बुधवार, 25 मई 2011

कहानी और कहानीपन

बिना कहानी के भी समाज की कल्पना की जा सकती है भला! जिन्हें यह लगता हो कि तब गीत से काम चल जाता तो उन्हें यह पहले सोच लेना चाहिए कि तब गीत होते ही नहीं। गीत, कहानी की कोख से पैदा होते हैं। कहानी जननी है गीतों की। कोई ऐसा गीत किसी को पता भी हो जिसमें कहानी न हो तो हमारा पूरा यकीन है उसे कम से कम गाने के लिये, गानेवाले को गाने लायक बनने के लिए कहानी की ज़रूरत पड़ेगी। यह चमत्कार हो भी जाए कि कहानी से अनजान कंठ गीत गा पाये तो सुनने वाले तब तक नहीं गुन पाएँगे वह गीत जब तक उन्हें कहानी का आसरा नहीं होगा। गीत के कान हैं कहानी और कहानी की आँख हैं गीत।

फिर भी हम सोचे कि कहानी नहीं है हमारे पास तो तुरंत खयाल आ जाता है केवल प्रयोजनमूलक शब्द व्यापार जिंदगी को असंभव बना देगा। कितनी नीरस होगी वह दुनिया जब एक ही छत के नीचे रहनेवाले या परस्पर मिलने वाले लोग केवल काम की बात करेंगे। बातों में स्मृति न हो, कल्पना न हो, फंतासी न हो तो वे बातें भले ही कितनी उपयोगीं हों क्या हृदय में रह पाएँगी? क्या पुराने लोग यों ही कहते आ रहे हैं कि सच बात के लिए भी झूठ के परथन की ज़रूरत होती है। तभी वह सबके गले का हार बनती हैं।

बातें रोचक हों तो जीवन के प्रति लगाव पैदा होता है। इसकी प्रत्यक्ष सिद्धि या गणितीय निष्पत्ति खोजने चलेंगे तो कुछ हाथ नहीं लगेगा। यह नाता वैसा ही है जैसा जीभ का स्वाद से। जब जीभ से स्वाद कम होने लगता है तब जीवनी शक्ति क्षीण होने लगती है। मज़ेदार बात कि जीभ से स्वाद जाने की कहानी होती है तो जीवनी शक्ति क्षीण होने की भी कहानी ही होती है। बातों से जब यादें विदा हो जाती है तो वे उस रसीले गन्ने की तरह ही होती हैं जिनमें मिठास नहीं होती। बिना कल्पना के यथार्थ सूखे आटे जैसा होता है। फंतासी न हो तो कथा बिना रुई की रजाई होती है।

हर किसी की मुराद होती है कि वह कहानी बने। लोग उसके किस्से सुनायें। हम अपने वर्तमान में खूब इसीलिए कमाना चाहते हैं कि भविष्य में जब हम न हों तो हमारे बारे में ढेर स्मृतियाँ हों। यदि कहा जाये कि हर कमाई के बदले हमारी छुपी माँग स्मृति ही होती है तो अत्युक्ति न होगी।

आप सोचिये यदि कहानियाँ न होतीं तो यह दुनिया कैसी होती? मैं तो यह सोच ही नहीं पाता। मुझे लगता है कि कहानी न होती तो हम आसमान से बातें न कर पाते। हरियाली देखते तो खूब उसे समझ न पाते, पेड़ों-चिड़ियों का दुख न जान पाते। पहाड़ों, झरनों, नदियों के दिल के हाल न जानते। हमारा कोई सपना चमकीला न होता, हमारा कोई गीत गाढ़ा न होता। बादलों में आकृतियाँ न बनतीं। सपनों में कोई राजकुमारी या राजकुमार न आते। हमारा इतिहास न होता। इतिहास न होता तो सभ्यता न होती। सभ्यता न होती तो हम उत्तरोत्तर संस्कृत न हो पाते।

कहानी से अपने इतने रिश्ते जानते हुए भी अब अगर आप पूछें कि कहानी से कहानीपन चला जाय तो क्या होगा तो आप ही बताये कोई क्या जवाब देगा?

गुरुवार, 12 मई 2011

इंतज़ार

मेरे लिए तुम्हारे इंतज़ार में
महीनों काटना मुश्किल नहीं होता
जितना तुम्हारे पास पहुँचने से पहले का एक दिन
तुम्हारे सामने होने से पहले का एक घंटा ज्यादा मुश्किल होता है
उससे भी भारी होता है तुम्हारा सीढियों से नीचे आने में लगा एक मिनट
मेरी वीरान आसानी है मेरे-तुम्हारे बीच का लंबा अरसा
सबसे मुश्किल होता है तुमसे पहले का सबसे छोटा लम्हा।

मंगलवार, 3 मई 2011

कहानी: नौकरी


रमा मास्टरनी हो गई। पयासिन दाई गाँव में घूम-घूमकर बताती हैं।

पयासिन दाई फुरसत हैं। सुबह से खउनही जून तक,दोपहर खाने-सोने के बाद मजूरी बेरा तक पयासिन दाई के पास घर के चबूतरे में बैठे रहने के अलावा कोई काम नहीं। वहीं गाली-गलौज,राम नाम सब निपटाती हैं। आती-जातियों से हाल-चाल,कुशल-क्षेम का आदान-प्रदान करती हैं। धूप होते या ढलते ही निकल जाती हैं। किसी के भी घर में जम जाती हैं। कैसी हो? क्या हो रहा है? के बाद सुनिए उनकी चिरपरिचित रटें। वही आँसू। पयासिन दाई आधी पागल हैं। किसी दिन पूरी पागल हो जाएँगी। गाँववाले कहते हैं।

