शुक्रवार, 30 अप्रैल 2010

पीपरताल



एक गाँव के तालाब की मेड़ पर घना,ऊँचा पीपल था.उसे पीपल का पेड़ इसलिए नहीं कह रहा हूँ कि पीपल पेड़ के अलावा भी बहुत कुछ होता है.यह मुझे किताबों ने नहीं पुरखों की चली आती हुई बातों ने सीख लेने को मजबूर किया..दादी कहतीं थीं ईश्वर को भी साँस लेने की ज़रूरत पड़ी इसलिए उसने पीपल बनाया.दादा जो नास्तिक जैसे थे और दुर्भाग्य से गाँव के अलावा कोई दूसरी दुनिया उन्होंने देखी नहीं कहा करते थे यह पीपल अब से सात पुश्त पहले पैदा हुए गाँव के सबसे बूढ़े ईमानदार आदमी जगतधारी का सीना है.उन्होंने जगतधारी के बारे मे कभी पूरा बताया न उनकी यह उपमा मेरी समझ में पूरी तरह कभी बैठी पर कभी भूली भी नहीं.हमेशा लगता है दादा को भाषा की सोहबत नहीं मिली वरना इस बात को वे किसी और तरह कहते.

पीपल की स्थिति ऐसी थी कि आधे तालाब को उसकी शाखें ढकती थीं.बाक़ी बच गए तालाब को उसकी छाँव का आँचल पूर लेता था.पीपल और तालाब इस तरह एकमेक हो गए थे कि बघेली बोलनेवाले अनपढ़ लोगों ने ही उसके लिए एक सुंदर शब्द खोज लिया था पीपरताल.पीपरताल की बगल में एक कुटिया थी जो कई लोगों के नियमित बैठने तथा एक नि:संतान शख्श के रात को सोने की वजह से कुटिया कहलाने लगी थी वरना उसकी हालत झोपड़े से भी बदतर थी.उसमें बिना गृहस्थी की एक ऐसी ज़िंदगी रह रही थी जो दीन होकर भी किसी को बोझ नहीं लगती थी.सब उसे खिलाकर खुश होते थे. उसमें रहनेवाला साधू जैसा आदमी जिसने पूरे जीवन कभी कोई उपदेश नहीं दिया एक दिन बूढा होकर मर गया.तब कुछ महीनों में ही यह एक छोटे मंदिर में बदल गई.जिसमें कुछ सालों तक पूजा वगैरह होती रही.एक समय के बाद यह भी बंद हो गया.गँजेड़ी और जुआँड़ी वहाँ रमने लगे.शाम या भोर में लड़कियाँ,औरतें वहाँ से गुज़रने में डरने लगीं.होते होते वह जगह बिल्कुल निर्जन हो गई.इसके पीछे दो हादसे भी कारण बने.एक बच्चा जो इकलौता था की तालाब में डूबने से और एक जवान जो बूढ़े माँ-बाप का सहारा था की पीपल से गिरकर मौत हो गई.

लेकिन जाने किस धुन में एक भला समझा जानेवाला मानुष जो यहाँ अपनी ननिहाल में रहने आया था तालाब में नहाने रोज़ आता रहा.वह पहले तालाब का पानी साफ़ करता था.इसके लिए वह चुपचाप गले तक पानी में उतर जाता.पीपल की सूखी,पीली,बीट सनी पत्तियाँ,छोटी-मोटी टहनियाँ,घोंसलों की उजार अपने दोनों हाथों से तालाब के किनारे तक बुहार आता.तब थिर जल का सूरज को अर्घ्य देता.उसकी यही पूजा थी.तालाब का पानी थिराना,लौटकर पीपल की शांत छाया में आखें मूँदकर देर तक बैठे रहना.पता नहीं वह कोई वरदान चाहता ही नहीं था या उसे मिला नहीं.उसके घर तथा ननिहाल दोनों में विपत्तियों के पहाड़ टूटते रहे.एक-एक कर उसके सभी संबंधी अकाल मौत मर गए.पीपल भी सयाना होता गया.इस समय तक गाँववाले इतने निर्लिप्त हो चुके थे कि पीपल के आसपास क्या हो रहा है धीरे धीरे भूलने लगे.एकदिन उस मानुष को भी पीपल से विरक्ति हो गई वह जाने क्या-क्या बड़बड़ाता हुआ कुल्हाड़ी ले आया.उसी ने पीपल के तने पर पहली कुल्हाड़ी चलायी.वह दुष्प्रचार जो पीपल को अशुभ समझा रहा था तब तक इतना बलशाली हो चुका था कि गाँववालों ने यह सोचा तक नहीं पीपल काटने को पुरखे पाप समझते रहे हैं.

