मंगलवार, 21 जून 2011

जितना हो पाया है उससे भी कम खुशी नहीं

कहानियों से बचपन से रिश्ता रहा है। पिताजी का एक बहुत पुराना झोला जो शायद पुराने पैंट के कपड़े से बनाया गया था किसानी के सामानों ‘खरिया’ और ‘गड़ाइन’ के साथ टँगा रहता था। उसी झोले से मैं प्रेमसागर निकालकर पढ़ता था। बाद में उसी झोले में पिताजी के बी.ए. की हिंदी की किताबें मिली जिनसे मैंने प्रेमचंद, कमलेश्वर, राजेन्द्र यादव, मोहन राकेश, हरिशंकर परसाई, मन्नू भंडारी की कहानियाँ पढ़ीं। वे जल्द ही खतम हो गयीं तो दुबारा पढ़ीं। फिर जाने कितनी बार.. किताबों की ऐसी भूख पैदा हुई कि नींद में कहानी की किताबों के सपने आते। लंबी लंबी कहानियाँ, कितना भी पढ़ो, कभी खतम न होनेवाली। पर उन्हे पढ़ पाने के पहले ही नींद टूट जाती। नींद अक्सर सपने से छोटी होती।

उसी उम्र में अम्मा मुझे कहानियाँ सुनाया करती। मैं अम्मा के किस्से दादी और दूसरों को सुनाया करता। अम्मा से सुने मेरे किस्से बुआ सुनतीं, किताबों में पढ़ी कहानियाँ नाना सुनते। मुझे अम्मा के सुनाए राजा-रानी, हाथी, बंदरों के किस्से आज तक याद हैं। उसी कच्ची उम्र में मैंने महाभारत पढ़ा। पंचतंत्र, हितोपदेश, बैताल पच्चीसी, सिंहासन बत्तीसी और तोता मैंना के किस्से पढ़े। ये कहानियाँ किसी एक जगह न ठहरनेवाले मेरे पाँवों को रोके रखतीं। मेरा मन बँधा रहता। मैं कहानियों के आगे सोचा करता। मन में हर वक्त कोई न कोई फंतासी चलती रहती। छुट्टियों में जब ननिहाल जाता तो छोटी मौसी के रैक से चुरा-चुराकर, छुपकर सस्ते किस्म के, रोमानी-जासूसी उपन्यास पढ़ता। रात-रात भर !

मुझे कहानी बिल्कुल अपने आस पास की, जानी-पहचानी, औपन्यासिक रूप में तब मिली जब मैं नवमीं में पढ़ता था। बड़े भाई के कॉलेज का पहला साल था। एक दिन मैंने उनका साइकिल में टँगा झोला टटोला। झोले में गणित की किताबों के बीच एक कुजात किताब मिली। लेकिन उसके कवर पर बड़ी जानी पहचानी तस्वीर थी। फोटो के सिर के ऊपर लिखा था गोदान । फोटो के नीचे प्रेमचंद। सर्दी के दिन थे। घर में कोई रिश्तेदार आए थे। पिताजी उनके साथ कहीं जा रहे थे। रास्ता साफ़ था, देखनेवाला कोई नहीं होगा। हल्की-फुल्की मनाही भाई के सो जाने पर मैंने छुपाकर पढ़ना शुरू किया। रात बीती जा रही थी पर किताब नहीं खतम हो रही थी। वह पूरी हुई जाकर नौ बजे सुबह। मैं बेजान। स्तब्ध। हारा हुआ। आँख से आँसुओं की धार....। होरी क्यों मर गया? धनिया का रोते हुए कहना- लीजिए पंडित जी इन्हीं पैसों से गोदान करा दीजिए, आत्मा में बिंध गयी थी। मेरा ही जैसे सब कुछ खत्म हो गया था। खेती उजड़ गयी थी। लेकिन यह चमत्कार भी हुआ उसी दिन कि गाँव में बेचैन भटकते हुए मेरे पाँव ज़मीन पर मज़बूती से पड़ रहे थे। जैसे भीतर कोई बीज अँखुआ रहा था। उस दुख में बल मिला था। एक सच्ची किताब की आत्मा मेरी आत्मा का सिर सहला गयी थी। उस दिन मेरे मन में दो खयाल आये पहला- मुझे प्रेमचंद बनना है। दूसरा-संसार की सब कहानियाँ पढ़नी हैं। मैं अपने एकांत में प्रेमचंद की तस्वीर देख-देखकर रोया करता। मुझे इस बात से बड़ा दुख पहुँचता कि इतने महान कहानीकार के गाल पिचके हुए हैं, काया दुर्बल है। इतनी कम उमर में चले गये।