“पुतऊ,जान्या रमा मास्टरनी हो गई।”
“हाँ दाई तुम्हीं ने तो बताया था। अच्छा हुआ।”
“मैं कहती हूँ अब तुम भी अपनी बिटिया को पढ़ाओ। बइया नौकरी करेगी तो घर के दिन बहुरेंगे।”
“पढ़ती तो है दाई पर दसवीं ही नहीं पास हो रही तो क्या करे कोई। हमारे यहाँ किस चीज़ की कमी है पर विद्या भी लगता है घुरहों को ही आती है। रमा के घर एक नई लुगड़ी का इंतज़ाम नहीं। दवा-दारू को रकम नहीं पर वह पढ़ती गई। मास्टरी पा गई। एक हमारी लड़कियाँ हैं। एक गिलास पानी नहीं मांग सकते। फैसन और टीवी के सिवा दूसरा काम नहीं। पर पढ़ाई की पूछो तो जैसे गोबर भरा है दिमाग़ में।”
“मैं कहती हूँ अब रमा की महतारी राज करेगी। बिना पढ़ी-लिखी लड़कियों की मां को दुख के सिवा कुछ नहीं। ज़िंदगी भर आँसू। दुनिया भर से फरियाद। कोई नहीं सुनता। लड़की सुखी रहे यही ज़िंदगी का पुन्न है बहू।”
“राज क्या करेगी दाई ! क्या रमा का ब्याह अब बिना दइजा के हो जाएगा? क्या लड़केवाले उसके घर आँएगे बरिक्षा की रकम नारियल लेकर? जीभ दसा कर कहेंगे कि हमें अपनी मोड़ी दे दो। जैसा फिल्मों में होता है। मैं तो जानती हूँ वैसा तो नहीं होनेवाला। ज़माना वही रहेगा दाई। बल्कि और मुसीबत होगी। रमा खेतिहर लड़के से ब्याह करेगी नहीं। नौकरीवाले से करने की औकात नहीं। पाँच हज़ार रुपिट्टी महीना और शहर की चाकरी में घर का दलिद्दर दूर नहीं होगा।”
“कौन कहता है पुतऊ कि घर का दलिद्दर दूर हो जाएगा। ब्याह भी सेंत में नहीं होगा। लेकिन रमा किसी के आगे हाथ नहीं पसारेगी। औरत के लिए इससे बड़ा वरदान नहीं। मेरी सितुआ कमा रही होती तो क्या उसका घाती मनुष उसे छोड़ आता? मजे से दूसरा ब्याह कर पाता? मेरे हाथ में कमाई होती तो मैं उसे जेल की चक्की न पिसवाती? लेकिन कुछ नहीं कर पाई मैं। मेरी फूल जैसी बिटिया,मोर करेजा दवाई बिना मर गई।”

पयासिन दाई सुबकने,अँचरा से आँखें पोंछने लगीं। जब वे ऐसी सीखें देने के बाद रोने लगती हैं तो कोई उन्हें गंभीरता से नहीं लेता। कोई कोई तो मत रोओ भी नहीं कहतीं। सबने यह मान लिया है कि वे गाँव में ऐसी खबरें ढूँढती फिरती हैं जिसके बहाने अपनी सितुआ का दुखड़ा रोया जा सके। कभी कभी वे हबूक (झूठी खबरें) भी फैलाती हैं कि फलानी ने अपने पति को लात से कूटा। जिसकें यहाँ दाई जा बैठी होती हैं वे तब अपने काम में लग जाती हैं।
“दाई नागा मत मानना आज बहुत काम पड़े हैं। तुम आराम से बैठो।”
कोई कोई लड़ भी जाती हैं। लेकिन तब दाई ही जीतती हैं। वजह कोई न कोई डाँट देता है
“क्या डोकरी के मुँह लगती हो।”

राम प्रताप पयासिन दाई के पति हैं। कई साल के बीमार। कभी जवानी में दमा हुआ था। फिर टीवी ने पकड़ लिया। आजकल दोनों बीमारियाँ साथ-साथ हैं। बिजली विभाग में लाइनमैन के पद से रिटायर होने के बाद अब वे ज्यादातर अस्पताल में ही रहते हैं। बीमारियाँ,तकलीफ़ स्थायी सी हो गई हैं। जब उनमें अप्रत्याशित वृद्धि होने लगती है तो खुद ही जाकर भर्ती हो जाते हैं। गाँव से शहर जानेवालों में से कभी कोई कभी कोई खाना पहुँचा देता है। थोड़ा आराम होने या पहले जैसा महसूस होनेपर वे अस्पताल से खुद ही लौट आते हैं।

पयासिन दाई के दो देवर हैं। बेटा एक भी नहीं। दोनों का खाना पीना छोटे देवर के बड़े लड़के के यहाँ होता है। बेटी के बारे में विस्तार से जाने की ज़रूरत नहीं। सिर्फ़ इतनी ही कहानी है उसकी। चौदह साल की उम्र में ब्याह हुआ। गौने के बाद तीन साल में पहली बार मायके आई। फिर बुलाने कोई नहीं आया ससुराल से। पिता गाँववालों के ताने सुन सुनकर एक दिन खुद ही छोड़ आए ससुराल। वहाँ दूसरे हफ्ते वह बीमार पड़ी। एक इतवार उसके मरने का समाचार आया।

उस दिन आठ बार बेहोश हुईं थीं पयासिन दाई। गाँववाले भी समझ गए थे कि वहाँ क्या हुआ होगा। पर यह सब होता ही रहता है लोगों ने सोचा। कुछ संवेदनशील लोगों ने दाई को समझाया

“लड़की मरने का दुख सबको होता है। लेकिन क्या किया जा सकता है। ज़माना ही ऐसा है। लड़की के लिए आसमान सिर पर उठा लेना ठीक नहीं। कोर्ट कचहरी के लिए और भी बातें हैं। यह सब तुम्हारे बस का भी नहीं।”

पयासिन दाई की उम्र अस्सी के पार पहुँच रही है। पढ़ी-लिखीं नहीं हैं। दाढ़ें नहीं हैं। आँख-कान अपनी भूमिका निभा चुके जितनी निभानी थी। कुल मिलाकर वे लाचार हैं। पर उनकी आवाज़ और गर्मजोशी में कोई फर्क नहीं पड़ा है। एक भी अच्छी बात का युवकों से ज्यादा उत्साह से स्वागत करती हैं। किसी भी मसले पर रुचि लेती हैं। इसे ही अधिकतर उनका पागलपन समझा जाता है।


इन दिनों पयासी जी अस्पताल में हैं। तबियत में गंभीर गिरावट जारी है। लेकिन अस्पताल आने-जानेवाले पयासिन दाई को संदेश बताते हैं-वे ठीक हो रहे हैं। पयासिन दाई की दशा यह है कि वे ठीक होकर आएँ या उनकी लाश आए तभी सही-सही जानेंगी।

रमा गोबर पाथ रही है। पयासिन दाई उसके घर के पास से गुजर रही हैं। वह बाल्टी में हैंडपंप से पानी लेने उठती है कि पयासिन दाई सामने हैं।
“कौन?...रमा हो?...”
“हाँ दाई मैं रमा ही हूँ। कहाँ से आ रही हो?”
“तनी पास आओ लाला,मोर करेजा तुम्हे देखे कितने दिन हो गए।”
“दाई मेरे हाथों में गोबर लगा है। तुम भीतर चलकर बैठो। मैं हाथ धोकर आती हूँ।”
“अरे,गोबर लगा है तो क्या हुआ मैं कोई रानी महरानी हूँ। तुम्हें देख लूँगी और चली जाऊँगी। जल्दी में हूँ। तुम्हारे पयासी बाबा को खाना भिजवाना है। मैं जब तक पीछे न पड़ूँ बहू भूली रहती है।”

