सोमवार, 20 सितंबर 2010

‘फायनल असाल्ट ऑन हिन्दी‘:प्रभु जोशी


हिंदी का क्रियोलीकरण (हिंग्लिशीकरण) कितनी गंभीर समस्या है तथा यह किन साम्राज्यवादी सुनियोजित नीतियों का प्रतिफल है इसे प्रभु जोशी पिछले कई सालों से लगातार अपने भाषणों तथा लेखों में दो-टूक उदघाटित करते आ रहे है.इस संबंध में उनके कथादेश में प्रकाशित दो लेख-इसलिए हिंदी को विदा करना चाहते हैं हिंदी के कुछ अखबार तथा डोमाजी उस्ताद मारो स्साली को दस्तावेज जैसे हैं.बीते 14 सितंबर को हिंदी दिवस के अवसर पर लेखक का प्रतिरोध तब कार्य मुखर और आंदोलन की शक्ल में सामने आया जब उनकी अगुवाई में इंदौर के लेखकों,बुद्धिजीवियों ने गांधी प्रतिमा के सामने बीस से अधिक हिंदी अखबारों की होली जलायी.यह विरोध अखबार विरोध नहीं था(हालांकि दुर्भाग्य से मीडिया का एकतरफ़ा वर्चस्व इसे इसी रूप में दफ़नाने में क़ामयाब दिखा)बल्कि प्रतिकात्मक रूप से अखबारों की उस स्वेच्छाचारिता के खिलाफ़ आवाज़ थी कि अखबारों द्वारा ज़ारी बेलगाम हिंग्लिशीकरण बंद हो.क्रियोलीकरण के पीछे चली आती देवनागरी को विस्थापित कर रोमन लाने की कूटनीति,प्रायोजित बौद्धिकी असफल हो.वास्तव में यह अपनी भाषा,लिपि बचाने की एक वाजिब,पूर्वग्रहरहित मांग थी जिसका मीडिया से भयाक्रांत समाज ने नोटिस तक नहीं लिया.कुछ आतुर-अंध विकासवादियों ने दकियानूसी,निदनीय पहल साबित करने में भी वर्चुअल स्पेस का पूरा फायदा उठाया.नीचे जो लेख आप पढ़ेंगे उसकी इतनी लंबी भूमिका शायद उचित न लगे.मेरी भी असहमति अपनी जगह है ही कि इस लेख का शीर्षक,अनेक उद्धरण अँगरेज़ी में क्यों हैं (हालांकि जोशी जी इसे भास्कर के लिए लिखे गए सीमित शब्दसीमा होने की बाध्यता से जस्टीफ़ाई करते हैं) पर इसके बावजूद इस लेख और प्रभु जोशी जी की समग्र चिंता से मैं खुद को गहरे जुड़ा हुआ पाता हूँ.मैं भी सोचता हूँ यह लड़ाई जीतने तक ज़ारी रहे.आप क्या कहते हैं?-ब्लॉगर

सातवें दशक के उत्तरार्द्ध में प्रकाशित एल्विन टॉफलर की पुस्तक ‘तीसरी लहर‘ के अध्याय ‘बड़े राष्ट्रों के विघटन‘ को पढ़ते हुए किसी को भी कोई कल्पना तक नहीं थी कि एक दिन रूस में गोर्बाचोव नामक एक करिश्माई नेता प्रकट होगा और ‘पेरोस्त्रोइका‘ तथा ‘ग्लासनोस्त‘ जैसी अवधारणा के नाम से ‘अधिरचना‘ के बजाय ‘आधार‘ में परिवर्तन की नीतियां लागू करेगा और सत्तर वर्षों से महाशक्ति के रूप में खड़े देश के सोलह टुकड़े हो जायेंगे। अलबत्ता, राजनीतिक टिप्पणीकारों द्वारा उस अध्याय की व्याख्या ‘बौद्धिक अतिरेक‘ से उपजी भय की ‘स्वैर-कल्पना‘ की तरह की गयी थी। लेकिन, लगभग ‘स्वैर-कल्पना‘ सी जान पड़ने वाली वह ‘भविष्योक्ति‘ मात्र दस वर्षों के भीतर ही सत्य सिद्ध हो गयी। बताया जाता है कि उन ‘क्रांतिकारी‘ अवधारणाओं के जनक अब एक बहुराष्ट्रीय निगम से सम्बद्ध हैं।