मेरे बचपन के दोनों संकल्प आज तक पूरे न हो सके हैं। आगे भी कोई संभावना नहीं। एक तरह से अब मैंने बचपन में छुपकर पैसे बोए थे.. टाइप के इन संकल्पों को बचपन के ही सपने मानकर मुस्कुरा पड़ना सीख लिया है। प्रेमचंद बनना संभव होता तो अब तक यह पद खाली न होता। पर तब मैंने डँटकर हिंदी पढ़ने का मन बना लिया था तो उससे पीछे नहीं हटा। बी.ए. करने का सोचते-सोचते बी.एस.सी. कर गया। एम.एस.सी. करने के दिन आने ही वाले थे कि राजेन्द्र यादव की पत्रिका हंस जो आग चुनती है में एक दिन दिनेश कुशवाह की समीक्षा पढ़ने को मिली। समीक्षा कहानीकार नमिता सिंह के कहानी संग्रह निकम्मा लड़का की थी। शीर्षक था-‘ले देकर एक संगी साथी इन आँखों का पानी’। मुझे झटका लगा। हंस में छपनेवाला लेखक रीवा में रहता है और मैं जानता तक नहीं। फिर इन्हीं की कविता इंडिया टुडे में पढ़ी-इसी ‘काया में मोक्ष’। गजब है। मन में इच्छा गहरायी कैसे मिला जाए!

उसी साल युवा उत्सव में मेरा पहली बार ग्वालियर में दिनेश कुशवाह जी से मिलना हुआ। वे जनसत्ता के सांस्कृतिक पत्रकार अजित राय जी के साथ कोई गंभीर संस्मरणनुमा साहित्यिक चर्चा कर रहे थे। मैंने दोनों की बातचीत सुनी। ध्यान से। मेरा कस्बाई साहित्यिक मन उनके राष्ट्रीय पहुँच का मुरीद हो गया। दिल ने कहा- यदि मैं हिदी में एम.ए. कर डालूँ तो मुझे बहुत सी किताबें यों ही पढ़ने को मिल जाएँगी। इनके घर में भी किताबें होंगी। मैंने आनन-फानन तय कर लिया हिंदी में एम.ए. करना है। एम.एस.सी. करके ट्यूशन पढ़ाते रहने से बेहतर होगा जे.आर.एफ़ निकालकर यूजीसी की फेलोशिप ली जाये और रिसर्च के बहाने भी चुपचाप कहानियाँ-उपन्यास पढ़े जायें। यदा-कदा कहानियाँ लिखीं भी जायें।

अब यूजीसी कहानियाँ पढ़ने-लिखने के लिए फेलोशिप देने से रहा इसलिए कहानियों पर ही शोध कर डालने का उपाय सूझा। यह बात और है कि मैंने कालांतर में प्रेमचंद बनने की बजाय कहानीकार बनने का विचार अपना लिया और जैसे-जैसे कहानियाँ पढ़ता गया शोध ग्रंथ लिखना मुश्किल होता गया। बाद में फेलोशिप भी जिस तरह रुला-रुलाकर आधी-अधूरी मिली उसका तो लंबा वृत्तांत है। इसी बीच देवेंद्र की नालंदा पर गिद्ध जैसी कहानी और विनोद कुमार शुक्ल का उपन्यास नौकर की कमीज़ जो पढ़ डाले। लेकिन ज़िम्मा लिया था और फेलोशिप ली थी तो मुकरा नहीं। नतीजतन समकालीन हिंदी कहानीः मूल्यों का द्वंद्व और विमर्शों का सच विषय पर शोध ग्रंथ दिनेश कुशवाह जी के निर्देशन में आखिरकार बीते 8 जून को जमा हो ही गया। अब जबकि शोध-प्रबंध लिखकर जमा कर चुका हूँ मुझे हृदय से खुशी, फुर्सत और कृतज्ञता अपने पूरे आवेग के साथ महसूस हो रही हैं। कोई बड़ी ज़िम्मेदारी संपन्न होने पर अंदाज़ा होता है कि यह केवल इरादे, संकल्प तथा श्रम के बल पर ही पूरी हो पायी। इस लायक सामर्थ्य तो हममें थी ही नहीं।