उन्होंने बढ़कर रमा के गाल चूम लिए।

“तुम्हारी ड्यूटी आई कि नहीं।”
“आ गई है दाई। पर अभी मेडिकल होना है। यह हफ्ता लग जाएगा।”
“हो जाएगा मेडिकल में क्या रखा है। तुम्हें नज़र बस न लगे किसी की। तुम मेरी भी नज़र उतार लिया करो। मैं बड़ी अभागन हूँ। वरना क्या अपनी ही बेटी को नज़र लगा देती। हाँ…तुम पहले दिन स्कूल जाओ तो मेरे पास ज़रूर आना। मैं द्वारकाधीश का प्रसाद खिलाऊँगी।”
“दाई तुम्हारा तो आशीर्वाद लगता है। मैं इतनी सुकुमार नहीं। ये तो बताओ आज खाना कौन लेकर जाएगा। मैं रीवा जा रही हूँ। अस्पताल तक चली जाऊँगी।”
“तुम जा रही हो तो तुम्हीं लेते जाना। किसी का कोई ठिकाना थोड़े है। तब मैं जल्दी जाती हूँ खाना लेकर तुम्हारे घर रख देती हूँ।”
“तुम रहने दो मैं मुन्नू से मँगवा लूँगी।”

पयासिन दाई कुछ सोचकर ठिठकीं। रमा ने पूछा

“क्या सोच रही हो? ”
“सोच रही हूँ बेलावाली क्या इतनी सुबह खाना बना पाएगी। वह तो दस बजे के पहले बनाती नहीं।”
“तो कोई बात नहीं चार रोटी तरकारी मैं अपने घर से लिए जाऊँगी।”
“ऐसा कर लो तो बहुत नीक हो बेटा। तुम जैसी बिटिया भाग्यवान के घर आती हैं। द्वारकाधीश की कृपा हो कि तुम्हें बहुत बड़ा घर-वर मिले।”

रमा तैयार होकर नौ बजे घर से निकली। कंधे में बैग। हाथ में टिफिन का झोला। माँ-बाप भोर से खेत में है। धान की निदाई चल रही है। दोनों छोटे भाईयों को नहलाया खिलाया। वे स्कूल जाएँगे। छोटा तीसरी में पढ़ता है दूसरा पाँचवी में। उसके चलते चलते एक साल की छोटी बछिया रंभायी। गाँयें हुँकरी। उसे याद आ गया। लौटकर उसने सबके सामने चारा डाल दिया। बछिया के सामने रखी पानी से आधी भरी बाल्टी हटा दी।

तीन किलोमीटर चलने के बाद वह तिराहे पर पहुँची। सिर पर ओढ़ा हुआ दुपट्टा गर्दन और गालों के पास बिल्कुल भीग गया था। अभी साढ़े नौ ही बजे थे लेकिन सावन की बिना बादलोंवाली धूप बड़ी कड़ी थी। उमस भरी गर्मी असह्य थी। यहाँ से शहर के लिए टैक्सी मिलेगी। अब ऑटो भी चलने लगे हैं। मगर यहीं से चलनेवाले ऑटो में सात रुपये लगते हैं। दूर से आनेवाली टैक्सियाँ पाँच रुपये में मान जाती हैं।

रमा जिस जगह खड़ी है उसके पीछे बाणसागर की नहर का पुल है। वह उसी पुलवाली कच्ची सड़क से पैदल चलकर आई है। पुलवाली सड़क से सीधा आने पर वह जिस मुख्य सड़क से जुड़ती है उसके उत्तर में रीवा है और दक्षिण में गोविंदगढ़। रमा तिराहे पर खड़ी जीप का इंतज़ार कर रही है। उसे रीवा जाना है। पर गोविंदगढ़ से आनेवाली जीपें खचाखच भरीं हैं। दाएँ-बाएँ,पीछे सवारियाँ झूल रही हैं। उसकी हिम्मत नहीं हो रही कि हाथ दे। हालांकि उसके हाथ देनेपर जीप रुक जाएगी। कोई बैठी सवारी झूल जाएगी। उसे किसी तरह बीच की सीट में ठूँस दिया जाएगा। ऐसे ही तो आती-जाती रही है वह। कभी बैठने को मिल गयी हो जगह तो देर ही हुई है। कि जब तक कुछ और सवारियाँ नहीं आ जातीं। गाड़ी नहीं जाएगी। गाड़ी चलने का एक ही नियम गिरी हालत में भी सारी सीटें फुल हों।

रमा ने एक हाथ से हैंडपंप चलाया। दूसरे हाथ के चुल्लू में पानी भरकर मुँह में पानी के छींटे मारे। उसे ठंडक महसूस हुई। पैदल चलने की थकान थोड़ी कम लगी। दुपट्टे से मुँह पोंछ लिया। धुधुरियाया साँवला चेहरा निखर आया। इंतज़ार करनेवालों में अगर कोई जनाना न हो तो रमा को बड़ी झेंप महसूस होती है। अपने भीतर ही सिमटती रहती है। आस पास पान की गुमटियों,पंचर की दुकानों में खड़े लोग जैसे सब काम छोड़कर उसे ही देखने लगते हैं। वह अक्सर हवा से अपना दुपट्टा,उड़ते कुरते को ही सम्हालते खीझ जाती है।

उसने सिर-मुँह में दुपट्टा लपेट लिया। जबसे मोबाईल आया है उसे देखते ही कोई न कोई छोकरा ऊँची ध्वनि पर गाना बजा ही देता है। इसी तरह आते-जाते उसे पाँच साल हो चुके हैं। इस डर से कि लौटने में अँधेरा न हो जाए उसने कभी कॉलेज के किसी फंक्शन में भाग नहीं लिया। सहेलियों की शादी में नहीं गई। दिन में ही डर लगता है उसे कि जिससे हँसकर बात कर लो वही पीछे पड़ जाता है। किसी के साथ भी चार क़दम चल लो चर्चाएँ ज़ोर पकड़ लेती हैं। वह नहीं चाहती मेरे पीछे कोई कहानी चले। तब भी बातें करने वाले,मौक़े ढूढ़नेवाले हर समय तैयार रहते हैं।

“रीवा...रीवा...रीवाsss। आइए मैडम।”

एक जीप आकर बिलकुल उसके पैर के पास खचाक से रुक गई। रमा घबराकर पीछे हट गई। सदा मौजूद रहनेवाला एक काले रंग का नौजवान लपका। ड्राइवर से चीखकर बोला “देखकर गुरू मैडम के ऊपर चढ़ा दोगे क्या ?” ड्राइवर हँसा “देखकर ही चलातें हैं दादा आप फिक्र न करें।” “क्या देखकर चलाते हो बे अभी मैडम नीचे आ जातीं।” उसने आँख मारी। ड्राइवर के कंधे में धौल जमाकर बोला “अब बढ़ाओ जल्दी।और हाँ मैडम को अच्छे से ले जाना।” ड्राइवर ने जवाब में कुछ नहीं कहा सिर्फ़ मुस्कुरा दिया। रमा बैठ गई थी। गाड़ी आगे बढ़ गई।

