अपने अर्थों में पीछा छुड़ा लिया.बात पर बात थी, नये माध्यम की उत्सुकता भी वरना मुझे दोस्तों की कमी नहीं रही कभी....

आप गौर से पढ़िए मैंने कोई व्यक्तिगत आरोप नहीं लगाए हैं आप पर. और आप खुद को इतना विनम्र प्रोजेक्ट न करें. आपकी यह शुरुआत-श्रीकांत यार ये आदमी...क्या सचमुच विनम्र है? यह छुपा हुआ गंदा संबोधन है. आपके कमेंट के बाद का मेरा कमेंट मैंने जिन तर्कों के साथ रखा है उसके जवाब में आपने अच्छी कहानियाँ लिखने की सलाह दे दी थी यह क्या है? यह भी सहिष्णुता की मिसाल ही कही जानी चाहिए ?..

मैं फिर कहता हूँ कि मेरी आपसे कोई चिढ़ नहीं. मेरे सामने साहित्यकारों की एक सचमुच की बड़ी दुनिया है.मुझे आपकी अच्छी कहानी से कोई कुंठा नहीं. मैं लगभग रोज़ अच्छी कहानियाँ पढ़ता हूँ.चंदन को भी बेवजह तर्क में आप ही लाए थे. ऐसी तार्किक योजनाएँ समझ लेना मेरे लिए कभी मुश्किल नहीं रहा.

अब आप अप्रकट रूप से अपशब्द लिखने की धमकी दे रहे हैं. तो लिखते रहना. जब तर्क चुक जाते हैं तो गालियाँ ही बचतीं हैं. यह मेरा आखिरी कमेंट है.इस लिहाज से आपको मजा भी बहुत आ सकेगा. अच्छी-अच्छी गालियाँ लिखना.

मैं फिर आपसे पूछता हूँ कि कहानियों की छोड़कर इस पर सोचें कि राहुल सांकृत्यायन और नामवर सिंह भी लेखक हैं. इन्होंने कितना पढ़ा होगा...? आप सचमुच कब सोचेंगे कि कविता या कहानी लिखना ही लेखक होना नहीं. बाक़ी कई ज़रूरी विधाएँ तो सिर्फ़ पढ़ने पर ही निर्भर करती है.

और आप मुझसे परेशान न हों. मुझे पता है किस की जीवनी लिखी जानी चाहिए.किसकी पढ़नी चाहिए. ये मित्रवत सहमति और विरोध चलते रहते हैं. ये मेरे लेखन के प्रस्थान बिंदु नहीं.

श्रीकांत, मैं विश्वास दिलाता हूँ कि तर्कों की कटुता मैं याद नहीं रखता. मेरे मन में सचमुच कोई मैल नहीं है गौरव जी को लेकर. कहा ही कि कथादेश का इंतज़ार है. कहानी जमी तो अपनी संतुष्टि के लिए उस पर सोचूँगा. नोट्स लूँगा. कथादेश में ही प्रभु जोशी के चित्रों के लिए भी मेरा इंतज़ार है. जिनके हवाले से भी मैंने अजय ब्रह्मात्मज जी के यहां गौरव से कुछ बातें की थीं. मेरा कोट करना लेखकों के प्रति मेरे सम्मान को ही दर्शाता है. कुछ आतुर मित्रताओं को बता दूँ कि मैं चंदन को भी कोट करता हूँ.

गौरव,आप से मुझे कोई चिढ़ नहीं. इसे जितनी बार में समझ लें यहाँ उतनी बार लिख दूँ.

मस्त रहें बंधु. जहाँ और भी है अपने सिवा...मैं अपनी तरफ़ से आपको सम्पर्क रखने न रखने की ससम्मान छूट देता हूँ. पर बात करना चाहें तो मुझमे आपके और अपने महान तर्को का मोह नहीं दिखेगा.

श्रीकांत सचमुच काफ़ी बातें हो सकीं. जिसे जो अच्छा लगेगा चुन लेगा.

आपके स्नेह का आभार. पर वह कहानी कथादेश के प्रेम कहानी विशेषांक में थी.

एक बार फिर... अब गौरव जी आप पर ही है मैं किसी बात का जवाब नहीं दूँगा.

Gaurav Solank: i ‎:-)

Kunal Singh: likhna aur padhna do nitant alag alag kriyaen hain. padhne ke liye likhna aur likhne ke liye padhna teesri aur chauthi kriyaen hain.

Anurag Singh :shashi ji se sahamat hu.yah puri bat prayojit hai. cbahas kahi pahunchati hai hi nahi aur chandan ka bar bar jikr hua hai.mujhe kisi se shikayat nahi hai par aisi bahaso ko bhi aj ke pidhi ke log apni charcha ke lie pryog krte hai, yah kharab bat hai.chandan ne aur kunal ne dono ne padhne ki bat ko kharij kiya hai,aur ye log hi nai pidi ke main log hai.chandan ko nahi padhne ka nuksan tab malum hoga jab unki bambaia filmi kahani revolver ki kadi samichha hogi.padhte hote to shayd yah kahani nahi likhte. bhulna likhte hue rivolvr kaise likh diya, yah girta hua graph ka suchak hai.apni ray me padhna adhik importnt hai.

Shrikant Dubey : आप सभी मित्रों का इस बहस में हिस्सेदारी के लिए शुक्रिया. साथ में एक छोटी सी गुजारिश भी, कि अतार्किक अथवा व्यक्तिगत आपत्तियों के निपटारे के लिए संचार के व्यक्तिगत साधनों का इस्तेमाल करें (उम्मीद है, कि जो ऐसा नहीं कर रहे उन्हें मेरी इस बात से कोई ऐतराज़ भी नहीं होगा).

@ शशि : हाँ, कहानी भर याद रह गयी थी, और फिर तो वो कथादेश ही होगी मेरे पास. गौरव का स्माइली एक्स्प्रेसन शायद इसी बात का इशारा है कि फिलहाल शिकवे गिले दूर..

