शनिवार, 31 दिसंबर 2011

नये साल में बच्चों और उनकी शिक्षा के लिए बड़ी जगह पैदा होनी चाहिए।



गुरू-शिष्य के संबंधों पर सभी भाषाओं और समाजों में साहित्य भरा पड़ा है। वह पूरा साहित्य न मैं अब तक पढ़ पाया हूँ न ही पूरे साहित्य से अनजान हूँ। वह विगत और अनवरत साहित्य आज अध्यापन में कितनी सहायता करता है यह भी मेरे लिए गुत्थी ही है। मैं अनुभव से कई ग़लतियों के बाद सीख सीखकर ही सिखाने वाला अध्यापक हूँ।

मैं जब विद्यार्थी था इस रिश्ते को निभाने लायक मिथकीय शिष्यों जैसा कृतज्ञ नहीं रहा। न अब गुरू होते कभी खुद को ईश्वर की जगह देख पाता हूँ। सीखने और सिखाये जाने की पारस्परिकता में ही जो मुझसे हो सका वह मेरा शिष्य धर्म था और मेरे अध्यापको ने जो किया वह उनका कर्तव्य। इस निर्वहन से कभी समाज को दिक्कत नहीं हुई सो कह सकते हैं मेरे गुरुजनों का चरित्र उत्तम था और मेरे चरित्र में भी निर्माण से लेकर अब तक खोट नहीं है।

आज अपने भावलोक और आदर्शों से बाहर निकलता हूँ, शैक्षिक अपेक्षाओं से थककर घर लौटते हुए जब बाहर टेबल पर रखे रजिस्टर पर हस्ताक्षर करता हूँ और घड़ी देखकर समय डालता हूँ तो अपने आपको अध्यापन की नौकरी करते हुए पाता हूँ।

एक कठिन नौकरी। नौकरी के मूल स्वभाव से हटकर जो हर साल इसलिए भी कठिनतर होती जा रही है कि बच्चे बच्चों जैसे नहीं रहे। इसके कारणों में उँगली के इशारे जैसी यह वजह कि कॉलोनी इतनी घनी हो गई कि गलियों में खेलने की जगह नहीं बची, मैदान नहीं बचा, तालाब-नदी नहीं बचे। कामकाज की आपा-धापी में माँ-बाप बच्चों के लिए नहीं बचे। घर में अकेले टीवी, कम्प्यूटर, मोबाइल से घिरे छोटे-छोटे आदमजात कितना बच्चा बचेंगे? घर से लेकर स्कूल तक उसके इतने गाइड हैं कि स्कूल बस में ही सयाना हो चुका जो बच्चा कक्षा में पहुँचता है उस पर किसी बात का असर ही नहीं होता।

वह इसी सप्ताह रिलीज होनेवाली फिल्म का वयस्क गाना गाना चाहता है। सोशल नेटवर्किंग साइट्स में चैट करना चाहता है। स्कूल बैग में पड़ा उसका मोबाइल एसएमएस के आगमन से घूँ-घूँ काँपता है तो वह रिप्लाई न कर पाने की खीज में शिक्षक को शैतान समझ बैठता है। उसकी मानसिक लड़ाई अपने शिक्षक से उसी समय शुरू हो जाती है। अगली किसी डाँट पर वह माँ-बाप से केवल टीचर की शिकायत करना चाहता है।

पिछले दो तीन साल से नये शैक्षिक प्रयोग के बीच यह भी खूब सुन रहा हूँ कि “शिक्षक केवल विद्यार्थियों के लिए हैं। चुनौतियाँ कार्पोरेट सेक्टर जैसी। मुख्य है टार्गेट। विद्यार्थी अब शिष्य नहीं विद्यालय के उपभोक्ता हैं। यदि वे संतुष्ट नहीं, पैरेंट्स शिकायत करते हैं, आप टार्गेट में पीछे रहे तो हमें आपकी ज़रूरत नहीं।”

मैं और मेरे जैसे कई घर से हज़ारों किलोमीटर दूर डर जाते हैं। नौकरी गयी तो जीवन कैसे बचेगा? हम जितना डरते हैं माहौल उतना ही अच्छा होता माना जाता है।

आये दिन नये-नये डरावने बयान- “शिक्षक, विद्यार्थियों को पागल, गधा, मूर्ख नहीं कह सकते। चाँटा मारा तो कठोर अनुशासनात्मक कार्यवाही। अगर लहज़े में भी सख्ती दिखी और विद्यार्थी को इस वजह से तनाव हुआ उसने शिकायत की तो शिक्षक अपराधी। कोई नहीं बचा पाएगा।”