रमा की पिछली सीट से किसी ने कहा “गाँड़-मुँह भर है और गुंडई करते हैं। बहन बेटी नहीं समझते।” दूसरे ने जोड़ा “अभी सवा शेर के पाले नहीं पड़े है वरना दादागिरी कब की पिछवाड़े घुस गई होती।” इतना सुनकर ड्राइवर ने जैसे सार्वजनिक माफ़ी मांगी “हम ऐसे नहीं हैं। रोड में डेली चलना पड़ता है इसलिए लिहाज़ कर जाते हैं। किसी दिन मुंडा सनक गया तो बहनचोद,ऊपर से ले जाएँगे गाड़ीsss..” रमा सुनती रही। उसका खून खौलता है पर जब्त करना,मुँह न लगना,समय से पहुँच जाना ही उसने अपने लिए चुना है। कोई फायदा नहीं सब साले एक जैसे हैं। कोई मदद को नहीं आता। बस मौक़ा चाहिए। छेड़ने या हमदर्दी दिखाने का।


जीप अस्पताल चौराहे पर रुकी। रमा उतर गई। उसने दस का नोट दिया। कंडक्टरी कर रहे छोकरे ने कहा “छुट्टा दीजिए मैडम। ”ड्राइवर ने डाँटा “इधर ला नोट।” उसने रमा को पाँच रुपये लौटाते हुए कहा “लीजिए मैडम-लौंडा बकचोद है।”

रमा ने अस्पताल की चौथी मंजिल के सभी वार्डों में खोज लिया। पयासी जी कहीं नहीं थे। तब उसने तीसरे वार्ड में जा रही नर्स से पूछा। नर्स ने उसे एक छोटे से आफिस में भेजा। वहाँ उसे पता चला कि पयासी जी की छुट्टी हो गई है। किसके साथ गए। अचानक कैसे रिलीव कर दिया गया? पूछने पर जूनियर डाक्टर ने कहा “यह बताने के लिए रजिस्टर देखना पड़ेगा। इसके लिए अभी मेरे पास टाईम नहीं है।” इतनी दूर आना बेकार गया। मन ही मन कोसती हुई वह पैदल लगभग दो किलोमीटर दूर ज़िला अस्पताल की ओर चली। जहाँ उसे अपना फिजिकल फिटनेस सर्टिफिकेट बनवाना है।

गुरुवार को ज़िला अस्पताल में मेडिकल के लिए बोर्ड बैठता है। समय से यानी ग्यारह बजे तक पहुँच जाओ तो दो बजे तक सर्टिफिकेट मिल जाता है रमा को उसकी सहेली ने बताया था। इसके अलावा वह कुछ नहीं जानती थी कि क्या क्या करना पड़ता है। हालांकि अस्पताल में मेडिकल बनवानेवालों की भीड़ थी। लोग खुद ही एक दूसरे को बता रहे थे कि क्या क्या होना है। यह अच्छा हुआ कि वह अपना ज्वाइनिंग आर्डर लेती आई थी। उसे दिखाने पर ही फॉर्म दिया जा रहा था। रमा ने फार्म लिया उसे भरकर देने गई तो क्लर्क ने कहा “पहले जाँच करवा लीजिए। तब फार्म के इस हिस्से को कंम्प्लीट करके जमा कीजिए।”
उसने ग़ौर से पढ़ा। आई टेस्ट,यूरीन टेस्ट,ईसीजी और एक्स रे करवाने होंगे। रमा इन लंबी चौड़ी जाँचों के बारे में कुछ नहीं जानती थी। उसे कभी कोई बीमारी नहीं हुई। छह साल पहले मलेरिया हुआ था। तब खून की जाँच करवायी थी। फिर साल दो साल में कभी सर्दी जुकाम हुआ तो चाय या काढ़े से ही ठीक हो गया था। पर इसे कोई नहीं मानेगा। जाँच तो करवानी ही होगी। वह आगे क्या करूँ। पहले कहाँ जाऊँ की मानसिकता में उन लोगों की ओर बढ़ी जिनके बारे में उसे अनुमान था कि नौकरी के लिए ही मेडिकल करवाने आए होंगे।

अस्पताल के आफिस के बाहर यह नीम के पेड़ का चबूतरा था जहाँ तीन युवक खड़े थे। उन्हीं में से एक से उसने पूछा “मेडिकल के लिए जाँचें कहाँ हो रही हैं?” उस दुबले पतले सांवले युवक ने हाथ के इशारे से जाँच की अलग अलग जगह दिखायीं। रमा ने पहली बार ग़ौर किया कि अस्पताल निर्जन नहीं यहाँ तो भारी भीड़ है। मैं शायद पिछले गेट से आ गयी। मुख्य द्वार से आती तो यह जनता देख ली होती। वह युवक को शुक्रिया बोलकर आगे बढ़ी। युवक ने किंचित रोकते हुए उससे पूछा

“आपका सेलेक्शन किसमें हुआ है?”
“संविदा वर्ग-एक में।” रमा ने बताया।
“मेरा भी संविदा में ही चयन हुआ है।”
“अच्छा। आपका किस वर्ग में हुआ है? ”
“वर्ग तीन में। जगह भी घर से सौ किलोमीटर दूर है। लेकिन ज्वाइन करने के अलावा कोई चारा नहीं। आपका तो वर्ग एक अच्छा है। कौन सी जगह मिली है? ”
“जगह तो मेरी भी दूर ही है। सिहोर ज़िला पंचायत में है। अभी पता नहीं कौन सा स्कूल है? ”
“वो तो काऊंसिलिंग के बाद ही पता चलेगा।”
“हाँ।”

वह आगे बढ़ गई थी। युवक की दिलचस्पी देखकर उसमें बात करने की इच्छा जगी थी। पर उसने खुद को रोक लिया था। संबंधित जगहों की भीड़ देखकर उसे लग रहा था कि यदि समय से लाईन में नहीं लगी तो टेस्ट नहीं हो पाएँगे। सब कुछ अगले हफ्ते तक के लिए स्थगित हो जाएगा। यद्यपि काऊंसिलिंग के लिए दस दिन का समय है पर अन्य तैयारियाँ भी करनी हैं। वैसे भी संविदा में मिलनेवाली स्कूलों,तनख्वाह की चर्चाएँ उदास ही करती हैं। यह भी कोई नौकरी है। मरते क्या न करते का किस्सा है।

सारे शिक्षकों को वर्ग एक,दो,तीन में बदल दिया गया था। प्राइमरी के लिए वर्ग तीन। सेकेंन्डरी के लिए दो और सीनियर सेकेन्डरी के लिए वर्ग एक। हर वर्ग के लिए अलग-अलग अखिल भारतीय परीक्षा हुई थी। इस नौकरी के लिए भी परीक्षार्थी लाखों की संख्या में उमड़ पड़े थे। नियुक्तियाँ प्रदेश स्तर पर पंचायतों के अधीन हो रही थीं। नगर निगम,ज़िला पंचायत,जनपद पंचायतो के अन्तर्गत विद्यालय आवंटित किए जा रहे थे। वेतन क्रमश: ढाई हज़ार,साढ़े तीन हज़ार और साढ़े चार हज़ार। बाकी कोई सुविधा नहीं। तनख्वाह ज्वाईन करने के बाद कम से कम छह महीने बाद मिलनी शुरू होगी। नियमित मिलेगी या नहीं इसकी कोई गारंटी नहीं। काम पढ़ाने के अलावा जनगणना से लेकर चुनाव ड्यूटी तक कुछ भी करना पड़ेगा। यह सब बताने में भी शर्म आती है। लेकिन रमा को यही नौकरी मिलने पर गाँव,शहर,कॉलेज में जिस तरह ऊँची नज़रों से देखा जाने लगा है इससे अंदाज़ होता है कि बेरोज़गारी कितनी विकराल है।