@ अनुराग सिंह : कुणाल और चन्दन को जितना जानता हूँ, दोनों ही (लिखने को प्राथमिक काम मानते हुए भी) लिखने से कई गुना ज्यादा पढ़ने वाले रहे हैं. लेकिन हो सकता है कि मेरा प्रत्यक्ष दर्शन भी एक भ्रम हो. और अगर ऐसा है तो आपके बारे में मेरी क्यूरोसिटी बढ़ गयी है, क्यूंकि ऐसा आरोप करते हुए आप कम से कम इनसे तो ज्यादा ही पढ़े और पढ़ते होंगे. फेसबुक की सूचना के मुताबिक़ आप लखनऊ में रहते हैं. मैं फिलहाल दिल्ली में हूँ, अगले महीने लखनऊ भी आना है कुछ दिनों के लिए. हो सके तो कहीं मिलें मुझसे. चाहें तो अपनी बाकी डीटेल्स मुझे ई मेल कर सकते हैं - shrikant.gkp@gmail.com

Ashok Kumar Pandey: दोनों बेहद ज़रूरी हैं…एक हद तक एक दूसरे के पूरक

Kumar Nishant Shrivastava: I think , more important to do his job... which includes both reading and writting...

Shashank Sinha if ur thoughts are influenced .. u might right a good book but not a master piece .. so writing would let the writer show what he thinks ..and if he got a point no one needs a reference material... so the plain old way ,write ..read , and improve

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गुरुवार, 26 जनवरी 2012

यह कहानी-समय मूल्यों के द्वंद्व, मूल्यों के विघटन और उनके संकट का समय है: कैलास चंद्र

कहानी और व्यंग्य के क्षेत्र में कैलास चंद्र जी का नाम जाना माना है। पिछले तकरीबन तीस वर्षों से वे लगातार कहानियाँ-व्यंग्य लिख रहे हैं। उनकी कहानी तलाश अस्सी के दशक में कमलेश्वर द्वारा संपादित सारिका में अखिल भारतीय कहानी प्रतियोगिता में पुरस्कृत हुई थी तबसे। कैलास चंद्र जी की कहानियाँ देश की लगभग सभी महत्वपूर्ण पत्रिकाओं- हंस, पहल, आजकल, पक्षधर, वर्तमान साहित्य आदि में प्रकाशित होती रहीं। पिछले साल उनकी कहानी अँधेरे में सुगंध को वर्तमान साहित्य पत्रिका द्वारा कमलेश्वर कथा सम्मान दिया गया। कहानी हारमोनियम के एवज में का नाट्य रूपांतर देवेंद्र राज अंकुर राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के लिए कर चुके हैं। इसी नाम से कैलास जी का पहला कहानी संग्रह शिल्पायन से छप चुका है साथ ही एक व्यंग्य संग्रह नंगो का लज्जा प्रस्ताव भी प्रकाशित है। उनके कई कहानी संग्रह और उपन्यास प्रकाशन की राह पर हैं। कैलास जी ने कहानी में शोर शराबों से अलग अपनी स्वतंत्र विनम्र पहचान बनायी। उनके कहानियों के विषय में जितनी विविधता है वह कई बड़े माने जानेवाले कहानीकारों में भी नहीं है। शहर से लेकर धुर गाँव तक उनके पात्र और कथ्य फैले हैं। हमारे समय के सर्वाधिक प्रसिद्ध कहानीकार उदय प्रकाश ने एक बार कहा था कि कैलास चंद्र बड़े ही संकोची हैं। वे अलक्षित रह जाते हैं तो इसकी एक बड़ी वजह यह संकोच ही है। वे अपनी हर कहानी पहली कहानी की सी तैयारी और मासूमियत से लिखते हैं। मैं भी उनकी निरंतर श्रेष्ठ सर्जना का कायल हूँ। कैलास चंद्र की कुछ अत्यंत प्रसिद्ध कहानियाँ हैं- हारमोनियम के एवज में, उन्होंने उसका चयन नहीं किया तथा डूब, स्याही के धब्बे और मनोहर माटसाब। हमारे समय के महत्वपूर्ण कथा आलोचक जय प्रकाश जी के शब्दों में- कैलास चंद्र की किस्सागोई में सादगी है, धीरज के साथ कहानी कहने और कथ्य को अंडरटोन में सँजोने का सहज कौशल है।...भाषा में सहजता है, शिल्प और संघटन में भी प्रायः यथार्थवादी अकृत्रिमता है। जो कहानी को पुराने ढंग की भाव भंगिमा देती है। लेकिन इसका कथ्य कोरमकोर समकालीन है। (कथादेश, सितंबर2006, पृष्ठ-45-46) यहाँ प्रस्तुत है मेरे दस सवालों के कैलास चंद्र जी द्वारा दिये गये जवाब।

सवाल

1- समकालीन हिंदी कहानी यानी पिछले पंद्रह से बीस वर्षों की कहानी में किन मूल्यों को प्रमुखता प्राप्त है? सफलता और सार्थकता के पैमाने में इसे आप कहाँ पाते हैं ?

2- यह कहानी जिन मूल्यों या पिछले कई दशक से चल रहे विमर्शों को स्वर दे रही है उनकी केन्द्रीयता में विगत कहानी आंदोलनों की क्या भूमिका है?

3- क्या समकालीन हिंदी कहानी में मूल्यों का द्वंद्व दिखाई पड़ता है? यदि हाँ तो कहानी की प्रभविष्णुता, पठनीयता और पाठकीय स्वीकार्यता में यह कितना निर्णायक या मुख्य है? कहानीकार इसे कितना महत्व दे पा रहे हैं?

4- समकालीन हिंदी कहानी में पुराने मूल्यों के प्रति नकार तथा नये मूल्यों के प्रति स्वीकार कितना है? मूल्यों के द्वंद्व का स्वरूप कैसा है? क्या यह कहानी किन्हीं नये मूल्यों को गढ़ पा रही है?