हमारे यहां भी नब्बे के दशक में ‘आधार‘ में परिवर्तन को ‘उदारीकरण‘ जैसे पद के अन्तर्गत ‘अर्थव्यवस्था‘ में एकाएक उलटफेर करते हुए, बहुराष्ट्रीय निगमों तथा उनकी अपार पूंजी के प्रवाह के लिए जगह बनाना शुरू कर दी गयी। कहने की जरूरत नहीं कि ऐसी निगमें और उनकी पूंजी विकसित राष्ट्रों के नव-उपनिवेशवादी मंसूबों को पूरा करने के अपराजेय और अचूक शक्ति केन्द्र हैं, जिसका सर्वाधिक कारगर हथियार है, ‘कल्चरल इकोनॉमी‘ और जिसके अन्तर्गत वे ‘सूचना‘, ‘संचार‘, ‘फिल्म-संगीत‘ और ‘साहित्य‘ के जरिये ‘अधोरचना‘ में सेंध लगाते हैं। और फिर धीरे-धीरे उसे पूरी तरह ध्वस्त कर देते हैं। नव उपनिवेश के शिल्पकार कहते हैं, ‘नाऊ वी डोण्ट इण्टर अ कण्ट्री विथ गनबोट्स, रादर विथ लैंग्विज एण्ड कल्चर‘। पहले वे अफ्रीकी राष्ट्रों में उनको ‘सभ्य‘ बनाने के उद्घोष के साथ गये और उनकी तमाम भाषाएं नष्ट कर दीं। ‘वी आर द नेशन विथ लैंग्विज व्हेयरएज दे आर ट्राइब्स विथ डायलेक्ट्स‘। लेकिन, भारत में वे इस बार ‘उदारीकरण‘ के बहानेख् उसे ‘सम्पन्न‘ बनाने के प्रस्ताव के साथ आये हैं। उनको पता था कि हजारों वर्षों के ‘व्याकरण-सम्मत‘ आधार पर खड़ी ‘भारतीय भाषाओं‘ को नष्ट करना थोड़ा कठिन है। पिछली बार, वे अपनी ‘भाषा को भाषा‘ की तरह प्रचारित करके तथा ‘भाषा को शिक्षा-समस्या‘ के आवरण में रखकर भी, भारतीय भाषाओं के नष्ट नहीं कर पाये थे। उल्टे उनका अनुभव रहा कि भारतीयों ने ‘व्याकरण‘ के ज़रिये एक ‘किताबी भाषा‘ (अंग्रेजी) सीखी। ज्ञान अर्जित किया, लेकिन उसे अपने जीवन से बाहर ही रख छोड़ा। उन्होंने देखा, चिकित्सा-शिक्षा का छात्र स्वर्ण-पदक से उत्तीर्ण होकर श्रेष्ठ ‘शल्य-चिकित्सक‘ बन जाता है, लेकिन ‘उनकी‘ भद्र-भाषा उसके जीवन के भीतर नहीं उतर पाती है। तब यह तय किया गया कि ‘अंग्रेजी‘ भारत में तभी अपना ‘भाषिक साम्राज्य‘ खड़ा कर पायेगी, जब वह ‘कल्चर‘ के साथ जायेगी। नतीज़तन, अब प्रथमतः सारा जोर केवल ‘भाषा‘ नहीं बल्कि, सम्पूर्ण ‘कल्चरल-इकोनामी‘ पर एकाग्र कर दिया गया। इस तरह उन्होंने भाषा के प्रचार को इस बार, ‘लिंग्विसिज्म‘ कहा, जिसका, सबसे पहला और अंतिम शिकार भारतीय ‘युवा‘ को बनाया जाना, कूटनीतिक रूप से सुनिश्चित किया गया।