वह भीड़ चीरती हुई तेज़ी से उस रूम में पहुँची जहाँ एक जूनियर संविदा डाक्टर सभी जाँचों के लिए पर्ची लिखकर दे रहा था। लाईन में लगे मर्द,औरतों ने उसे तीखी नज़रों से देखा। एक ग्रामीण औरत ने ज़ोर से कहा-दिखती तो पढ़ी लिखी है पर लाईन से बाहर जाने में शर्म नहीं आती। रमा तिलमिला गई। उसने ग़ौर से देखा। दिखने में तो इतनी तेज़ नहीं है। कोई पुरुष होता तो क्या तब भी ऐसे ही बोलती? सच तो यह है उसे लाईन जैसा कुछ दिखा ही नहीं था। लेकिन उसके कुछ बोलने से पहले ही डाक्टर ने कहा “इन्हें मेडिकल बनवाना है। चलिए सब लाईन में आइए। लीजिए आप। उधर चले जाइए।”

पहला आई टेस्ट था। वह नेत्र चिकित्सक के कक्ष में पहुँची। वहाँ पहले से एक छह सात- साल का बच्चा कुर्सी पर बैठा था। उसका मोटा चश्मा देखकर वह सिहर गई थी। चश्में के काँच के पीछे बच्चे की आँखें क़रीब क़रीब सफ़ेद थीं। बच्चा सुंदर था। दुबला पतला। कुम्हलाया गोरा रंग जैसा अत्यधिक धूप में रहने से हो जाता है। किसी खेतिहर का बेटा होगा। उसने सोचा। डाक्टर के कहने पर उसकी कमज़ोर,दयनीय माँ ने बच्चे को उठा लिया।

“आपको क्या तक़लीफ़ है?” अधेड़ डॉक्टर ने रमा से पूछा। उसने पर्ची आगे बढ़ा दी।
“मेडिकल सर्टिफिकेट के लिए चेकअप कराना है।”
“अच्छा...आपको चश्मा लगता है? ”
“नहीं। यह धूप के लिए है।”
“आँख में कभी कोई तकलीफ़ हुई? ”
“नहीं सर।”
“बैठो।”
डाक्टर के कहने पर रमा उसी कुर्सी पर बैठ गई जिसमें थोड़ी देर पहले वह दुर्बल बच्चा बैठा था। सामने एक बोर्ड था जिसमें अंग्रेज़ी वर्णमाला के अक्षर लिखे हुए थे। डॉक्टर के कहने के अनुसार रमा ने क्रमश:दाईं,बाँईं आख को बंद करके सभी अक्षर पढ़ दिए। डाक्टर ने ओके कहा। रमा के फार्म में उसकी दृष्टि का विवरण लिख दिया। अब उठिए उसने रमा से कहा तो वह झेंप गई। “जी।थैंक्यू सर...” वह बाहर आ गई। यह डाक्टर संविदा नहीं होगा! सब कुछ तो आसान ही है। उसे खुशी और आत्मविश्वास महसूस हुए।

वह सीढ़ियाँ उतरकर नीचे आई तो भीड़ में खोजने लगी। किससे पूछूँ? एक नर्स को उसने पीछे से आवाज़ दी “सुनिए मैडम।” वह पीछे मुड़ी “क्या है?” रमा ने करीब आकर बिल्कुल धीरे से पूछा “पेशाब की जाँच किधर होती है?” “उधर...” दायेँ हाथ से इशारा कर नर्स चली गई।

रमा उस दरवाज़े के सामने थी। जिसके ऊपर दीवाल में पुती नीली स्याही के ऊपर सफ़ेद अक्षरों में लिखा था। पेशाब की जाँच यहाँ होती है। उसने अंदर देखा। यहाँ भी भीड़ थी। पर कोई औरत नज़र नहीं आ रही थी। वह सहमी हुई भीतर दाखिल हुई। यहाँ गोल छेद और उनके ऊपर जालियोंवाले दो काउंटर थे। एक से खाली शीशियाँ मिलती तथा जमा की जा रही थी। दूसरे से रिपोर्ट मिल रही थी। कमरे में अँधेरा जैसा था। पेशाब और रसायनों की मिली जुली अजीब गंध थी। उसने स्विच बोर्ड के आधार पर बल्ब या ट्यूब लाईट देखनी चाही तो वहाँ खाली था। पंखा भी देखने से लग रहा था सालों से नहीं चला होगा। उसमें मकड़ियों ने जाल बुन रखा था।

जब वह कमरे में घुसी उसने महसूस किया था कि सब उसे ही देखने लगे हैं। वह शीशी मिलने वाली कतार में लग गई। पहले तो इच्छा हुई थी कि बग़ल से सीधे काउंटर पर ही पहुँच जाऊँ। जल्दी से शीशी लेकर भागूँ। पर उसे उस खड़ूस औरत की भौंकती सी आवाज़ याद आ गई थी। यहाँ किसी ने बोल दिया तो लोग कैसे देखने लगेंगे।...वह नज़रें झुकाए खड़ी खड़ी आगे की ओर खिसकती रही। उसे वरदान सा लगा कि लाइन में कोई मर्द उसके पीछे नहीं है। वह आखिरी है।

बीस मिनट बाद उसका नंबर आ गया। उसने पर्ची आगे बढ़ा दी। कम्पाउंडर ने पर्ची के साथ उसे भी ग़ौर से देखा। फिर अंदर जाकर एक दराज़ से छोटी सी शीशी ले आया। रमा को पकड़ा दी। यह वैसी ही शीशी थी जैसी होमियोपैथी की गोलियों की होती है। उसने रमा को बताया-वापस यहीँ जमा करना है। बीस मिनट लगेंगे। रिपोर्ट बग़ल के काउंटर पर मिलेगी। अभी बीस रुपये जमा कर दीजिए।

रमा ने टिफिनवाला झोला वहाँ ज़मीन पर रखने की बजाय हाथ में ही फँसाकर बैग से निकालकर बीस रुपये दिये। जल्दी से बाहर आ गई। दरवाज़े के बाहर की खुली हवा में उसे राहत महसूस हुई। पर अब अगली चिंता थी “ट्वायलेट किधर है?” आसपास तो कहीं नहीं दिख रहा। उसने परेशान नज़र से फिर किसी नर्स की तजवीज शुरू की। कोई नहीं दिख रही थी। वह उस जगह आई जहाँ कुछ औरतें खड़ी थीं। एक से पूछा “यहाँ ट्वायलेट कहाँ है?” एक सीधी सादी औरत ने कहा