5- परंपरा, नैतिकता, परिवार, खेती-किसानी, मज़दूरी, प्रगतिशीलता, विचारधारा या राजनीति, प्रतिरोध और संघंर्ष, लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता, राष्ट्रीयता, भूमंडलीकरण, उत्तर आधुनिकता और बाज़ारवाद आदि के संबंध में समकालीन हिंदी कहानी का रवैया कैसा है? क्या इन पर निर्भर किन्हीं मूल्यों की इस कहानी में उपेक्षा हो रही है ?

6- समकालीन हिंदी कहानी के विकास में कहानी केन्द्रित विमर्शों यथा-स्त्री, दलित, किसान-मजदूर, युवा लेखन और प्रेम आदि की क्या जगह है?

7- विमर्शों ने समकालीन हिंदी कहानी में किसी व्यापक कहानी आंदोलन की ज़रूरत और संभावना पर क्या प्रभाव डाला है? क्या यह कहना उचित है कि सक्रिय आंदोलनों के अभाव के चलते विमर्श पनपे हैं? विमर्शों पर बाज़ार का प्रभाव किस हद तक है?

8- क्या समकालीन हिंदी कहानी विमर्शों को ध्यान में रखकर भी लिखीं जा रही है? विमर्श केंन्द्रित कहानियों को किस तरह पढ़ा जाना चाहिए? आपकी नज़र में विमर्शों का सच क्या है?

9- क्या ऐसे विमर्श भी है जिन्हें समकालीन हिंदी कहानी ने पैदा किए?

10- कहानी के नज़रिए से विमर्शों का भविष्य कैसा है? साथ ही विमर्श आधारित कहानियों का भविष्य क्या होगा?

11- आपके कुछ पसंदीदा कहानीकार और कहानियाँ जिनमें मूल्यों का द्वंद्व दिखाई पड़ता है। जिन्हें विमर्शों के भीतर का अथवा विमर्शों के पार हमारे समय-समाज का सच समझने के लिए अनिवार्य रूप से पढ़ा जाना चाहिए।

12- उपर्युक्त प्रश्नों के अतिरिक्त भी यदि आप विमर्शों और मूल्यों से संबंधित समकालीन कहानी पर विशिष्ट अभिमत रखना चाहें तो मुझे बहुत खुशी होगी।

कथाकार कैलास चंद्र के जवाब

1- वैसे तो एक-डेढ़ दशक का समय समाज और साहित्य के संदर्भ में अहम् महत्व नहीं रखता और रुढ़ियाँ तथा परम्परा बनने में बहुत समय लगता है। मूल्य भी उसी गति और काल-क्रम से अपना महत्व स्थापित करते हैं। तो यह द्वंद्व तो हर काल-खण्ड में मौजूद है। वस्तुतः पिछला एक-डेढ़ दशक मूल्यों के द्वंद्व का कम मूल्यों के विघटन और संकट का ज्यादा रहा है। पिछली आधी सदी से तकनीक ने जिस कदर तेज़ी से विकास और उन्नति की और जीवन में जो गहरा दखल दिया ऐसी द्रुतता विगत किसी काल में दिखाई नहीं पड़ती है। पिछली सदी के उत्तरार्द्ध और नयी सदी के प्रवेश द्वार के संधि-स्थल पर आप खड़े होकर काल के तेज़ प्रवाह को देखें तो आश्चर्य चकित रह जायेंगे। बाज़ार और पूंजी का खेल, तकनीक का उच्चतम विेकास, सूचना क्रांति और विलास के बढ़ते साधनों ने आदमी के जीवन को मथ कर रख दिया, खास तौर से मध्यम वर्ग को। भले ही मध्यम वर्ग को सुविधायें मिलीं हों पर साथ-साथ एक भयानक गला काट सामाजिक स्पर्द्धा ने भी जन्म ले लिया। तेज़ी से बढ़ती तकनीक की घुसपैठ से सामंजस्य बैठाने के लिये नये मूल्य भी स्थापित हुए और पुरातन मूल्यों ने धूल चाटी। परिवार का विघटन तो पहले से ही हो रहा था। पर इसमें अब तेज़ी गयी। व्यक्तिवादिता हद दर्जें की बढ़ी और वैवाहिक सम्बन्धों में जो पहले जकड़ और निकटता का स्पर्श था वह टूट गया।

देह की आजादी ने सारी मर्यादाएँ और शुचितायें तिरोहित कर दीं। पैसे ने जो भयावह चकाचौंध लोगों की आंखों में पैदा की उसके सामने सारे सम्बन्ध और रिश्ते फीके पड़ गये। बाज़ारवाद ऐसा हावी हुआ कि उसने जीवन में दखल देना शुरू कर दिया। गलाकाट प्रतिस्पर्द्धा ने रिश्तों की गरमाहट में एक शून्य पैदा कर दिया। कभी जो भविष्य डराता था अब वर्तमान डराने लगा। युवकों के सामने रोज़गार की चिंता के साथ अपरिचय की धुंध का साया भी लहराया। ऐसा लगा जैसे युवक माहौल से तालमेल नहीं बैठा पा रहे हैं। उसके सामने कुछ मानदण्ड हैं पर वे आज की आपाधापी में फिट नहीं बैठ पा रहे हैं। लड़की को घर में ही सीमित रखने का जो डर था विशेष रुप से गावों और कस्बों में वह डर भी खत्म हुआ। उन्होंने आफिसों में भी शिद्दत से काम करना शुरू कर दिया। यद्यपि आर्थिक रुप से परिवार को मदद मिली। लड़कियों ने वही करना शुरू कर दिया जो लड़के करते है। विदेश में रोज़गार ढूढ़ने और वहाँ जाकर रहने का क्रेज बढ़ा। लेकिन असफलताओं से उनमें हीन भावना भी उपजी। समाज में खुद को स्थापित करने के लिए पाखण्ड का सहारा लेकर बड़बोलापन बढ़ा।