यहीं एक बात कहना चाहता हूँ कि कहानी हमेशा से लोगों को प्रिय रही है। लोग सदा से इसकी ओर आकर्षित होते रहे हैं। कहानी से प्रभावित हो जाना और कहानी से प्रभावित कर लेना मनुष्यों की आदिम मनोवृत्ति रही है। इसीलिए राजाओं ने अपनी कहानी लिखवाई और फकीरों ने दुनिया की कहानी सुनायी। कहानी, संसार में अब तक नैतिक-सामाजिक शिक्षण की सबसे कारगर विधि रही है। क्योंकि कितनी ही घोर अँधेरी रात में वह सुनायी गयी हो लोगों को सुबह तक नींद नहीं आयी। अच्छी कहानी हमेशा भुनसारे पूरी हुई है। कहानियों पर अधिकार कर लेने का इतिहास स्वतंत्र रूप से भले न लिखा गया हो पर दुनिया में कहानियाँ ही हारी-जीती हैं। हम लोग कहानी सुनते-सुनाते ही इसीलिए हैं कि एक दिन जनता की कहानी जीतेगी। राजा की कहानी हारेगी। आज तक दिये और तूफान की कहानी रुकी नहीं है।

इस नवपूँजीवाद, बाज़ारवाद और उत्तर आधुनिक समय में भी कहानी पर अधिकार और कहानी को मुक्त करने की भावना ही विमर्शों, आंदोलनों की जन्मदात्री है। कैसा भी युग रहा हो सच्ची कहानी सदैव मूल्यों के लिए कही-सुनी-लिखी जाती रही है। अपनी सीमाओं के बावजूद मेरा संकल्प यही था कि समकालीन कहानी के विस्तृत फलक पर मूल्यों के टकराव और विमर्शों के सच की पहचान की जाए। जितना चाहता था उतना तो नहीं कर पाया हूँ पर जितना हो पाया है उससे भी कम खुशी नहीं।

शुक्रवार, 10 जून 2011

प्रियंवद का नया उपन्यास धर्मस्थल एक पाठक की नजर में

यह टिप्पणी प्रद्युम्न जड़िया की है। वे साहित्य के शौकिया पाठक हैं। शुरुआत में सात-आठ साल पत्रकारिता करने के बाद बत्तीस वर्षों तक आकाशवाणी रीवा में उद्घोषक रहे। आजकल सेवानिवृत्ति के बाद पढ़ने और लिखने में जुटे हैं। खूब पत्र लिखते हैं। उपन्यास के कवर की तस्वीर अंतिका प्रकाशन की वेबसाईट से साभार।

बया में प्रकाशित प्रियंवद के उपन्यास धर्मस्थल की पात्र योजना में कथावाचक है विजन, जो इंजीनियर होकर विदेश में जा बसा है। यह है कथानायक कामिल का बालसखा। धर्मस्थल का सूत्रधार यही है। कामिल की पत्नी न बन सकी प्रेयसी-सी है दाक्षायणी; जो बेहद महत्वाकांक्षिणी है; और जिसकी मुखमुद्रा, मुद्राओं (धन) के दर्शन से ही, लगता है खिलती-खुलती है। यह कामिल की ओर बेतरह आकर्षित होती है और शादी तक करना चाहती है। पर कामिल, अपने पिता को अंत तक त्याग नहीं पाता और दाक्षायणी ही उसे त्याज्य मान-समझ लेती है। कामिल की विवशप्राय दशा का चित्रांकन प्रियंवद ने पूरी तार्किक परिणति, कल्पनाशीलता, सौंदर्यबोध, और ज़िम्मेदारी से किया है। बड़े भाई द्वारा पिता की उपेक्षा किए जाने के दुख-संताप से पीड़ित कामिल की पिता के प्रति भक्ति आदि भी बयान हुई है गहन् आंतरिक सहानुभूति और तलस्पर्शी भावुकता के साथ। यहाँ प्रियंवद भावुक, दार्शनिक, इतिहासविद, सौंदर्यबोध संपन्न आदि एक साथ प्रतिभासित होते हैं।