शिक्षकीय जीवन की एकदम शुरुआत में ही एक भली, कर्मठ शिक्षिका ने बताया था “यह ऐसा समाज है जिसमें शिक्षक की कोई नहीं सुनता” तो हँसी आ गयी थी। डरपोक। हम इंसान गढ़ने आये हैं। निर्माता हैं। हमें गुहार क्यों लगानी पड़ेगी? समाज हमसे खुद पूछेगा कोई तकलीफ़ तो नहीं। मैडम के लहज़े में रिटायर होने तक न मिटनेवाला डर साफ़ दिख रहा था। “सर, बहुत सतर्क रहने की ज़रूरत है। बच्चे सब नाबालिग हैं उनकी हर ग़लती का दोषी टीचर है। क्योंकि अभिभावक अपनी ग़लती मानेगा नहीं। स्टूडेंट, पैरेंट्स, प्रिंसिपल सबसे बचकर रहना पड़ता है टीचर को।”

उनकी आवाज़ फुसफुसाहट में बदल गयी थी जब वे बोलीं- “सर, आप मेरे छोटे भाई जैसे हैं लेकिन नये हैं इसलिए कह रही हूँ गर्ल चाइल्ड को तो डाँटना भी मत कभी। कुछ ग़लत करते देखो तो किसी लेडी टीचर को समझाने के लिए बोलो। कभी स्कार्ट ड्यूटी हो तो लड़कियाँ लेकर बाहर मत जाओ। बच्ची की शिकायत को कुछ हथियार बनाते हैं। सीधे इंक्वायरी बैठती है और ऊपर तक कोई नहीं सुनता।”

इतने साल बाद लगता है कि ये सलाहें बड़ी व्यावहारिक थीं। फिर किन्हें और कैसे पढ़ाएँ? सोचकर साँस लेने को हवा कम पड़ती प्रतीत होती है।

सालों से घुट रहे पर सफल माने जानेवाले कुछ शिक्षक साथी कहते हैं “काहे की शिक्षा और काहे के स्कूल। सब नाटक है। जब ऊपर से नीचे तक ग़लत ही हो रहा है। तो बच्चे क्या सीखेंगे? सीखे हुए ईमानदार विद्यार्थी कहाँ, किस भविष्य में जाएँ?”

सुना था कि नौकरी तो बाप की भी बुरी। लेकिन शिक्षक भी नौकर ही है सोचकर रूह काँप जाती है। घर से, सबसे इतनी दूर, मन में इतने समर्पण, बच्चों से इतनी ममता, समाज की अपेक्षा मनुष्यता की सेवा और ओहदा नौकर का। आत्मा गवाही नहीं देती। नहीं, नौकर होकर नहीं पढ़ाया जा सकता!

तब उन बच्चों की शक्लें आँखों के आगे घूम जाती है जो रोकते-रोकते पैर छू लेते हैं सर, आपके मार्गदर्शन और आशीर्वाद से यह सफलता मिली। मैं आगे पढ़ना चाहती हूँ। यदि ये बच्चे पढ़ेंगे नहीं तो कुछ नहीं कर पायेंगे। उन्हें इंसान भी नहीं माना जाएगा दुनिया में। विद्या ही उन्हें सर उठाकर जीने लायक बनाएगी। वे पढ़ रहे हैं। पेट में कुछ नहीं ऐसा जिससे दिमाग़ मज़बूत होता है। घर भर का खाना बनाकर ही वे अपने बस्ते में पौष्टिक खाना नहीं रख पा रहीं। बराबर रौशनी भी नहीं पर वे किताबों में नज़र गड़ाए हुए हैं। सबकी गालियाँ खा रही हैं पर पेन-कापी नहीं रख रहीं। चुपचाप रात दिन मेहनत करते हुए, कम कपड़ों में सर्दी का विद्यार्थी जीवन बिताते जब इन बच्चों को देखता हूँ और अपने से गहरे जुड़ा पाता हूँ तब भी मन नहीं कहता कि नौकर हूँ। भीतर से आवाज़ आती है शिक्षक हूँ और पुण्य का काम है पढ़ाना।

अभी यह लिखते हुए जान रहा हूँ कि कुछ ही घंटो में यह साल बीत जाएगा। आज़ादी के बाद अपने देश में इतने साल गुज़र चुके हैं कि इसके बीत जाने को भी कितना महत्व दूँ? लेकिन सभी आशावादी लोगों की तरह मेरी भी एक आशा है कि नये साल में हमारे देश में बच्चों और उनकी शिक्षा के लिए बड़ी जगह पैदा हो। शिक्षक अपने काम को सेवा समझें और इसके लिए कोई उन्हें ताना न मारे।