घूमन्तु परिवारों के सामाजिक जीवन पर भी परिवर्तन आये। उस समाज की कुरीतियों पर भी प्रहार हुए और उसके विरोध में समाज की ही कोई औरत उठ खड़ी हुई। टीवी की घरों में बहुत ज्यादा घुसपैठ ने यौन शुचिता पर प्रश्नचिन्ह लगाने शुरू कर दिये। साम्प्रदायिकता ने भी अपने मूल्य खड़े किये और नये ढंग के संस्कार अस्तित्व में आये। आतंकवाद ने एक मजहब विशेष को पीछे ला दिया और समाज में संदेह के नये ठौर बनने प्रारम्भ हो गये। समाज को चारों ओर से चुनौतियाँ मिलनी शुरू हो गईं। मर्यादाएँ और पुराने मूल्य टूट गये। घर-परिवार में व्यक्ति का मूल्य उसकी उपयोगिता से आँका जाने लगा। ऐसा नहीं था कि पहले आर्थिक पक्ष प्रबल नही था और मूल्यांकन व्यक्ति के आर्थिक सरोकारों से ही मापा जाता था। पर अब के दौर में वह जिस आक्रामकता और प्रचण्डता से आया उसकी मिसाल मिलनी मुश्किल है। गाँव का युवक शहर आया और बड़ा अधिकारी बन गया तो गाँव के सब रिश्ते ही भूल गया। भटकाव के मंजरों ने पूरी शिद्दत से प्रवेश किया। गाँव के भोले-भाले मन ने शहर की फिज़ा में ऐसी करवट ली कि वह आडम्बर और झूठ में घिरता चला गया।

इसलिए कहना चाहिए कि यह कहानी-समय मूल्यों के द्वंद्व के साथ-साथ मूल्यों के विघटन और भयानक संकट का समय है। इस बीच जो कहानियाँ सामने आईं उनमें मूल्यों के द्वंद्व और विघटन का चित्रण बहुत उद्दामता से अत्यंत सफलता पूर्वक किया गया है। कहानियों में गाँव भी नहीं छूटे हैं। बाज़ारवाद ने गाँव के तटबंधों को भी छुआ है। शहरों की वारदातों और आदमी के कमीनेपन ने गाँवों में भी अपनी जगह बना ली है। हिन्दी कहानी ने इस ओर भी दृष्टिपात किया है। मैं कहूँगा कि यह हिन्दी कहानी का सबसे बढ़िया और सार्थक काल है। हिन्दी कहानी ने इतने आयाम उठाये हैं कि लगता है कि कोई बात छूटी नहीं है।

2- इसमे कोई दो राय नहीं हो सकती कि कहानी अपने उन्ही मूल्यों को स्वर दे रही है जिनकेा रचनाकार ने भोगा या अनुभव किया है। अभिव्यक्ति ने एक खरापन पाया है और जो लेखक ने कहानी में कहा पूरे बेलागपन से कहा। ऐसी कई कहानियाँ उदाहरण के रुप में प्रस्तुत की जा सकती है। इसमें भी कोई संदेह नहीं है कि कहानी ने एक बहुत बड़ी संख्या में पाठकों के मन को झकझोरा है। पाठक बहुत अधिक सचेत हुआ है। कहानीकार ने उन सत्यों ओर मूल्यों को खोजा और उद्घाटित किया है जो बिना सर्जना के देखना संभव ही नही था। कहानी में एक कोई रीति नहीं बनी। यह कहना ज्यादा सही होगा कि कहानी ने अपने को दोहराया नहीं। निरंतर आगे ही बढ़ती रही अपनी पूरी ऊर्जा और शक्ति के साथ। ऐसी-ऐसी बेचैन कर देने वाली कहानियाँ इस दौरान लिखी गयी कि आपकी रातों की नींद छीन ले गयी।

जैसा कि मैं समझता हूँ कहानी से विमर्श जन्म लेते हैं कि कोई कहानी विमर्शों को स्वर देती है। विमर्शों के केन्द्र में कहानी ही होती है। जंहा तक विमर्शां की बात है तो विमर्श बौद्धिक विलास से अधिक कुछ नहीं होते हैं। विमर्श तो तब चलते हैं जब कहानी किसी विश्वसनीयता के स्तर को हासिल कर लेती है। विमर्श तो तभी चलेंगे जब कहानी में कुछ कहने को होगा। स्वतंत्र रुप से विमर्शों का तो कोई औचित्य है और कोई अर्थ ही। कहानी जब एक स्तर अख्तियार कर लेती है उस संदर्भ में विमर्श चलते हैं। कहानी विमर्शों के पीछे नहीं चलती विमर्श कहानी के पीछे उसके आस-पास चलते हैं।

मैं समझता हूँ कि कहानी के विकास में कहानी आंदोलनों की भूमिका नगण्य है। कहानी के आंदोलन चालाक संपादकों और चुके हुए कहानीकारों का साहित्य में अपना स्थान निश्चित कर लेने का एक चलाया गया सोचा-समझा उपक्रम मात्र होता है। इसलिए मैं कहता हूँ कि ये आंदोलन कहीं कहानी को प्रभावित नहीं करते। हाँ इतना अवश्य है कि इन आंदोलनों के पीछे जो लेखक-संपादक होते हैं उनके पीछे कुछ लेखकों की भीड़ अवश्य लग जाती है खास तौर से नये कहानीकारों की। ये हल्ला बोल आंदोलन होते हैं और कहानी या अन्य किसी विधा को किसी भी रुप में प्रभावित नहीं करते। इस वजह से कहानी की केन्द्रीयता में इनकी भूमिका को केवल इस दृष्टि से देखा जाना चाहिए कि इन आंदोलनों से सन्नाटा टूटता रहता है। ये कथित आंदोलन खेमेबाजी को जन्म देते हैं। क्योंकि यही इनका मंतव्य होता है। कहानी अपनी मौलिकता में आगे विस्तार पाती है और अपने पाँव जमाती चलती है। लेखकों की एक जमात जो चुपचाप रचना में रत रहती है उनके भीतर ये आंदोलन अवश्य हीन भावना पैदा करने का प्रयास करते हैं। क्योंकि इन आंदोलनों की वजह से कुछ कहानीकार चर्चित होते रहते हैं।

