शुक्रवार, 10 जून 2011

प्रियंवद का नया उपन्यास धर्मस्थल एक पाठक की नजर में

यह टिप्पणी प्रद्युम्न जड़िया की है। वे साहित्य के शौकिया पाठक हैं। शुरुआत में सात-आठ साल पत्रकारिता करने के बाद बत्तीस वर्षों तक आकाशवाणी रीवा में उद्घोषक रहे। आजकल सेवानिवृत्ति के बाद पढ़ने और लिखने में जुटे हैं। खूब पत्र लिखते हैं। उपन्यास के कवर की तस्वीर अंतिका प्रकाशन की वेबसाईट से साभार।

बया में प्रकाशित प्रियंवद के उपन्यास धर्मस्थल की पात्र योजना में कथावाचक है विजन, जो इंजीनियर होकर विदेश में जा बसा है। यह है कथानायक कामिल का बालसखा। धर्मस्थल का सूत्रधार यही है। कामिल की पत्नी न बन सकी प्रेयसी-सी है दाक्षायणी; जो बेहद महत्वाकांक्षिणी है; और जिसकी मुखमुद्रा, मुद्राओं (धन) के दर्शन से ही, लगता है खिलती-खुलती है। यह कामिल की ओर बेतरह आकर्षित होती है और शादी तक करना चाहती है। पर कामिल, अपने पिता को अंत तक त्याग नहीं पाता और दाक्षायणी ही उसे त्याज्य मान-समझ लेती है। कामिल की विवशप्राय दशा का चित्रांकन प्रियंवद ने पूरी तार्किक परिणति, कल्पनाशीलता, सौंदर्यबोध, और ज़िम्मेदारी से किया है। बड़े भाई द्वारा पिता की उपेक्षा किए जाने के दुख-संताप से पीड़ित कामिल की पिता के प्रति भक्ति आदि भी बयान हुई है गहन् आंतरिक सहानुभूति और तलस्पर्शी भावुकता के साथ। यहाँ प्रियंवद भावुक, दार्शनिक, इतिहासविद, सौंदर्यबोध संपन्न आदि एक साथ प्रतिभासित होते हैं।

पूरे किस्से में गॉडफादर जैसे हैं बाबू आनंदस्वरूप जो कामिल को कचहरी में काम देते-दिलाते हैं टायपिंग आदि का और धीरे-धीरे कामिल कचहरी को धर्मस्थल के स्वरूप में अभिहित करते हुए भी गहरे में वितृष्णा रखता है कचहरी के प्रति। लेकिन “ दिलफरेब हैं ग़म रोज़गार के ” वाली उक्ति के चलते, राग-विराग वाला उसका यह कचहरी (धर्मस्थल) के प्रति रिश्ता आखिर-आखिर तक बना तो रहता ही है।

मून कामिल का संगी है। जिसका भोजनालय है और जो कचहरी के कामों का और-और विस्तार करता-कराता है कामिल के लिए। प्राय: मून के भोजनालय में ही सज़ायाफ्ता मुज़रिमों के रिश्तेदार कामिल से मिलते हैं और कामिल मून के सहयोग से; उन्हें उनके रिश्तेदारों से मिलवाने, उनकी सज़ा में कैसे छूट मिले, ज़मानत मिले, खाना आदि कैसे पहुँचे, पेशियों के दौरान रिश्तेदारों की मुलाकात कैसे हो आदि का प्रबंधन करता है और पैसे कमाता जाता है। कैटेलिक एजेंट या उत्प्रेरक का काम, कामिल के लिए लगातार दाक्षायणी ही करती है। उसे खूब पैसेवाला पति जो चाहिए। यह और बात है कि उपन्यास के अंत तक दाक्षायणी की इच्छा पूरी नहीं हो पाती और वह खिन्नमन, विषण्ण मुकाकृतियों से जब तब कामिल को दुत्कारने लगती है। कामिल एक अन्य पात्र गंगू की मुन्नी (कमलेश कुमारी कौशिक) को टायपिंग आदि सिखाता है और कचहरी के कामों में उससे ही सहायता लेना शुरू करता है। दाक्षायणी को भी दूसरा साथी मिल ही जाता है।

उपन्यास का सबसे मुख्य पात्र है या सुसंबद्द आकर्षक व्यक्तित्व का धनी रहा है कामिल का मूर्तिकार पिता ! यह ऐसा मुर्तिकार है जो अपनी दृष्टि की भास्वर निर्मलता, सोच की उदग्र उदात्तता के लिए, अपनी सौंदर्योन्वेषिनी दृष्टि के लिए, मूर्तिशिल्प हित हेतु किए गए अपने चिंतन के लिए पाठक की संवेदना में गहरे-भीतर जा धँसता है। प्रियंवद की यह खूबी है कि वे पाठक को जतला देते हैं कि उन्होंने कामिल के पिता की सम्यक सृष्टि हेतु, उनके समग्र व्यक्तित्व-विकास हेतु ही सारे पात्र सिरजे हैं, कथा का ताना-बाना बुना है।


