सोमवार, 14 फ़रवरी 2011

अच्छी स्त्री

रेल में सफ़र करते हुए विश्वास कर लेने से बचने की सलाह दी जाती है.ट्रेन में आए दिन ऐसी ऐसी वारदातें,हादसे सुनाई देते रहते हैं कि लोगों द्वारा इस सलाह को आदत बना लेने में बुराई भी नहीं दिखती.लेकिन सच तो यही है कि रेल में दो चार को छोड़कर बाक़ी अच्छे मनुष्य ही होते हैं.मैं सोचता हूँ यात्रा में इंसान अपने मन के अधिक क़रीब होता है.इसी फ़ितरत को ध्यान में रखकर अपराधियों ने ट्रेन का इस्तेमाल शुरू किया होगा.इस पर विस्तार से सोचा जा सकता है.

मेरे साथ उल्टा होता रहा है.हर बार कोई न कोई दिलचस्प इंसान,यादगार शख्सियत मिल ही गयी.उनमें से कइयों से तो आज मेरा दोस्ताना है.अपनी इसी उपलब्धि और कमज़ोरी के चलते मैंने स्लीपर बोगी में ही चलने का नियम बना लिया है.साधारण डिब्बे में बहुत मुश्किल होती है.बैठना हो ही नहीं सकता वरना मेरा खूब मन होता है कि वहीं बैठें.जैसा नौकरी से पहले करते रहे हैं.लोगों को देखें,उनसे बातें हो...पिछले तीन सालों में मैंने हज़ारों किलोमीटर लंबी-लंबी रेल यात्राएँ की हैं.पचास-पचास घंटे ट्रेनों में बैठा हूँ.दर्जनों इंसान हैं जो इन यात्राओं में मेरे लिए यादगार रहे हैं.सब पर लिखने का मन भी होता है जो क्लासिक ही लिखने की सपने देखने जैसी प्रवृत्ति में जाने कब पूरा हो या न भी हो.

लेकिन आज मैं केवल पंद्रह मिनट के सफ़र के कुछ क्षण बाँटने से खुद को रोक नहीं पा रहा हूँ.मैं आजकल तमिलनाडु में हूँ.यहाँ के तक्कोलम क़स्बे में रहते हुए जब मैं किसी काम से अरक्कोणम जाता हूँ और लौटते हुए पाँच बज रहे हों तो पाँच बजे की ही लोकल पकड़कर तिरवलंगाडु होते हुए घर लौटता हूँ.चेन्नै सेंट्रल जानेवाली इस लोकल को पकड़ लें तो ठीक पंद्रह मिनट में तीसरा स्टॉप तिरुवलंगाड़ु है.वहाँ से कैंपस में ही स्थित अपने घर के लिए सी.आई.एस.एफ. की शिफ्ट गाड़ी मिल जाती है...यानी छह बजने से पहले कुल दो रुपये के किराए में घर.

उस दिन मैं टिकट लेकर चार नंबर प्लेटफ़ॉर्म पर खड़ा था.जब दस मिनट रह गए तो सोचा अब बैठते हैं.सामने की ही बोगी में खिड़कीवाली सीट खाली थी.बैठे हुए बाहर झाँकने में मैंने अंदाज़ किया कि एक स्त्री खाली सीट के लिए इसी बोगी में आना चाहती है.मैने उसे ग़ौर से देखा.उसका बुर्का पीठ पर उल्टा लटक रहा था.गेहुँआ रंग,भरे चेहरे की वह औरत मुझे अत्यंत सौम्य और शांत स्वभाव की लगी.वह जिस तरह देख रही थी उससे मुझे अनुमान लगाने में देर न लगी कि वह इसी बोगी में आएगी.सोच तो मैंने यहाँ तक लिया कि हो सकता है वह मेरे सामने की खाली सीट पर ही बैठना चाहे.कुछ मिनटों में वैसा ही हुआ.वह आ गई.इधर उधर नज़र दौड़ाने के बाद वह मेरे सामने खड़ी थी.मैंने देखा उसके साथ एक पंद्रह सोलह साल की लड़की,अधेड़ स्त्री-पुरुष भी थे.चारों मेरे सामने की सीट पर बैठ गए.लेकिन जब चार जन का बैठना मुश्किल लगा तो पुरुष मेरी बगल में आ बैठा.ट्रेन चल दी.सरकती ट्रेन के बाहर से मूँगफली बेंचनेवाले ने एक पैकेट बढ़ाया जिसे उस स्त्री ने हाथ बढ़ाकर पकड़ लिया.लड़की जैसे तैयार ही थी उसने पाँच रुपये का सिक्का बढ़ा दिया.

स्त्री पैकेट से निकालकर तीनों को फलियाँ दे रही थी.मैं असहज हो जाने से बचने के लिए कि वह मुझे भी मूँगफली देने लगी तो मुझे इंकार करना पड़ेगा मैं खिड़की से बाहर देखने लगा था.क्योंकि मुझे लग रहा था कि वह मुझसे भी ज़रूर पूछेगी.बाहर देखते हुए मैने महसूस किया कि खुला हुआ पैकेट मेरे सामने है.स्त्री मुँह से आग्रह करने की हिम्मत नहीं कर पा रही है.मेरी किसी तरह की प्रतिक्रिया न पाकर उसने लड़की की ओर पैकेट बढ़ा दिया.