दरअस्ल इस तरह के कहानी आंदोलन कतिपय लेखकों द्वारा पुराने लेखकों से अलग कुछ नया करने और बताने और इस विधा में धाक जमाने के उद्देश्य से शुरू किये जाते हैं। गुटबाजी को बढ़ाने के लिये भी आंदोलन प्रारम्भ किये जाते है। उदाहरण के लिये कमलेश्वर, राजेन्द्र यादव और मोहन राकेश ने खुद को नया कहानीकार बताने के लिये योजनाब़द्ध तरीके से नयी कहानी आंदोलन चलाया। इससे तो मोहन राकेश काफी हद तक दूर ही रहे। पर बाकी दो ने अपने आप को कहानी विधा में स्थापित कर लिया। कमलेश्वर जब तक सारिका के संपादक रहे उन्होंने समान्तर कहानी आंदोलन को हवा दी। ऐसी कहानी जो जीवन के समान्तर चले। जो उस आंदोलन के दौरान सारिका में नहीं छपे तो उनकी कहानी भी जीवन के समान्तर ही चल रही थी ऊपर या दायें-बायें नहीं। इसका नतीज़ा यह हुआ कि कमलेश्वर के साथ कहानी लेखकों का एक बड़ा तबका जुड़ गया और लगा कि कहानी केवल सारिका में ही दिख रही है। जब कि उस समय श्रीपत राय कहानी पत्रिका निकाल रहे थे और भी पत्रिकाएँ निकल रही थीं और उनमें छपी कहानियाँ जीवन के दस्तावेज़ के रुप में जानी जाती हैं।

इन आंदोलनों का सामयिक महत्व केवल इतना रहा कि कहानी चर्चा के केन्द्र में बनी रही। पर इन आंदोलनों के परिप्रेक्ष्य में तो कहानी का विकास हुआ और उनसे कोई नयी बात निकली। कहानी जीवन की धड़कनों से निकलती है किसी कहानी आंदोलन से नहीं।

3- समकालीन कहानी में मूल्यों का द्वंद्व स्पष्ट दिखाई पड़ता है। यही बात कहानी को विश्वसनीयता प्रदान करती है। क्योंकि कहानी केवल नेरेशन नहीं है। उसका महत्व इसी में है कि समाज में जो मूल्य दिखाई पड़ रहे हैं और जो नहीं भी दिखाई पड़ रहे हैं उनके बीच से रास्ता खोजे और उनको दिखाये। यह कई स्तर पर और कई तरीकों से होता है। मैं कहूँगा कि इस वजह से कहानी का विन्यास संश्लिष्ट हुआ है। जैसे आप साम्प्रदायिकता को ही लें तो अब वह सीधे-सीधे नहीं दिखाई पड़ती है। घृणा की जाने कितनी परतें उसमें चढ़ी होती हैं और इतने सूक्ष्म रुप में कि लेखक को कहानी में बड़ी मशक्कत करनी पड़ती है। अब हर कोई धर्मनिरपेक्षता का ढोल लटकाये तो घूमता नहीं है कि वह पग-पग पर बताये कि वह ऐसी मानसिकता को पसंद नहीं करता है। पर सरलता में भी ऐसी परिस्थितियों में पात्र जिस तरह रियेक्ट करते हैं वही कहानी को एक ओर सफल और दूसरी ओर सतही बनाते हैं। कहना होगा इधर हाल के वर्षों में इस विषय पर जितनी कहानियाँ लिखी गयीं उनमें तो बड़बोलापन था और जबरन थोपी गयी कोई आईडियालॉजी। कहानी सीधे जीवन से निकल कर आई और अपना प्रभाव छोड़ गयी। इसी तरह प्रेम कहानियों को भी लिया जा सकता है। वह परम्परागत प्रेम अब दिखाई नहीं पड़ता है। इससे जीवन का कर्म विरत नहीं हुआ है बल्कि उसके बीच ही प्रेम खोजने की कवायद बड़ी शिद्दत से की गयी है। कहीं वर्षों के विवाहित जीवन में ही प्रेम खोजने की फितरत की गयी है। इसी के बीच से रिश्तों मे पड़ी ठण्डक को उकेरा गया है। बेरोज़गारी और अर्थहीनता के बीच प्रेम की निरतंर खोज की गयी है और दायित्वों को एक नयी भाषा दी गयी है। पुराने प्रेम प्रसंगों को नये अर्थ देकर उनको समकालीन समय से जोड़ने की कोशिश पुरअसर तरीके से हुई है। इसीलिए लेखकों ने अपना एक बड़ा पाठक वर्ग कहानी की विश्वसनीयता के आधार पर तैयार कर लिया है। पाठकों को लगता है कि कहानी उनके बीच से निकल कर रही है। किसी लेखक को पाठक ही सार्थक बनाते हैं। कोई समालोचक कदाचित् ही यह काम कर सकता है। मैं कहूँगा कि आज कहानी की स्वीकार्यता पाठकों के बीच बढ़ी है। जीवन के विविध प्रसंगों को एक आनुपातिक महत्व और एक आब्जैक्टिव दृष्टि देकर कहानी ने पठनीयता के पुराने सब रिकार्ड ध्वस्त किये है। कुछ कहानियाँ विन्यास की दृष्टि से कमज़ोर कही जा सकती हैं पर अभिव्यक्ति और सम्प्रेषण के मायने में उनमें कोई कमी नज़र नहीं आती।