पीपल धराशायी हुआ.हफ़्तों लकड़ियाँ हटाने में लग गए.तालाब में धूप पड़ी तो उस मानुष की आँखें चमक उठीं.उसे जल्दी ही अपनी वाचाल ज़बान में पीपल के नहीं रहने को उपयोगी समझा देने में सफलता मिल गई.महीनों बाद एक दिन वह बाज़ार से मछलियों का बीज ले आया.सबसे सहमति ले लेनेवाला कुशल मशविरा किया और बीज पानी में डाल दिए.कुछ ही महीनों में पानी में मछलियाँ खेलने लगीं.

अब पीपरताल की मेड़ पक्की हो चुकी.उसकी मछलियाँ बड़े लोगों की पहली पसंद हो गईं.गाँव में भी विकास हो चुका वहाँ नई-नई गाड़ियाँ दौड़ती हैं.सुना है वह कभी का फटेहाल अभागा पुजारी काफ़ी अमीर हो गया है.उसने गाँव में नया सुविधायुक्त मंदिर बनवा दिया.लोंगों को उससे तक़लीफ़ होगी पर शिक़ायत कोई नहीं करता.बल्कि उसके अपने क्षेत्र का नेता होने को सहारा-समर्थन दे रहे हैं.सिर्फ़ कुछ अशक्त सी बूढ़ियाँ गुस्से में आ जाने पर अपनी उसी मातृभाषा बघेली में जिसमें पीपरताल कहा गया था उसे पपिट्ठा बोलती हैं जिसका मतलब होता है लगातार पाप करनेवाला.उसे जब यह बात कभी बता दी जाती है तो वह हँस देता है. उसका मुह बने शागिर्द बोलते हैं- डोकरियां कब तक बोलेंगी...

शनिवार, 24 अप्रैल 2010

केवल मुझसे क्रांति नहीं होगी

मेरे मन ने मुझसे पूछा-इस देश में हर असफल युवा लगभग क्रांतिकारी है फिर भी क्रांति क्यों नहीं होती?

मैने कहा-जैसे हर नागरिक क़रीब क़रीब धार्मिक है फिर भी रामराज्य नहीं आता.जैसे हर तीसरी दवाई नकली है फिर भी अस्पताल शमशान नहीं हो जाते.जैसे मुर्गों की जात खतम नहीं होती.जैसे इतने मर्दों के बीच स्त्रियाँ अपनी लाज बचा भी पाती हैं.जैसे इतने हथियार हैं फिर भी देशों का डर नहीं जाता.जैसे दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है फिर भी भारत में समाजवाद नहीं आता.जैसे....

मन ने कहा-बस करो अब.ये चालाकी है.साथी,मूल प्रश्न के जवाब में प्रतिप्रश्न करना भी बदलाव नहीं आने देता.

मैं खीझ गया.तो तुम्ही बताओ उकसा-उकसाकर जितनी जल्दी हो शहीद करवाओ.