“यहाँ कहीं नहीं है। उधरवाला जो है उसमें किसी ने टट्टी कर दी है। मर्द भी भरे होंगे। बाहर ही किसी ओट में चले जाओ। पर कहाँ जाओगी यहाँ तो कोई झुरमुट भी नहीं है। यहाँ लोग हैं। उधर होटल हैं। पीछे कोई आफिस है और सामने सड़क देख ही रही हो। अस्पताल क्या है कोई औरत निर्लज्ज न हो तो लाज से मर जाए…”

रमा ने इतनी असहायता कभी महसूस नहीं की थी। उसकी कल्पना में भी ऐसा अस्पताल नहीं आया था। इसके अलावा तो वह पानी ही कम पीती थी। एक बार घर से निकलने के बाद लौटकर घर में आती थी। वह रुआँसी हो गई। फटीचर नौकरी के लिए इतनी ज़िल्लत!...यहाँ सुलभ काम्प्लेक्स भी पास नहीं। पर जाँच तो ज़रूरी है। उसने पाँच किलोमीटर दूर चौराहे पर स्थित सुलभ काम्प्लेक्स जाना तय किया।

रमा को लौटने में एक घंटा लग गया। उसने काऊंटर पर जाकर शीशी जमा की। कंम्पाउंडर ने पहले ही बता दिया। मैडम एक घंटा लगेगा तब तक एक्स रे वगैरह करवा लीजिए। वह क्या बहस करती। बाहर निकल आई।सीधे वहाँ पहुँची जहाँ एक्स रे हो रहा था। संयोग कहिए या क़िस्मत वहाँ आज भीड़ नहीं थी। जब रमा पहुँची सुबह मिला वही युवक एक लंबे चौड़े पीले लिफ़ाफ़े में एक्स रे का निगेटिव लेकर निकल रहा था। वह रमा को देखकर मुस्कुराया। रमा ने अपनी मुस्कान रोक ली। जवाब में सिर्फ़ देखा।

यहाँ उसने फिर एक फ़ार्म भरा। सौ रुपये की रसीद कटवायी। कम्पाऊंडर ने कहा “मैडम चेस्ट का एक्स रे होगा। शरीर में कोई धातु की चीज़ नहीं होनी चाहिए। रमा ने पहले समझा ही नहीं। जब उसे समझ आया तो वह सकुचा गई। यहाँ भी कोई एकांत नहीं था। उसने कम्पाउंडर से डरते डरते कहा-आप थोड़ी देर के लिए बाहर चले जाइए। उसने जल्दी से अपना ब्रा उतारकर बैग में रख लिया।

चलो यह मुसीबत भी निपटी। यहाँ भी निगेटिव एक घंटे बाद मिलेगा। सूखने में समय लगता है। कुछ नहीं कर सकते। सबकुछ कितना गंदा है। हे भगवान मैने इतना लुंज-पुंज,घटिया अस्पताल सोचा तक नहीं था। वह करीब करीब भागती हुई ईसीजी के लिए कक्ष में पहुँची।

वहाँ उसने पर्ची दिखायी। एक रजिस्टर में नाम पता लिखकर हस्ताक्षर किए। उधर चले जाइए महिला क्लर्क ने कहा। वह दूसरे कक्ष में पहुँची तो वहाँ हरे रंग के पर्दों से तीन ओर से घिरा हुआ एक बेड था। उसके बग़ल में ऊँचा टेबल था। जिसमें प्लग से लगी हुई तारों वाली कोई मशीन थी। कमरे में दो व्यक्ति थे। एक डॉक्टर के यूनीफ़ार्म में दूसरा साधारण ड्रेस में। यह डाक्टर भी संविदा ही होना चाहिए रमा ने सोचा। फिर उसे खुद ही कोफ्त हुई “मैं भी क्या हर समय संविदा ही पहचानती रहती हूँ!”

युवा डॉक्टर ने रमा का स्वागत मुस्कुराकर किया। उसका सहायक भी मुस्कुराया। सहायक ने रमा से पूछा “पहले कभी इसीजी करवाया है?” रमा ने इंकार में सिर हिलाया। सहायक तुरंत पलटा और उसने दरवाज़ा बंद कर दिया। डाक्टर ने रमा को झोला और बैग एक छोटे से स्टूल में रख देने को कहा।
“अब इधर आ जाइए। ” रमा बेड के पास पहुँची। उसे सहायक का दरवाज़ा बंद करना आपत्तिजनक लगा। “आपने दरवाज़ा क्यों बद कर दिया? खोलिए उसे।” सहायक ने कोई जवाब नहीं दिया। डॉक्टर ने शांत भाव से कहा
“कुर्ते को गले तक उठा लीजिए और लेट जाइए।”
“ यह कैसी बत्तमीज़ी है? आपको शरम नहीं आती कपड़े उतारने को कह रहे हैं। और आप श्रीमान जीsss” “दरवाज़ा खोलिए।” रमा बोलते बोलते काँपने लगी थी।
“आप शांत रहिए। ईसीजी में यह करना पड़ता है। हमें कुछ मसीनें लगानी होती हैं जो कपड़े के ऊपर से नहीं लगायी जा सकती। यह ज़रूरी है। दरवाज़ा इसलिए बंद किया गया है कि बाहर भीड़ है। लोग घुस आते हैं। डॉक्टर ने जवाब दिया।”
“मुझे नहीं कराना ईसीजी। ” वह जाने लगी
“मत कराइए हम आपको बुलाने नहीं गए थे। पर यदि कराना है तो जैसा कहा जा रहा है करना पड़ेगा।”
“यदि यही सब करना पड़ता है तो यहाँ लेडी डॉक्टर क्यों नहीं है। आप लेडी डॉक्टर बुलाइए।”
“लेडी डाक्टर छुट्टी पर है। अगर आपको उन्हीं से करवाना है तो एक महीने बाद जब वो आएँगी तब करवा लेना।”
रमा को लगा जैसे ग़ुस्से और अपमान से उसके दिमाग़ की नस फट जाएगी। वह अपना झोला,बैग उठाने लगी। सहायक ने समझाया
“मैडम नाराज़ मत हों। डाक्टर भगवान का रूप होता है। इससे ज्यादा आपसे क्या कहें? ” “आप पढ़ी लिखी समझदार लग रही हैं। फिर भी इतना ग़ुस्सा कर रही है।”
“पढ़ी लिखी हूँ इसीलिए तो। आपको लेडी डाक्टर बुलाना पड़ेगा। और हाँ मुझे सीख देने की कोई ज़रूरत नहीं।”