4- मूल्यों के स्वीकार और नकार का यह द्वंद्व समाज में हमेशा चलता रहता है। कहानी भी इस द्वंद्व से अछूती नहीं रह सकती है। समाज में जिस तेज़ी से चीज़ें बदलतीं हैं उतनी तेज़ी से सोच को बदलने में समय लगता है। यह समय तो बहुत तेज़ी का है। तकनीक ने जिस तेज़ रफ्तार से सब कुछ बदल कर रख दिया उसको स्वीकार करने में वक्त लग रहा है। जीवन में सुविधाओं और साधनों का जिस तरह बहाव आया हुआ है, उपभोक्ता सामग्री ने बिना वजह जिस तरह से जीवन में दस्तक देकर घुसपैठ की है, बाज़ार ने जिस अंदाज़ में उत्पाद को अपरिहार्य बना दिया है उससे जो तनाव पैदा हुए हैं कहानी ने उन सब को समेटने और एक नयी भाषा गढ़ने में अपने को अक्षम नहीं पाया है। नये सोच को आधार भूमि प्रदान की है। जीवन ने एक नयी करवट ली है। फिर भी पुराने मूल्यों का एकदम नकार भी नहीं दिखाई देता है। एक सामंजस्य बैठाने की कोशिश भी है। हालांकि कुछ कहानियाँ हैं जिन्हें हम एकदम बदलाव की कहानियाँ कह सकते हैं जिनमें समय के अनुरुप बदले हुए रिश्तों की कहानियाँ कह सकते हैं पर ऐसी कहानियों की संख्या ज्यादा नहीं है। कहानियों में इसलिए नये और पुराने मूल्यों का द्वंद्व कहानी की आंतरिकता में दिखाई पड़ता है। भीतर से कहानियों का विन्यास इस बात की ही पुष्टि करता है। एक तो रोज़गार और कैरियर को लेकर जो जद्दोजहद इधर कहानियों में दिखाई पडती है उसमें यह द्वंद्व उभर कर सामने आया है। यौन-शुचिता का जो मानदण्ड समाज ने स्थापित किया था वह बुरी तरह भंग हुआ है। रिश्तों का जो लिहाज हुआ करता था वह टूटा है। पैसा कमाने की हवस में यह द्वंद्व खासा दिखाई पड़ता है। औरतें जो पहले निरीह थीं वे भी अब पुरानी रुढ़ियों के सामने सिर झुकाने को तैयार नहीं हैं। दलित स्त्रियाँ अपनी जाति के दस्तूरों के खिलाफ खड़ी हो रही हैं।

5- उपर्युक्त के प्रति कहानी का रवैया सकारात्मक है। इनमें से किसी के प्रति कहानी का उपेक्षा भाव नहीं है। इनको कहानी ने नया आधार और भाव-भूमि प्रदान की है। रुढ़ियों को तोड़ने का काम कहानी कर रही है। एक नया मानववाद कहानी में उभर कर रहा है। जो कहानी में पहले नहीं था वह भाव-स्तर उठ कर सामने आया है। जाति के बंधन भले ही पूरी तरह टूटे हों पर उसके प्रति नज़रिया में भारी परिवर्तन कहानी में दृष्टिगोचर होता है। जो नयापन कहानी में आया है वह वस्तुगत होकर उभर कर आया है। सापेक्ष कुछ भी नहीं है। जो कुछ है वह यथार्थ के स्तर पर है। कहानी में भावुकता कम हुई है और दृष्टिकोण एकांगी होकर बहुआयामी हुआ है। मूल्यों की उपेक्षा नहीं स्पष्ट द्वंद्व दिखाई पड़ता है। राष्ट्रीयता का वह नज़रिया नहीं हैं जैसा कि जाना जाता है। पर देश से प्यार है यह मूल्य कई रुपों में प्रकट हुआ है।

यद्यपि बाज़ारवाद और भूमण्डलीकरण पर ज्यादा तादाद में कहानियाँ नहीं लिखी गयी हैं पर जो मौजूद हैं वे जबरदस्त हैं। आज के संदर्भ में राष्ट्रीयता एक गैरजरूरी शब्द है। इसलिए इस विषय पर सीधे कोई कहानी नहीं लिखी गयी है। हाँ राष्ट्र-प्रेम या देशप्रेम पर लिखी कहानियाँ मिल जाएँगी एक हल्की छौंक के साथ। उत्तर आधुनिकता शब्द ही छल पूर्ण है और विशेष रुप से भारत के संदर्भ में। यहाँ तो अभी कायदे की आधुनिकता ही नहीं आई। हमारे आलोचक विदेशी साहित्य से कुछ शब्द चुरा लेते हैं और अपने विद्वता प्रदर्शन के लिये उनका उपयोग करना शुरू कर देते है।

6- कहानी का विकास समय के दबाव में होता हैं और यह शत-प्रतिशत स्वतःस्फूर्त होता है। ये जो विमर्श हैं ये बतौर फैशन आते हैं और कुछ चुके हुए लेखकों संपादको द्वारा प्रायः आयोजित किये जाते है। इसलिए मैं समझता हूँ कि किसी भी प्रकार के विमर्श की जगह कहानी के विकास में गौण होती है। जब विमर्श शब्द नहीं था तो क्या स्त्रियों पर नहीं लिखा गया? दलित लेखन नहीं हुआ? प्रेमचंद का तो पूरा लेखन ही किसान-मज़दूर पर रहा है, प्रेम पर तो युगों से लिखा जा रहा है। वैसे अभी सबसे अधिक विमर्श स्त्रियों और दलित पर ही केन्द्रित रहे हैं। एक नया ही नारा आया है कि दलित-लेखन केवल दलित ही कर सकते हैं और कतिपय संपादक चर्चा में बने रहने और मठाधीशी करने के लिये इस विचार को हवा दे रहे है। इसलिए दलित लेखन से प्रेमचंद बाहर हो रहे है, अखिलेश बाहर हो गये हैं। कहानी में ये विषय मुख्य रुप से उठायें जा रहे हैं। युवा-लेखन का ठेका तो रवीन्द्र कालिया जैसे संपादकों ने उठा ही लिया है। जो यह सिद्ध करने में लगे हैं कि नवलेखन जो उन्होने छापा है वही सार्थक और मुख्य है। फिर उन पर उन्होंने इस ढंग से टिप्पणियाँ दी हैं कि उनको असरदार बनाने की नाजायज कोशिश की है।