मन बोला-अपने इस डर को समझो.शहीद हो जाने का डर ही तुम्हारी समस्या है.इसी से समझोगे.चेग्वारा ने कहा था-क्रांति के रास्ते में जीत होती है या मौत मिलती है.यह ऐसी बात है जो सब समझते हैं.हमारे देश का क्रांतिकारी समझदार है.बौद्धिक चालाक है.वह जीत के लिए मौत नहीं चाहता.इसीलिए हाँक लगाता रहता है.आओ दूसरो नींव की ईंट बनो.वरना जहाँ इतना अन्याय है वहाँ इतनी कला क्यों है?

इस बात से मेरी उलझन बढ़ गई.मैंने जानना चाहा-कोई भी जो इतना समझदार हो क्रांतिकारी कैसे हो सकता है?उसे क्रांतिकारी कहना ही गलत है.

मन ने कहा-क्रांति समझ से ही पैदा होती है.विद्रोह से परवान चढ़ती है.विद्रोही चित्त ही क्रांति के रास्ते पर चलता है.लेकिन समझदार डर किसी भी क़िस्म के विद्रोह का दुश्मन होता है.सुविधाओं के बीच केवल खयाली परिवर्तन लाता है.

मैंने कहा-आत्मघाती मन,अपनी ही आग में जलनेवाले चित्त उलझाओ मत साफ़ साफ़ कहो क्या तुम्हारी नज़र में डरपोक ही समझदार है?

मन ने मुझ पर पानी डाला-अत्यधिक समझदार डरपोक होता है.हमारे समय के सब समझदार डरते हैं.गुहार सुनकर घरों में घुस जाते हैं.

मैंने मन का इशारा समझ लिया लेकिन जाँचने के लिए पूछा-आखिर ऐसे समझदार करते क्या हैं?ये अपने क्रांतिकारी को कैसे बचाकर रखते हैं?मैंने सुना है भीतर की आग का इस्तेमाल नहीं हो तो बुद्धि की राख बचती है.पर दुनिया में मुझे खुद को छोड़कर मूर्ख नज़र ही नहीं आते हैं.

मन हँसा-समझदार अपनी आग बचाकर रखते हैं.ठीक वैसे ही जैसे भूखे बच्चों की भीड़ में भी अपने बच्चे का दूध बचा रहता है.ये शैया और थाली में क्रांति करते हैं.हर रंग और हर मौसम का रस खींचते हैं.अपने लोगों से कहते है-सब घर जाओ शाम हुई.क्रांति अँधेरे में आ ही गई तो क्या होगा?वे दरअसल कहना यह चाहते हैं-तुम लड़ो पर हमें मत पुकारना.हमारे पास बहुत काम हैं.हम बचाने नहीं आएँगे.इतनी सी बात के लिए कला की साधना करते हैं.

मैंने मन का अड़ंगा समझ लिया.उससे बोला-देखो हर समय चलने के वक्त टोका मत करो. मुझे बॉस की पार्टी में जाना है.वहां से मल्टीप्लेक्स में नयी फिल्म देखनी है.प्रेमिका के ही साथ डिनर भी करना है.घर आकर पत्नी के सो जाने पर विदेशी लड़की से चैट खेलना है.केवल मुझसे ही क्रांति नहीं होगी.

मन खुलकर हँसा-तुम भी समझदार हो बेटा,काफ़ी समझदार.

मंगलवार, 20 अप्रैल 2010

अनुश्री घोष की डायरी

यह डायरी अनुश्री घोष ने ग्यारहवीं में हुए असाइनमेंट के लिए लिखी थी.मुझे इसमें रचनात्मकता दिखी तो रख लिया था.आप इसमें परीक्षा,घर,बंधुत्व और स्कूल को बड़ी निर्दोष,ईमानदार नज़र से देख पाएँगे.अनुश्री आजकल बारहवीं में पढ़ती हैं.बांग्ला मातृभाषा है.प्राचार्य के यह कहने पर भी कि तुम अकेली के लिए हम हिंदी का पीर्यड नहीं दे पाएँगे.खुद ही पढ़ना पड़ेगा.ज़िद करके हिंदी को एक विषय के रूप मे चुना था.पढ़ने में तेज़,अनुशासित और कल्पनाशील हैं.बहुत अच्छा गाती हैं.कार्यक्रमों की हिंदी कॉम्पीयरिंग के लिए स्कूल स्टाफ़ में इनका नाम लिया जा रहा हो तो कोई भी दूसरा नाम नहीं सुझाता.अनुश्री आगे चलकर टीचर बनना चाहती हैं.हम सोचते हैं इनका भविष्य बड़ा सुंदर होगा. -ब्लॉगर

23 मई,2009.