पूरे किस्से में गॉडफादर जैसे हैं बाबू आनंदस्वरूप जो कामिल को कचहरी में काम देते-दिलाते हैं टायपिंग आदि का और धीरे-धीरे कामिल कचहरी को धर्मस्थल के स्वरूप में अभिहित करते हुए भी गहरे में वितृष्णा रखता है कचहरी के प्रति। लेकिन “ दिलफरेब हैं ग़म रोज़गार के ” वाली उक्ति के चलते, राग-विराग वाला उसका यह कचहरी (धर्मस्थल) के प्रति रिश्ता आखिर-आखिर तक बना तो रहता ही है।

मून कामिल का संगी है। जिसका भोजनालय है और जो कचहरी के कामों का और-और विस्तार करता-कराता है कामिल के लिए। प्राय: मून के भोजनालय में ही सज़ायाफ्ता मुज़रिमों के रिश्तेदार कामिल से मिलते हैं और कामिल मून के सहयोग से; उन्हें उनके रिश्तेदारों से मिलवाने, उनकी सज़ा में कैसे छूट मिले, ज़मानत मिले, खाना आदि कैसे पहुँचे, पेशियों के दौरान रिश्तेदारों की मुलाकात कैसे हो आदि का प्रबंधन करता है और पैसे कमाता जाता है। कैटेलिक एजेंट या उत्प्रेरक का काम, कामिल के लिए लगातार दाक्षायणी ही करती है। उसे खूब पैसेवाला पति जो चाहिए। यह और बात है कि उपन्यास के अंत तक दाक्षायणी की इच्छा पूरी नहीं हो पाती और वह खिन्नमन, विषण्ण मुकाकृतियों से जब तब कामिल को दुत्कारने लगती है। कामिल एक अन्य पात्र गंगू की मुन्नी (कमलेश कुमारी कौशिक) को टायपिंग आदि सिखाता है और कचहरी के कामों में उससे ही सहायता लेना शुरू करता है। दाक्षायणी को भी दूसरा साथी मिल ही जाता है।

उपन्यास का सबसे मुख्य पात्र है या सुसंबद्द आकर्षक व्यक्तित्व का धनी रहा है कामिल का मूर्तिकार पिता ! यह ऐसा मुर्तिकार है जो अपनी दृष्टि की भास्वर निर्मलता, सोच की उदग्र उदात्तता के लिए, अपनी सौंदर्योन्वेषिनी दृष्टि के लिए, मूर्तिशिल्प हित हेतु किए गए अपने चिंतन के लिए पाठक की संवेदना में गहरे-भीतर जा धँसता है। प्रियंवद की यह खूबी है कि वे पाठक को जतला देते हैं कि उन्होंने कामिल के पिता की सम्यक सृष्टि हेतु, उनके समग्र व्यक्तित्व-विकास हेतु ही सारे पात्र सिरजे हैं, कथा का ताना-बाना बुना है।


कामिल के मूर्तिकार पिता माँ की मूर्ति बनाने में अड़चन महसूस करते हैं और यह जानकर कि कामिल किसी कन्या को चाहता है तत्काल कह उठते हैं कि कामिल उसे उनके सामने लाए। लेकिन दाक्षायणी पूरी बात जान-समझ कर भी नहीं आती कामिल के पिता के सामने और यक्ष प्रश्न सा उपस्थित कर देती है “ यदि मैं तुम्हारे पिता की माँ हुई तो तुम मेरे क्या हुए ? ” यह संबंध तय हो जाए या कामिल इस दशाविशेष, संबंधविशेष को कोई नाम-संज्ञा दे दे तो वह राज़ी हो जाएगी। दूसरी बात भी है दाक्षायणी के मन में कि कामिल उसका होकर रहे उसी के घर में; और पिता को भी ले आए। पर यह नहीं संभव होता (कथाकार ही शायद संभव नहीं होने देता) और उपन्यास की खूबसूरत इंतिहा होती भी है और नहीं भी।