कामिल के मूर्तिकार पिता माँ की मूर्ति बनाने में अड़चन महसूस करते हैं और यह जानकर कि कामिल किसी कन्या को चाहता है तत्काल कह उठते हैं कि कामिल उसे उनके सामने लाए। लेकिन दाक्षायणी पूरी बात जान-समझ कर भी नहीं आती कामिल के पिता के सामने और यक्ष प्रश्न सा उपस्थित कर देती है “ यदि मैं तुम्हारे पिता की माँ हुई तो तुम मेरे क्या हुए ? ” यह संबंध तय हो जाए या कामिल इस दशाविशेष, संबंधविशेष को कोई नाम-संज्ञा दे दे तो वह राज़ी हो जाएगी। दूसरी बात भी है दाक्षायणी के मन में कि कामिल उसका होकर रहे उसी के घर में; और पिता को भी ले आए। पर यह नहीं संभव होता (कथाकार ही शायद संभव नहीं होने देता) और उपन्यास की खूबसूरत इंतिहा होती भी है और नहीं भी।


अब शिल्प, शैली, भंगिमा, कथोपकथन आदि की बात कहें तो प्रियंवद की लेखन यात्रा में ऐसा धर्मस्थल दुबारा संभव शायद ही हो। यह प्रतीकात्मक रूप में और खुले रूप में भी भारतीय न्याय व्यवस्था के वधस्थल या क़त्लगाह होते जाने का मारक और बेधक दस्तावेज है। यह यथावत आयातित भारतीय दंड संहिता जो साक्ष्यों पर अवलंबित है और हमारे न्यायालयों की संविधान सी है में वर्णित और अदालतों में जारी साक्ष्य की पूरी प्रविधि पर प्रश्न चिन्ह खड़ा कर देता है। साक्ष्यों का महत्व वहाँ होता है जहाँ गवाह पढ़े-लिखे और ईमानदार हों। बिकी हुई गवाहियाँ न्याय को हत्यारा बना देती हैं।

इतनी खूबसूरती से इस उपन्यास को रचा गया है कि अचरज होता है कि मूलत: इतिहासविद माने जानेवाले प्रियंवद, मूर्तिशिल्प के कितने गहरे जानकार हैं; सौंदर्यबोध के कितने तल-स्तर पहचानते हैं; कितनी भाषिक सधाव वाली दार्शनिक मनोदशा है उनकी। मूर्तिशिल्प की भाषा में 96 अंगुल में मूर्ति के भौंह, होंठ, नासिका, मुख, नाभि आदि की नाप पेश करते हैं वे और संस्कृतज्ञ की भाँति श्लोकों की भी उद्धरण भरमार करते जाते हैं।

धर्मस्थल में इतना ही भर होता तो शायद आज के नज़रिए से यह अप्रासंगिक हो जाता लेकिन कचहरी के भीतर होते घात-प्रतिघात, वकील-जज-मुवक्किल आदि की दाँव-पेंच भरी बारीक जानकारियाँ भी प्रियंवद पाठकों को परोसते चलते हैं। पाठक स्तंभित लगभग स्तब्ध रह जाता है कि कहीं वकील काले कौव्वे तो नहीं ? जज जल्लाद तो नहीं ? मुवक्किल, कचहरी के मकड़जाल में फँसा, दिन-दिन मरता निरीह कीड़ा तो नहीं ? ऐसे सवाल उठा पाने में वे सफल रहे हैं। साथ ही इस भीषण-पाषाण न्यायिक दुर्दशा की कथा की अंतर्धारा में भी स्मृति, मित्रता,त्याग, समर्पण, पितृ सेवा, वंचक-अतृप्त प्रेम की सुधा प्रवाहित करने में पूर्णतया सफल रहे हैं। तभी तो यह पूरा उपन्यास दृष्टांत बन-बनकर याद में कौंधता है। ऐसे समय में जब पाठक भूलते जाने का शिकार होता जा रहा है।

प्रियंवद इस उपन्यास में केवल सवाल ही नहीं उठाते पाठक को जागरूक-सचेत करते हैं और उसके अंत:करण का आयतन विस्तृत करते हैं। बया की उपलब्धि है धर्मस्थल। धर्मस्थल की उपलब्धि है मूर्तिकार पिता की शख्सियत। नारी चरित्र की विचक्षण-विलक्षण प्रतीक है दाक्षायणी। इस उपन्यास की एक और उल्लेख्य उपलब्धि है गंगू का मुन्नी के प्रति और उसका गंगू के प्रति लगाव। प्रियंवद यशस्वी हो, ऐसा ही कोई नायाब तोहफ़ा हिंदी साहित्य को फिर सौंपें।
-प्रद्युम्न जड़िया

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