बहरहाल, भारत में अफ्रीकी राष्ट्रों की तर्ज पर सबसे पहले एफ.एम. रेडियो के जरिये ‘यूथ-कल्चर‘ का एक आकर्षक राष्ट्रव्यापी ‘मिथ‘ खड़ा किया गया, जिसका अभीष्ट युवा पीढ़ी में अंग्रेजी के प्रति अदम्य उन्माद तथा पश्चिम के ‘सांस्कृतिक उद्योग‘ की फूहड़ता से निकली ‘यूरो-ट्रैश‘ किस्म की रूचि के ‘अमेरिकाना मिक्स‘ से बनने वाली ‘लाइफ स्टाइल‘ (जीवन शैली) को ‘यूथ-कल्चर‘ की तरह ऐसा प्रतिमानीकरण करना कि वह अपनी ‘देशज भाषा‘ और ‘सामाजिक-परम्परा‘ को निर्ममता से खारिज करने लगे। यहां पुरानी ‘रॉयल चार्टर‘ वाली सावधानी नहीं थी ‘दे शुड नॉट रिजेक्ट ‘ब्रिटिश कल्चर‘ इन फेवर ऑफ देअर ट्रेडिशनल वेल्यूज।‘ खात्मा जरूरी है, लेकिन, ‘विथ सिम्पैथेटिक एप्रिसिएशन ऑव देयर कल्चर।‘ इट मस्ट बी लाइक अ डिवाइन इन्टरवेशन। नतीजतन, अब सिद्धान्तिकी ‘डायरेक्ट इनवेजन‘ की है। ‘देयर स्ट्रांग एडहरेंस टू मदरटंग्स‘ हेज टु बी रप्चर्ड थ्रू दि प्रोसेस ऑव ‘क्रियोलाइजेशन‘ (जिसे वे रि-लिंग्विफिकेशन ऑव नेटिव लैंग्विजेसेस‘ कहते हैं)।

क्रियोलीकरण का अर्थ, सबसे पहले उस देशज भाषा से उसका व्याकरण छीनो फिर उसमें ‘डिस्लोकेशन ऑव वक्युब्लरि‘ के जरिए उसके ‘मूल‘ शब्दों का ‘वर्चस्ववादी‘ भाषा के शब्दों से विस्थापन इस सीमा तक करो कि वाक्य में केवल ‘फंक्शनल वर्डस्‘ (कारक) भर रह जायें। तब भाषा का ये रूप बनेगा। ‘यूनिवर्सिटी द्वारा अभी तक स्टूडेण्ट्स को मार्कशीट इश्यू न किये जाने को लेकर कैम्पस में वी.सी. के अगेंस्ट जो प्रोटेस्ट हुआ, उससे ला एण्ड आर्डर की क्रिटिकल सिचुएशन बन गई (इसे वे फ्रेश-लिंग्विस्टिक लाइफ कहते हैं)।
उनका कहना है कि भाषा के इस रूप तक पहुंचा देने का अर्थ यह है कि नाऊ द लैंग्विज इज रेडी फार स्मूथ ट्रांजिशन।‘ बाद इसके, अंतिम पायदान है-‘फायनल असाल्ट ऑन लैंग्विज।‘ अर्थात् इस ‘क्रियोल‘ बन चुकी स्थानीय भाषा को रोमन में लिखने की शुरूआत कर दी जाये। यह भाषा के खात्मे की अंतिम घोषणा होगी और मात्र एक ही पीढ़ी के भीतर।