आज की सुबह मेरी ज़िंदगी के लिए बड़ी महत्वपूर्ण थी.आज मेरी दसवीं कक्षा का परिणाम घोषित होनेवाला था.परंतु यह बात मुझे पता नहीं चली थी.सब अचानक ही हुआ.परीक्षा खत्म होने के बाद से ही मेरे मन में परिणाम आने के दिन की बात बार-बार सताती थी.मुझे खुद पर इतना विश्वास तो था कि मैं फेल नहीं होऊँगी.पर यह डर ज़रूर था कि मेरे अंक कम आए तो क्या होगा?परिणाम के डर से दूर रहने के लिए मैंने कम्प्यूटर कोर्स और ग्यारहवीं की पढ़ाई शुरू कर दी थी.मैंने अनुमान लगा रखा था कि मुझे अस्सी प्रतिसत अंक तो ज़रूर मिलेंगे.माँ और बाबा ने बड़ी उम्मीदें पाल रखीं थीं.मेरा भैया पढ़ाई में थोड़ा अच्छा है इसलिए मैंने सोचा था कि भाई को मुझसे पाँच-छह प्रतिशत अंक ज्यादा ही मिलेंगे.आज सुबह भी हम बैठकर यही सोच विचार कर रहे थे.

सुबह उठकर हम रोज़ की तरह कम्प्यूटर क्लास पहुँचे थे.इतनी सुबह होती थी क्लास की जाने का मन ही नहीं कर रहा था.पर दिल में ज़ोर डालकर चले ही गए.जब वापस आ रहे थे तो तक्कोलम में इतनी तेज़ धूप थी कि सारा बदन धीरे धीरे जवाब देने लगा था.हम किसी तरह साइकिल से घर पहुँचे.नहा-धोकर पढ़ने बैठे ही थे कि इतने में हमारी क्लास का हिमांशु आया.नीचे खड़े होकर उसने अरिंदम को पुकारा.भैया ने जल्दी ही नीचे जाकर उससे हाल-चाल पूछा तो उसने एक पेपर दिखाकर सबके अंक बताए.इतने में माँ बाहर निकलकर उससे पूछने लगी कि मेरे अंक कितने हैं?उसने हमें मेरे अंक बताए.पर जब मेरी नज़र अपने अंकों पर पड़ी तो मुझे बड़ी हताशा हुई.

मेरे सबसे कम अंक थे गणित में.सिर्फ़ 51 अंक.इतनी निराशा मुझे पहले कभी नहीं हुई जितनी आज इन कम अंकों को देखकर हुई.मुझसे पहले माँ की आँखों में आँसू आ गए.माँ की यह हताशा मुझसे सही नहीं जा रही थी.मुझे 75 और अरिंदम को 82 प्रतिशत आए.फिर भी हम खुश न थे.हम इससे ज्यादा अंकों की अपेक्षा कर रहे थे.परंतु क्या करते अब तो जो होना था हो चुका था.बाबा ने भी इस बात को गंभीरता से लिया.माँ और बाबा ने मिली-जुली प्रतिक्रिया दी.कहा-जैसी मेहनत की वैसा ही फल मिला है तो उदासी कैसी?मैं पहले ही कहती थी कि बोर्ड परीक्षा में अच्छे अंक लाना इतना आसान नहीं है.बहुत मेहनत करनी पड़ती है.चलो मैंने भी यह जान लिया कि क्या लिखने पर क्या मिलता है.अब बारहवीं में कोशिश करूँगी कि इससे अच्छा कर दिखाऊँ.