अब शिल्प, शैली, भंगिमा, कथोपकथन आदि की बात कहें तो प्रियंवद की लेखन यात्रा में ऐसा धर्मस्थल दुबारा संभव शायद ही हो। यह प्रतीकात्मक रूप में और खुले रूप में भी भारतीय न्याय व्यवस्था के वधस्थल या क़त्लगाह होते जाने का मारक और बेधक दस्तावेज है। यह यथावत आयातित भारतीय दंड संहिता जो साक्ष्यों पर अवलंबित है और हमारे न्यायालयों की संविधान सी है में वर्णित और अदालतों में जारी साक्ष्य की पूरी प्रविधि पर प्रश्न चिन्ह खड़ा कर देता है। साक्ष्यों का महत्व वहाँ होता है जहाँ गवाह पढ़े-लिखे और ईमानदार हों। बिकी हुई गवाहियाँ न्याय को हत्यारा बना देती हैं।

इतनी खूबसूरती से इस उपन्यास को रचा गया है कि अचरज होता है कि मूलत: इतिहासविद माने जानेवाले प्रियंवद, मूर्तिशिल्प के कितने गहरे जानकार हैं; सौंदर्यबोध के कितने तल-स्तर पहचानते हैं; कितनी भाषिक सधाव वाली दार्शनिक मनोदशा है उनकी। मूर्तिशिल्प की भाषा में 96 अंगुल में मूर्ति के भौंह, होंठ, नासिका, मुख, नाभि आदि की नाप पेश करते हैं वे और संस्कृतज्ञ की भाँति श्लोकों की भी उद्धरण भरमार करते जाते हैं।

धर्मस्थल में इतना ही भर होता तो शायद आज के नज़रिए से यह अप्रासंगिक हो जाता लेकिन कचहरी के भीतर होते घात-प्रतिघात, वकील-जज-मुवक्किल आदि की दाँव-पेंच भरी बारीक जानकारियाँ भी प्रियंवद पाठकों को परोसते चलते हैं। पाठक स्तंभित लगभग स्तब्ध रह जाता है कि कहीं वकील काले कौव्वे तो नहीं ? जज जल्लाद तो नहीं ? मुवक्किल, कचहरी के मकड़जाल में फँसा, दिन-दिन मरता निरीह कीड़ा तो नहीं ? ऐसे सवाल उठा पाने में वे सफल रहे हैं। साथ ही इस भीषण-पाषाण न्यायिक दुर्दशा की कथा की अंतर्धारा में भी स्मृति, मित्रता,त्याग, समर्पण, पितृ सेवा, वंचक-अतृप्त प्रेम की सुधा प्रवाहित करने में पूर्णतया सफल रहे हैं। तभी तो यह पूरा उपन्यास दृष्टांत बन-बनकर याद में कौंधता है। ऐसे समय में जब पाठक भूलते जाने का शिकार होता जा रहा है।

प्रियंवद इस उपन्यास में केवल सवाल ही नहीं उठाते पाठक को जागरूक-सचेत करते हैं और उसके अंत:करण का आयतन विस्तृत करते हैं। बया की उपलब्धि है धर्मस्थल। धर्मस्थल की उपलब्धि है मूर्तिकार पिता की शख्सियत। नारी चरित्र की विचक्षण-विलक्षण प्रतीक है दाक्षायणी। इस उपन्यास की एक और उल्लेख्य उपलब्धि है गंगू का मुन्नी के प्रति और उसका गंगू के प्रति लगाव। प्रियंवद यशस्वी हो, ऐसा ही कोई नायाब तोहफ़ा हिंदी साहित्य को फिर सौंपें।
-प्रद्युम्न जड़िया