बहरहाल, हिन्दी का ‘क्रियोलाइजेशन‘ (हिंग्लिशीकरण) हमारे यहां सर्वप्रथम एफ.एम. ब्रॉडकास्ट के जरिये शुरू हुआ और यह फार्मूला तुरन्त देश भर के तमाम हिन्दी के अखबारों में (जनसत्ता को छोड़कर) सम्पादकों नहीं, युवा मालिकों के कठोर निर्देशों पर लागू कर दिया गया। सन् 1998 में मैंने इसके विरूद्ध लिखा ‘भारत में हिन्दी के विकास की सर्वाधिक महत्वपूर्ण भूमिका जिस प्रेस ने निभायी थी, आज वही प्रेस उसके विनाश के अभियान में कमरकस के भिड़ गयी है। जैसे उसने हिन्दी की हत्या की सुपारी ले रखी हो। और, इसकी अंतिम परिणति में ‘देवनागरी‘ से ‘रोमन‘ करने का मुद्दा उठाया जायेगा।’ क्योंकि, यह फार्मूला भाषिक उपनिवेशवाद (‘लिंग्विस्टिक इम्पीयरिलिज्म‘) वाली ताकतें अफ्रीकी राष्ट्रों की भाषाओं के खात्मे में सफलता से आजमा चुकी हैं। आज ‘रोमन लिपि‘ को बहस में लाया जा रहा है। अब बारी भारतीय भाषाओं की आमतौर पर लेकिन हिन्दी की खासतौर पर है। हिन्दी के क्रियोलीकरण की निःशुल्क सलाह देने वाले लोगों की तर्कों के तीरों से लैस एक पूरी फौज भारत के भीतर अलग-अलग मुखौटे लगाये काम कर रही है, जो वर्ल्ड बैंक, आई.एम.एफ., ब्रिटिश कौंसिल, बी.बी.सी., डब्ल्यू.टी.ओ., फोर्ड फाउण्डेशन जैसी संस्थाओं के हितों के लिए निरापद राजमार्ग बना रही हैं।

नव उपनिवेशवादी ताकतें चाहती हैं, ‘रोल ऑव गव्हमेण्ट आर्गेनाइजेशंस शुड बी इन्क्रीज्ड इन प्रमोटिंग डॉमिनेण्ट लैंग्विज। हमारा ज्ञान आयोग पूरी निर्लज्जता के साथ उनकी इच्छापूर्ति के लिए पूरे देश के प्राथमिक विद्यालयों से ही अंग्रेजी की पढ़ाई अनिवार्य करना चाहता है। यह भाषा का विखण्डन नहीं, बल्कि नहीं संभल सके तो निश्चय ही यह एक दूरगामी विराट विखण्डन की पूर्व पीठिका होगी। इसे केवल ‘भाषा भर का मामला‘ मान लेने या कहने वाला कोई निपट मूर्ख व्यक्ति हो सकता है, ऐतिहासिक-समझ वाला व्यक्ति तो कतई नहीं।

अंत में मुझे नेहरू की याद आती है, जिन्होंने जान ग्रालब्रेथ के समक्ष अपने भीतर की पीड़ा और पश्चाताप को प्रकट करते हुए गहरी ग्लानि के साथ कहा था ‘आयम द लास्ट इंग्लिश प्राइममिनिस्टर ऑव इंडिया।’ निश्चय ही आने वाला समय उनकी ग्लानि के विसर्जन का समय होगा। क्योंकि, आने वाले समय में पूरा देश ‘इंगलिश‘ और ‘अमेरिकन‘ होगा। पता नहीं, हर जगह सिर्फ अंग्रेजी में उद्बोधन देने वाले प्रधानमंत्री के लिए यह प्रसन्नता का कारण होगा या कि नहीं, लेकिन निश्चय ही वे दरवाजों को धड़ाधड़ खोलने के उत्साह से भरे पगड़ी में गोर्बाचोव तो नहीं ही होंगे। अंग्रेजी, उनका मोह है या विवशता यह वे खुद ही बता सकते हैं।