19 जनवरी,2010

हमारे लिए आज का दिन बड़ा ही महत्वपूर्ण था.आज हमारे विद्यालय का वार्षिक निरीक्षण था.आज के लिए हम पिछले दो दिन से तैयारी कर रहे थे.कॉपियाँ पूरी तरह से सजा-धजाकर अधूरे कामों को समाप्त कर रहे थे.जैसे तैसे हमने नोटबुक पूरी की.सुस्ताने की कोशिश की कि बायो मैडम ने क्लास सजाने का हुक्म दे दिया.हमारी चैन की सांसे बाहर निकल गईं.हम फिर जुट गए.अरे बाप रे..मैडम एक-एककर चार्ट पेपर दिए जा रहीं थीं.हम पागल हो रहे थे.मैडम का हुक्म था जब तक काम नहीं खत्म होता कोई घर नहीं जा सकता.सभी ने फटाफट कुछ न कुछ बनाकर क्लास सजा दिया.आज पता चल रहा था समय पर काम न करने पर क्या होता है.आज का दिन जैसे तैसे स्कूल में बीत गया.घर आकर कल के लिए अच्छे से पढ़ रहे थे.

सुबह हुई.जल्दी-जल्दी चकाचक कपड़ों में दिमाग़ मे आधी-अधूरी पढ़ाई लेकर स्कूल पहुँचे.स्कूल में बड़ी ही शांति थी.एसी महोदय प्रार्थना सभा में पहुँचे.उनका विधिवत स्वागत किया गया.प्रात:कालीन सभा के कार्यक्रमों की शुरुआत हुई.लेकिन शुरू में ही एक लड़की प्रतिज्ञा लेते-लेते बीच में अटक गई.यहीं से शुरू हुआ गलतियों का सिलसिला.पहले प्रतिज्ञा में फिर कॉपीयरिंग में गलती हो गई.ऐसा तो पहले कभी नहीं हुआ था.हमें इतना बुरा लग रहा था कि क्या कहें लेकिन कुछ कर भी तो नहीं सकते थे.हम मजबूर थे.हमें डर था कि एसी सर पर हमारा बुरा प्रभाव न पड़ जाए.अंत में यही हो गया था.एसी सर बड़े ही तेज़ भाव से हमारी कमियाँ गिना रहे थे.हमारी आँखें शर्म से झुक रही थीं.गुस्सा भी आ रहा था कि इतनी कोशिशों के बाद भी हम असफल ही रहे.कक्षा निरीक्षण में वे हमारी क्लास में नहीं आए.इससे भी हमें निराशा हुई.पर क्या करते जो होना था हो चुका था.मैंने सोचा हमें अपनी गलतियाँ सुधारने की सच्ची कोशिश करनी चाहिए.

बुधवार, 14 अप्रैल 2010

स्कूल तो पढ़ने के लिए होता है

कल मैं आठवीं कक्षा में अरेंजमेंट के तहत पढ़ाने गया तो आपस में बहस कर रहे बच्चों ने घेर लिया.सर,एक डाउट है.पूछो.सर,प्रार्थना किस धर्म की सबसे अच्छी है?इस सवाल का सीधा जवाब देने की मेरी हिम्मत नहीं हुई.मैंने खुद को सम्हालते हुए सबको शांत करके बैठाया.

प्रार्थना की बात है तो पहले मेरे एक सवाल का जवाब दो.कितने लोग चाहते हैं कि इस विद्यालय में एक मंदिर बनवा दिया जाए? एक को छोड़कर सभी ने हाथ उठा दिया.मस्जिद बनवाने के पक्ष में कितने हैं यानी कौन-कौन चाहता है कि यहाँ एक मस्जिद हो? उसी एक विद्यार्थी को छोड़कर सभी ने हाथ उठाया.मेरा अगला सवाल थाकितने लोग चाहते हैं कि इस विद्यालय में मंदिर,मस्जिद,गुरुद्वारा और चर्च चारों बनवा दिए जाएँ?इस पर भी उसे ही छोड़कर सभी ने क्रमश: हाथ उठा दिए.