रमा तेज़ी से दरवाज़ा खोलकर बाहर निकल गई। वह पसीने से भीगी हुई थी। उसे तब ज्यादा हैरानी हुई जब उसने देखा बाहर इसीजी के लिए लड़कियों की लाईन लग गई है ये इतनी कहाँ से आ धमकीं? अभी तक तो कोई नहीं थी। क्या इन्हें भी पता नहीं? उसने आश्चर्य से भरकर सोचा। तभी अंदर से अगले की पुकार आई। एक लड़की अंदर चली गई। रमा की जैसी हालत हो रही थी उसे देखकर एक लड़की से पूछे बिना न रहा गया
“क्या हुआ ? आपका टेस्ट हो गया? ”
“नहीं”
“क्यों अंदर डाक्टर तो है न? ”
“डॉक्टर तो है लेकिन लेडी डॉक्टर नहीं है।”
“उससे क्या हुआ ? ”
“जेन्ट्स है और जाँच के लिए कुर्ता उतारने को कह रहा है।”
“अरे sss…क्यों ”
”बोलता है ऐसे ही जाँच होती है। ऊपर से दरवाज़ा बंद कर लिया था।”
“ बाप रेsss…आपने क्या कहा? ”
“मैंने कहा लेडी डॉक्टर को बुलाओ।”
“तो क्या कहा उसने? ”
“लेडी डॉक्टर महीने भर की छुट्टी पर हैं।”
यह सुनकर दूसरी लड़की बीच में ही बोली
“सब बहाना है। भ्रष्ट और कमीना है यह पूरा अस्पताल ही। पर कुछ नहीं कर सकते। मैं ही दूसरी बार आई हूँ। पहली बार मैंने भी सीएमओ से शिकायत की थी। उसने बेशर्मी से कहा था। स्टाफ़ की भर्ती मेरे हाथ में नहीं। यहाँ कोई लेडी डाक्टर आए तब तक के लिए जाँच रोकी नहीं जा सकती। हर रोज़ सैकड़ों मरीज़ यहाँ आती हैं। किसी को आपत्ति नहीं। मैं कुछ नहीं कर सकता। मैंने उससे पूछा था तब मुझे प्राइवेट अस्पताल की जाँच सबमिट करने का परमिशन दीजिए। हरामी ने कहा था। हम यह भी नहीं कर सकते। आपके लिए मेडिकल बोर्ड का रूल नहीं बदला जा सकता।”
“फिर आपने क्या किया? ”
“क्या करती जाँच करवायी थी।”
“अब दुबारा किसलिए करवा रही हैं? ” रमा ने दूसरा सवाल पूछा
“मैंने तब संविदा वर्ग तीन के लिए करवाया था। अब मेरा महिला एवं बाल विकास विभाग में सेलेक्शन हो गया है।”
“ तो क्या पिछला सर्टिफिकेट नहीं मानते? ”
“नहीं हर बार नया चाहिए। कमाई का धंधा बना रखा है। ”

रमा का ग़ुस्सा ठंडा पड़ रहा था। गिचिर-पिचिर सुनकर आ गईं अस्पताल की एक दो महिला कर्मचारियों ने भी उसे चुपचाप जाँच करवा लेने की सलाह दी। तर्क यह था कि जब यहाँ लेडी स्टाफ़ है ही नहीं तो क्या किया जा सकता है ?

रमा के बाद गई लड़की लगभग रोती हुई बाहर निकल आई थी। उसके हाथ में लंबी काग़ज़ की पट्टी जैसी जाँच रिपोर्ट थी। लड़कियाँ एक एककर अंदर जा रहीं थीं। जो नहीं जानती थी उनके दिल में शर्म थी,डर था। जिन्हें मालूम था वे धिक्कारती हुई अंदर खिसक रहीं थीं। पर विरोध के लिए कोई तैयार नहीं थी। रमा का दिल हुआ कि पुलिस में रिपोर्ट लिखा दे। सीएमओ का सिर फोड़ दे। पर वह कुछ नहीं कर पा रही थी। सर्टिफिकेट ज़रूरी था। मेडिकल की वजह से यह नौकरी गई तो फिर दूसरी मिले न मिले। लड़कियाँ ही उसे समझा रहीं थी। उलझने से फायदा नहीं। कुछ नहीं होता। पाँच मिनट के लिए आँख बंद कर लो। थूककर निकल आओ।

धीरे धीरे रमा भी तैयार हो गई। जब वह मन मारकर अंदर पहुँची तो डॉक्टर और सहायक अधिक मुस्कुरा रहे थे। उसने जबड़े भींच लिए। मन ही मन गंदी गाली दी।

डाक्टर ने कहा आइए मैडम जल्दी कीजिए। वह बेड पर लेट गई। कुर्ते को गले तक उठाकर चेहरा ढँक लिया। सहायक ने कथित मर्यादा का ध्यान रखते हुए दरवाज़ा बंद कर दिया था।

फिर उसने जो महसूस किया उस शर्म,घृणा,अपमान को शब्दों में नहीं बताया जा सकता।यूरीन टेस्ट,एक्स रे रिपोर्ट लेते और मेडिकल बोर्ड के कुछ औपचारिक सवालों का जवाब देते हुए उसे यही लगता रहा कि निर्वस्त्र हूँ। ईसीजी के लिए पेट तथा छाती की त्वचा में लगाया गया लिक्विड जीवन भर चिपचिपाता रहेगा।

रमा जब मेडिकल सर्टिफिकेट लेकर अस्पताल से निकली तो तीन बज रहे थे। उसने एक हाथ में टिफ़िनवाला झोला पकड़ रखा था। उसे सर्टिफिकेट बैग में रख लेने का ध्यान भी नहीं रहा। सबकुछ इतना अपमान जनक,गलीज़ बीता था कि उसे ग़ुस्सा और रुलायी साथ साथ आ रहे थे। कुछ नहीं कर सकती मेरे जैसी लड़की। एक दो कौड़ी की नौकरी के लिए बेआबरू होना ही हमारी नियति है। उसने सर्टिफिकेट को हिकारत से देखते हुए उसे बैग में रख लेना चाहा। कंधे से बैग उतारकर उसकी चैन खोली तो उसके मुह से चीख निकल गई। ओ अम्मा !... ब्रा बैग में ही थी। वह दोनों हाथ में मुँह छुपाकर रोने लगी।

“हरामजादों को जेल में सड़-सड़कर मरना चाहिए।” वह बुदबुदा रही थी।

क़रीब साढ़े पाँच बजे जब वह गाँव पहुँची तो वहाँ सन्नाटा था। चार बजे से ही शुरू हो जानेवाला मंदिर का लाउडस्पीकर चुप था। लोग जैसे बाहर थे ही नहीं या कहीँ गए हुए लग रहे थे। आसमान में बादल घिर रहे थे। लगता था ज़ोर की बारिश होगी। फिर ऐसा हुआ कि रमा को टिफिनवाला बैग़ सहसा भारी लगा। उसकी निगाह गाँव के तालाब की ओर चली गई। वहाँ कुछ लोग जमा थे। कुछ लोग उधर ही जाते दिख रहे थे। उसे संदेह हुआ कोई गुज़र गया क्या? सहसा उसे पयासी बाबा की याद आई…लेकिन तभी पयासिन दाई उसे अपनी ओर आती दिखीं। पास पहुँचते ही उन्होंने कहा