इसी तरह प्रेम जैसे सात्विक विषय पर भी रवीन्द्र कालिया जैसे संपादकों ने दादागिरी थोपी है। प्रेम-विशेषांक से लेकर प्रेम-महाविशेषांक तक की श्रृंखला उन्होने निकाल डाली और ऐसी-ऐसी कहानियों की भरती उन्होने उसमें की जो प्रेम के खाँचे में फिट नहीं बैठतीं। इसमें कोई संदेह नहीं कि उपर्युक्त विषय समाकलीन कहानी के केन्द्रीय विषय हैं। कहानी में इन विषयों पर लिखकर केवल स्पेस भरा है बल्कि उनको केन्द्रीयता में ला दिया है।

7- कहानी-लेखन किन्हीं विमर्शों और कहानी आंदोलनों के भरोसे नहीं होता है। फिर विमर्श भी तो लिखी हुई कहानी पर ही होते हैं। विमर्श कहानी लिखने के आधार नहीं बनते। फिर भी अगर ऐसा लेखन होगा तो फॉरमूलाबद्ध लेखन होगा। तब लेखक का अनुभव, संवेदनशीलता पीछे चले जाते हैं। कुछ चुके हुए लेखकों और संपादकों के शगलों से ये विमर्श उत्पन्न होते हैं। चर्चा में बने रहने के लिये और अपना महत्व जताते रहने के लिये इनका आयोजन होता रहता है।

जब विमर्श नहीं थे और किसी आंदोलन का दूर-दूर तक कोई पता नहीं था उस ज़माने में क्या कहानियाँ लिखी नहीं गईं? उसने कहा था, पुरस्कार, हार की जीत, पूस की रात आदि कहानिंयाँ किस विमर्श और किन आंदोलनों की देन हैं? मैं समझता हूँ कि विमर्शों ने किसी बड़े कहानी-आंदोलन की ज़रूरत और सम्भावना पर कोई प्रभाव नही डाला है। उल्टे ये विमर्श अपने लोगों को जमाने के लिये ज्यादा उपयोग में लाये गये है। कमरे से बाहर इन विमर्शो ने अपना दम खुद तोड़ दिया। मेरे विचार में ये विमर्श कहानी की दिशा को भरमाते अवश्य हैं बजाय सही दिशा-निर्देश के। कहानी स्वंय के अनुभव , संवेदना और प्रतिभा के रस में पकती और आकार पाती है। हाँ चर्चाएँ ज़रूर सार्थक और ज़रूरी हो सकती हैं। इनसे कम से कम रचनाकार को बल मिलता है। इन विमर्शों से बाहर भी कहानीकार ही होता है।

मैं नहीं समझता हूँ कि कहानी के किसी दौर में कहानी आंदोलनों की जरूरत पड़ी हो या महसूस की गयी हो। सृजन बिना किसी आंदोलन या विमर्श के संभव होता हैं तो फिलहाल उसकी आवयश्कता ही क्या है। जैसा कि मैंने कहा खुद को जमाने के लिये ये विमर्श या आंदोलन शुरू किये जाते हैं और यह बताने की कोशिश की जाती है कि पुराने कहानीकारों से किस तरह भिन्न हैं और समय के साथ खड़े हैं। अपने देश में ही क्यों बाहर विदेश में भी अच्छी कहानियों ने बिना किन्हीं विमर्शों और आंदालनों के जन्म लिया है और वे कहानियाँ कालजयी सिद्ध हुई हैं।

जहाँ तक बाज़ारवाद के प्रभाव की बात है तो बाज़ार सर्वग्रासी हो गया है। जीवन और जगत में शायद ही कोई चीज या भाव बचा हो जो बाज़ारवाद के प्रभाव से अछूता रह गया हो। बाज़ार में जिस तरह की प्रतिस्पर्द्धा होती है और प्रोडक्ट एक-दूसरे से आगे निकलने की गलाकाट प्रतियोगिता में लगे होते है, आज साहित्य में भी यही कुछ हो रहा है। अपने-अपने गुट को चमकाने की कोशिशें जारी हैं। किसी लेखक को कहानीकार के रुप में चमकाने की कोशिशें हो रही हैं तो किसी को कवि बनाने के लिये मारकेटिंग चलाई जा रही है। इसलिए विमर्श पर भी बाज़ार का प्रभाव इसी रुप में देखा जा सकता है।

8- एक दो अपवादों को अगर छोड़ दें तो कहानियाँ विमर्शों पर केन्द्रित नहीं हैं और ही ऐसी किसी योजना के तहत लिखी जा रही हैं। कहानीकार जो भी समाज में आस-पास घटते देखता है वही उसकी संवेदना और अनुभव में पकता है। बिना भोगे हुए यथार्थ के यदि कहानी लिखी जा रही होती तो उसके परखच्चे उड़ते देर नहीं लगती। पर ऐसा नहीं हो रहा है। चाहे नये कथाकार हों या पुराने जमे हुए उनकी सृजित कहानियाँ अपनी ज़मीन पर खड़ी हैं और इनके लिये दावे के साथ कहा जा सकता है कि वे विमर्शों की देन नहीं हैं। हो ही नहीं सकती। कहीं अगर अपवाद देखने को मिलता भी है तो उनका आलोचना की अच्छी और ईमानदार कसौटी ही मूल्याकंन करेगी।

जैसा कि मैंने ऊपर कहा है कि कुछ चुके हुए कहानीकार जो अब संपादक बन गये हैं इन विमर्शों और आंदालनों के केन्द्र में हैं और वही ये परचम लहरा रहे हैं। ऐसा नहीं है कि विमर्शों की आवश्यकता नहीं है। इससे रचना पर चर्चाएँ होती हैं। पर ये विमर्श ऐसी क्लिष्ट भाषा में सम्बोधित होते हैं मेरे जैसे अदना कहानीकारों के ऊपर से निकल जाते हैं। आखिर ऐसी भाषा का क्या मतलब हो सकता है जो सम्प्रेषणीय ही हो। अथवा जिसको समझने के लिये माथा पच्ची करनी पड़े। फिर वे मंतव्य जो विमर्शकार कहना चाहता है किसी के पल्ले नहीं पड़ेंगें।