यहां संसार भर की तमाम भाषाओं की लिपियों की तुलना में देवनागरी लिपि की स्वयंसिद्ध श्रेष्ठता के बखान की जरूरत नहीं है। और हिन्दी की लिपि के संदर्भ में फैसला आजादी के समय हो चुका है। रोमन की तो बात करना ही देश और समाज के साथ धोखा होगा। अब तो बात रोमन लिपि की वकालत के षड्यंत्र के विरूद्ध, घरों से बाहर आकर एकजुट होने की है- वर्ना, हम इस लांछन के साथ इस संसार से विदा होंगे कि हमारी भाषा का गला हमारे सामने ही निर्ममता से घोंटा जा रहा था और हम अपनी अश्लील चुप्पी के आवरण में मुंह छुपाये वह जघन्य घटना बगैर उत्तेजित हुए चुपचाप देखते रहे।
(सीमित शब्द संख्या के बंधन के कारण अंग्रेजी शब्दों और वाक्यांशों का हिन्दी रूपांतर नहीं दिया जा रहा है।)



-प्रभु जोशी
4-संवाद नगर,नवलखा
इंदौर

6 टिप्‍पणियां:

  1. आप से पूर्ण रूप से सहमत हूँ। देश का दुर्भाग्य नहीं होता तो हमारे प्रथम प्रधानमंत्री नेहरुजी नहीं होते कोई और ही होता, मुझे यह महसूस होता है कि हमें न सिर्फ हिंदी बल्कि और भी देश की भाषाओं को सीखना चाहिए जैसे कि हिंदी भाषी प्रांत का व्यक्ति दक्षिण की कम से कम एक भाषा तो अवश्य ही सीखे और ऐसा ही अगर दक्षिण भारतीय करें तो हम अपनी समस्त भाषाओं की रक्षा कर सकेगें साथ ही सारे परिक्षाओँ में एक स्थानीय भाषा अनिवार्य रूप से होनी ही चाहिए अंग्रेज़ी नहीं।

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  2. Dear Joshi Ji

    Very nice blog. But the question is how can we reverse this trend. I see some students 13-15 yrs old living in small and middle towns speaking very good Hindi and also English. But by the time they are 18 or so, uni education or tech. education, they tilt towards English. True we Hindipremis cannot reverse the trend. But we can devise interesting and engaging Hindi oriented activities with lucrative awards and prizes with mass participation of 16-19 yr old students. That's one small step in this big fight.

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  3. प्रभु दा का यह आलेख बहुत गहरा...और विचारणीय है...इसे कहते हैं निज भाषा के गौरव की चिंता.....! (निरंजन श्रोत्रिय)

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  4. भाषा का जो हाल अभी हो रहा है सांस्कृतिक, आर्थिक और यानि पूरी तरीके से फिर से गुलामी के दिन शायद दूर नहीं।

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  5. प्रभु दा का एकदम सटिक आकलन!'लिग्विस्टिक इम्पीयरिलिज्म' वाले ताकतो के इतिहास पर गौर किया जाना चाहिये, नहीं तो प्रहसन के नायक हम लोग ही होंगे।

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  6. May be we are headed back to simplicity of Brahmi script !
    http://www.omniglot.com/writing/brahmi.htm
    Why no one praises this script?
    See,How many Roman letters resemble to this script?
    Some letters may have been modified for easy writings.
    Gujanagari is also a simplified Sanskrit Script.
    Why can't we merge these matras on Roman letters to revive Brahmi script?
    k kा kि kी kु kू kॅ kे kै kॉ kो kौ kं kँ kः
    These matras can easily be merged on I-Phone by flipping Hindi/English key board.
    http://adrianprattamerica.blogspot.com/2012/09/the-assault-on-hindi-begins.html
    रोमन में हिन्दी बनाम तो क्या उर्दू देवनागरी में बनाम?

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