“आ गई मोर लाला। तुम्हें नाहक परेशान किया। पयासी बाबा की छुट्टी हो गई है। वे ठीक होकर घर आ गए हैं। ला झोला मुझे दे दे तू थक गई होगी।”
“हाँ दाई जब मैं अस्पताल पहुँची तो बाबा की छुट्टी हो गई थी। तुम घर चलकर बैठो न? ”
“नहीं मोर करेजा। घर चलने की कल नहीं है। थोड़ी देर पहले पयासी बाबा आ गए हैं। तुम मिल गई तो अच्छा हुआ। तुम्हारे पास दस रुपये हों तो मुझे दे दो। मैं एक नारियल खरीदूँगी। न हो तो कोई बात नहीं उधार ले आऊँगी। मैं पांड़े की दुकान पर ही जा रही हूँ…”
“दाई पैसे तो मैं तुम्हें दे दूँगी पर ये तो बताओ नारियल किसलिए खरीदोगी? ”
“तुम्हें नहीं पता बिटिया। पयासी बाबा चंगे हो गए हैं। मैनें द्वारकाधीश को नारियल बदा था। उसी की खातिर लेने जा रही हूँ।”
“यह तो बहुत अच्छा हुआ। रमा खुश हो गई। उसने पयासिन दाई को रुपये दे दिये। वे उसे आशीर्वाद देती हुई चली गईं।”
“खूब तरक्की करो बेटा। ज़िंदगी में कभी कोई कष्ट न हो…द्वारकाधीश की कृपा बनी रहे।”

किंतु रमा ने घर पहुँचते ही जो सुना उससे स्तब्ध रह गई। उसकी मां ने दूध की दोहनी धोकर पानी बाहर फेंकते हुए कहा। “रमा,झोला बाहर ही रख दो। पयासी बाबा शांत हो गए है…”
“क्याsss…लेकिन दाई तो कह रही है पयासी बाबा ठीक हो गए। वह उनके लिए नारियल खरीदने गई है। मैंने ही रुपये दिए हैं।”
“हाँ दाई को सदमा न लगे इसलिए घरवालों ने उन्हें समझा दिया है कि पयासी बाबा ठीक होकर आए हैं। पहले से ही पागल हैं और भी पागल हो जाएँगी। तब कौन सम्हालेगा। अपनी औलाद होती तो और बात थी। देवर-देवरानी कितना सम्हांलेगे।”
“लेकिन यह तो बहुत ग़लत है। सरासर अन्याय है। बुढ़िया जानेगी और कैसे नहीं जानेगी ? कोई न कोई बता ही देगा। तब क्या हालत होगी उसकी?”
“जो होगा,होगा तुम क्यों चिंता करती हो। ज़माने का दोष है। बेचारी की क़िस्मत में ही दुख लिखा है।”

माँ यह कहकर काम में लग गई थी। उसे गाय दुहनी है। निदाई से निकला चारा धोना है। दिन जा रहा है। लगता है पानी गिरेगा। मवेशी अंदर बाँधने हैं।

रमा के लिए यह अपने साथ हुई दुर्घटना से भी बुरी बात लगी। कैसी दुनिया है। कैसे कैसे लोग हैं। हे भगवान ! कोई क्या करे। कैसे जिए। उसकी भूख प्यास मानो मर गई थी।

वह सोच रही थी अगर मैंने सबकुछ इसी तरह बर्दाश्त किया तो एक दिन दिल-दिमाग़ बिल्कुल सुन्न हो जाएँगे। कुछ भी महसूस होना ही बंद हो जाएगा। मैं ऐसी ज़िंदगी नहीं जीना चाहती। देर रात अम्मा बाबू और भाइयों को खिला चुकने के बाद उसने लालटेन के उजाले में बीबीसी के पते पर हिंदी सेवा की अध्यक्ष अचला शर्मा के नाम यह पत्र लिखा।

आदरणीया मैडम जी,
मैं म.प्र. के रीवा ज़िले की जगहथा गाँव की रहनेवाली हूँ। आज मैं रीवा के ज़िला चिकित्सालय में सिविल सर्जन द्वारा ज़ारी किया जानेवाला वाला मेडिकल सर्टिफ़िकेट बनवाने गयी थी। वहाँ ईसीजी के चेकअप के लिए पुरुष जूनियर डाक्टर था। उसका असिस्टैंट भी पुरुष ही था। एक भी महिला वहाँ नहीं थी। दरवाजा बंद कर डाक्टर इस काम के लिए लडकियों के ऊपर पहने जानेवाले कपड़े उतरवा देता था। फिर दोनों जानबूझकर मशीन लगाने में देरी कर रहे थे। डॉक्टर की हरकतें नितांत गंदी थीं। मैं अध्यापिका पद के लिए मेडिकल सर्टिफिकेट चाहती थी जिसमें यह जाँच ज़रूरी भी नही। मैंने जब इस निर्लज्ज प्रक्रिया का विरोध किया,लेडी डॉक्टर की मांग की तो उस जूनियर डाक्टर तथा उसके सहायक ने कहा-यह सरकारी अस्पताल है। यह अच्छा है हमने आपके लिए दरवाजा बंद कर लिया वरना वह खुला ही रहता है। कुछ दूसरी लडकियाँ इससे विचलित थीं और रो रहीं थीं। उन्हे कर्मचारी तथा अन्य लडकियाँ भी समझा रही थीं कि जाओ डाक्टर भगवान होता है। ऐसा एक शहरी ज़िला अस्पताल,जो ज़िला संभाग भी है, में हो रहा है। देखने,विरोध करनेवाला कोई नहीं। एक लड़की ने तो बताया कि सीएमओ से शिकायत के बाद भी उन्होंने इसे ग़लत नहीं माना। मैं यह मामला BBC के ध्यान में इसलिए ला रही हूँ कि मुझे यहाँ के अखबारों और दूसरे माध्यमों पर भरोसा नहीं। मुझे यह खयाल आया था कि मैं शहर के सिटी चैनल आफिस फोंन करूँ पर मैंने ऐसा नहीं किया। क्योंकि मैंने वहाँ के कुछ पत्रकारों के बारे में सुना है। स्थानीय टीवी चैनलों की असलियत मैं जानती हूँ। वे अस्पताल से पैसे ऐंठकर मुझे तमाशा बनाकर छोड़ देंगे। मैं यह पत्र इस उम्मीद में लिख रही हूँ कि मेरे साथ हुआ जो हुआ आगे किसी लडकी का ऐसा उत्पीड़न नही हो। भविष्य में कोई बडा अनर्थ होने से रुक जाए।

आशा है आप मेरी इस चिट्ठी को न केवल प्रसारित करेंगी बल्कि कोई सार्थक पहल भी करेंगी।

आपकी एक श्रोता
रमा
गाँव पोस्ट-जगहथा
जिला-रीवा
म.प्र.

रमा ने पत्र लिखने के बाद उसे मोड़ा,लिफ़ाफ़े में रखकर चिपकाया और सिरहाने रखकर सो गई।

-शशिभूषण

मो.-09025743718