विमर्शों का सच यही है कि उनके भीतर तात्विकता की कमी है और वे किसी नैतिक और सामाजिक सरोकारों के तहत कम चलाये जा रहे है। उनमें गुटबन्दी और चर्चा में बने रहने के निहितार्थ बहुत ज्यादा है। कहानी का कोई भला इन विमर्शों और आंदोलनों से होने वाला नहीं है। हाँ इनके माध्यम से अपने पीछे चलने वाली और आपका परचम लहराने वाली कहानीकारों की भीड़ अवश्य लग जाएगी। जैसा कि मैंने कहा विमर्श कहानी की दिशा तय नहीं करते, कहानी की दशा अवश्य दयनीय कर देते हैं।

9- मुझे याद नहीं कि कहानी ने कोई विमर्श पैदा किये हैं और उस विमर्श-विशेष पर चर्चाएँ होती रही हैं। कुछ महिला लेखिकाओं की वजह से स़्त्री विर्मश शुरू हुआ जो शायद उनकी कहानियों के विषय को लेकर नहीं था। पहले तो स्त्री और पुरुष लेखन की भिन्नता और यह विचार ही भ्रामक है। स्त्री लेखक भी समाज से वही विषय उठा रही हैं जो पुरुष लेखक उठा रहे हैं। अब केवल घर को ही केन्द्रित कर कहानियाँ नहीं लिखी जा रही हैं। स्त्री लेखन में बहुत व्यापकता गयी है। विभिन्न पहलुओं को शक्ति और सार्थकता से उन्होंने उठाया है। कोई भी विर्मश हो वह समाज से ही उठाया जाता है। यह बात दूसरी है कि किसी कहानी में उसका स्वर काफी स्पष्ट और तीखा होता है।

अब दलित विमर्श को ही लें। यह जो दलित विमर्श है किसी कहानी की धारा की वजह से अस्तित्व में नहीं आया है। यह दरअस्ल राजनीतिक विषय है। साहित्य में यह दलित लेखक की कुंठा से प्रारम्भ हुआ है। दलित लेखक ने यह घोषणा कर दी कि दलित लेखन केवल दलित लेखक ही कर सकता है। लीजिये दलित विर्मश प्रारम्भ हो गया। बाकी लेखकों ने जो दलित लेखन किया वह सच्चा नहीं है। पहली बात तो यह कि दलित और सवर्ण लेखन की अवधारणा ही ग़लत है। लेखन को किसी खाँचे में नहीं बाँधा जा सकता है। लेखन निर्बाध और निर्बन्ध होता है। अब क्या प्रेमचंद का लेखन जो उन्होंने किसानों और मजदूरों और समाज के सबसे छोटे तबके पर जो कहानियाँ लिखी हैं वे इस वजह से झूठी हैं कि प्रेमचंद तो किसान थे और मजदूर और ही दलित। दरअसल इस दलित विमर्श के सबसे बड़े स्यंवभू पैरोकार राजेन्द्र यादव है जो कहानी लेखन से विरत होकर और समय द्वारा कूड़े सा तज दिये जाने के कारण दलित मसीहाई वाले अंदाज़ में हैं। स्त्री विमर्श के रुप में उनकी सबसे बड़ी देन मैत्रेयी पुष्पा हैं। राजेन्द्र यादव चाहते हैं कि स्त्री विमर्श के नाम पर कहानी में स्त्री सैक्सुअलिटी का समावेश हो और कामुक किस्म की कहानियाँ लिखी जायें। इसके लिये उन्होने लेखकों-पाठकों की एक फौज भी बना ली है। उनको आज भी मलाल है कि प्रेमचंद ने स्त्री कामुकता पर एक भी कहानी नहीं लिखी। इसलिए अधिकतर मामलों में ये विमर्श कंठाओं के पोषण के माध्यम बन गये हैं।

पर ऐसा भी नहीं कि इन विमर्शों का कोई महत्व नहीं है। एक दिशा-निर्दंश मिलता है और गति मिलती है। लिखने का उत्साह पैदा होता हैं। चर्चा में रहने का अवसर मिलता है। दूसरे लेखकों से सहज ही मिलना हो जाता है। विचारों का आदान-प्रदान होता है।

10- बहुत आशाजनक नहीं कहा जा सकता है। विमर्श चलते रहेंगे और कहानी अपने विकास क्रम में सहज स्फूर्त भाव से चलती रहेगी। जो कहानियाँ विमर्शों का ठप्पा लगा कर लिखी जाएँगी, उनमें आरोपण अधिक होगा वे अनुभव-सिद्ध और संवेदना के स्तर पर सपाटता लिये ज्यादा होंगी। कुछ दिनों चर्चा में रह कर वे स्वतः काल के प्रवाह में डूब जाएँगी। कोई भी कहानी इन हाव-भावों के मद्देनज़र लिखी जाती है, अथवा किसी नारे के बतौर प्रकाश में आती है उसमें तात्कालिकता तो होगी पर दीर्घकालिकता नहीं। ऐसी कहानियों में तत्काल भुना लेने की प्रवृत्ति होती और यही इनकी सबसे बड़ी कमजोरी होती है। कहानी हृदय की धड़कन और संवेदना और अनुभव संपन्नता से लिखी जाती है किसी लेवल के चिपका लेने से नहीं। इसलिए जो कहानियाँ केवल विमर्श को लक्ष्य कर लिखी जा रही हैं वे भटका रही हैं। उनका कोई भविष्य नहीं है। संसार की जितनी सर्वश्रेष्ठ कहानियाँ हैं उनके पीछे उनकी सहजता है कोई नारेबाजी नहीं और उनकी प्रासंगिकता आज भी बनी है और आगे भी बनी रहेगी। वैसे भी लेखक का काम है कहानी लिखना विवादों और विमर्शों से परे।