उसका घूमता हुआ हाथ एक बार फिर मेरे सामने था.मैंने इस बार पैकेट को देखा और स्त्री को भी.वह कुछ नहीं बोली.मैंने सकुचाते हुए कहा धन्यवाद...आप लोग लीजिए.स्त्री तब भी पैकेट मेरे सामने किए रही.पुरुष ने कहा-ले लीजिए.ट्रेन में मूँगफली अच्छी लगती है.मैंने झिझकते हुए कुछ फलियाँ उठा लीं.सौजन्यता दिखाते हुए स्त्री से पूछा-आप लोग सेंट्रल जा रहे हैं ? नहीं पेरंबूर तक जाएँगे.मेरा अगला सवाल था-आपको हिंदी आती है ? उसने मुस्कुराकर कहा-थोड़ा थोड़ा.

वह मुझे काफ़ी सुंदर,समझदार लगी.अब मैने तीनों को ठहरकर देखा.मुझे उनकी की शक्ल ने चकित कर दिया.मैंने स्त्री से पूछा-यह आपकी बेटी है ? उसने कहा –हाँ.मैंने अगला सवाल किया-और ये आपकी मां हैं ? उसने सिर हिलाया.मैं चहककर बोला-आप तीनों की शक्लें इतनी मिलती हैं कि कोई भी झट से जान लेगा और सच तो यह है कि इतनी मिलती-जुलती शक्लें मैंने आज तक देखी ही नहीं.वह मुस्कुराई.उसने बताया यह मेरी एक ही लड़की है.नौ क्लास में पढ़ती है.मैं भी मां की अकेली हूँ.मुझे इस संयोग और समरूपता पर खासी खुशी हुई.

लड़की से मैंने उसका स्कूल पूछा.वह बताकर इयर फ़ोन लगाने में व्यस्त हो गई.आप कहाँ से हैं ? स्त्री ने मुझसे पहला सवाल किया.मेरे म.प्र. का बताने पर उसकी मां ने जोड़ा कि यहाँ खाने-बोलने में तो बहुत दिक्कत होता होगा.मैंने कहा कि अब उतनी नहीं होती.स्त्री ने मुझसे जानना चाहा मैं कहाँ उतरूँगा.मैंने बताया बस अगले ही स्टॉप पर.अच्छा....कहकर वह उबली हुई जड़ों का एक गट्ठर निकालने लगी.

इस जड़ को जो नीचे से मोटी और ऊपर पतली होती जाती है तमिलनाडु में लोग खूब खाते हैं.मैंने उसे देखा तो बहुत था पर खाया कभी नहीं था.वह मुझे भी देने लगी.मैंने पूछा यह क्या है?उसने नाम बताया.कई बार पूछने-बताने पर भी उसका उच्चारण मेरी पकड़ में नहीं आया (आज तक मैं उसका नाम नहीं याद कर पाया हूँ.तमिल अब तक सीख न पाने की एक बड़ी वजह यह भी है कि वह बोलने में बड़ी संक्षिप्त और उलझाऊ है.मेरी वैसी जीभ ही नहीं लटक पाती.) मुझे तो पता भी नहीं इसे कैसे खाते हैं.मैंने कहा.उसने एक जड़ को तोड़कर,छीलकर मुझे खाना समझा दिया.साथ ही एक छीला हुआ टुकड़ा भी पकड़ा दिया.मुझे उसका स्वाद उबले सिंघाड़े से मिलता जुलता लेकिन थोड़ा कसैला लगा.अच्छा है...मेरे कहने पर उसने कहा मुझे मालूम है आपको अच्छा नहीं लगा होगा...लेकिन थोड़ा बाद मे पसंद आने लगेगा...

यह स्त्री वाकई समझदार,अच्छी और कितनी निश्छल है !..

ट्रेन धीमी होने लगी थी.मैं अपना बैग कंधे में टाँगकर खड़ा हो गया.चलने लगा तो उसने टोका आपका झोला.मैंने शुक्रिया कहा और उतर गया.

मैं प्लेटफार्म पर खड़े खड़े एक बार उस स्त्री को देखना चाहता था.पर लोकल चलते ही रफ्तार पकड़ लेती है.वह चाहकर भी मेरी मदद नहीं कर सकती थी.खिड़की पर उसकी बेटी बैठी थी.लड़की ने मुझे हँसमुख बाय किया था...

घर लौटने के बाद और कई बार अरक्कोणम स्टेशन पर मुझे वह स्त्री याद आई.उसके बारे में सोचते हुए मुझे अपना यह सोचना अजीब लगता है कि वह इतनी सुंदर और अच्छी है कि उसने ज़रूर ज़िंदगी में बड़े धोखे खाए होंगे.लेकिन उसे भूल कोई नहीं पाया होगा...साथ ही कुछ लोगों के इस कहने पर चीख पड़ने का मन होता है कि मुसलमानों पर भरोसा नहीं किया जा सकता....



3 टिप्‍पणियां:

  1. सज्जन और दुर्जन तो किसी भी समुदाय में मिल जायेंगे.
    बढ़िया संस्मरण !

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  2. जरा उलझा सा लगा आपका संस्‍मरण.

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  3. संदीप पांडेय15 फ़रवरी 2011 को 8:59 am बजे

    हम सबकी जिंदगी इसी तरह की अच्छी स्त्रियों की देन है। जब तक दुनिया में अच्छी स्त्रियां मौजूद हैं इसे कोई खतरा नहीं है। एक अच्छी स्त्री पर अच्छा सा संस्मरण

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