तब मैंने उस विद्यार्थी से पूछातुम चारों धर्मस्थलों का बनवाया जाना भी क्यों नहीं चाहते?वह डरते हुए खड़ा हुआ.धीरे से बोलासर,ऐसे में तो भगवान बुद्ध और महावीर के भी मंदिर बनवाने पड़ेंगे.मैं उसके तर्क से चौंका.जाँचने के ही लिहाज़ से सवाल कियाउससे क्या नुकसान होगा?सर,फिर तो पढ़ने के लिए क्लास ही नहीं बचेंगे.सब जगह भगवान ही भगवान हो जाएँगे.उसकी इस बात पर सब हँस पड़े.मुझे भी हँसी आ गयी.एक ने टिप्पणी की.क्लास की जगह में भगवानों को थोड़े ही बैठाया जाएगा. दूसरे ने जोड़ाऐसा हुआ तो पूजा के लिए भी एक पीर्यड बढ़ाना पड़ेगा.अपने स्कूल में टीचर पहले से कम हैं तो प्रिंसिपल सर को नये टीचर बुलाने पड़ेंगे.

यह तर्क आगे बढ़ता ही रहता कि मुझे सबको चुप रहने को कहना पड़ा.इस बार मैंने उस विद्यार्थी को ध्यान में रखकर एक सवाल पूछाकितने लोग चाहते हैं कि विद्यालय में मंदिर या मस्जिद कुछ भी न रहे?इस पर सभी बच्चे एक दूसरे का मुह देखने लगे.उस अकेले ने हाथ उठा दिया.मैंने पूछातुम ऐसा क्यों चाहते हो?उसने कहासर अगर बहुत सी पूजा की जगहें हो गईं तो आपस में झगड़ा होगा.किसी जगह बहुत लोग जाएँगे,किसी जगह एक दो ही रहेंगे.फिर लोग एक दूसरे को बड़ा छोटा समझ लेंगे.ज्यादा लोग गंदा करेंगे तो कम लोंगो को सफाई करनी पड़ेगी.हम बच्चों का ध्यान भी पढ़ाई में नहीं लगेगा.स्कूल तो पढ़ने के लिए होता है सर.

उसकी इस बात से कक्षा में सन्नाटा हो गया.मुझे लगा उसके तर्क को मैं ही नहीं सब बच्चे भी समझ गए हैं.बच्चे जब किसी बात को समझ लेते हैं तो उसमें आगे तर्क नहीं करते.लगा जैसे यह बात यहाँ पूरी हो गई.मेरी हिम्मत ही नहीं हुई कि कहूँतो अब मैं बताता हूँ कि प्रार्थना किस धर्म की.....तभी दो तीन बच्चों ने एक साथ कहाअब सबजेक्ट पढ़ाइए सर,पीर्यड जानेवाला है.मैंने चाक,डस्टर उठा लिया.

लेकिन मेरे दिमाग़ में सवाल घूम रहा थाविश्वविद्यालय,अस्पताल और थानों में मंदिर क्यों होते हैं ?यह सवाल बुजुर्गों से पूछा जाए तो उनके पास जवाब के सिवा क्या होगा?

शुक्रवार, 9 अप्रैल 2010

मैं बिल्कुल आपके जैसा ही हूँ

एकदम शुरुआत में
जब बचपन सपनों को आसान बनाता है
मैं महान आदमी बनना चाहता था
जिसके पीछे-पीछे सब चल न सकें
तो कम से कम अच्छा ज़रूर कहें
यह जानने के बाद कि कोशिश करके महान नहीं हुआ जाता
इतिहास में भले लोंगों का यह हश्र देखकर कि
लोग अच्छा कहकर अपनी चाल चलते रहते हैं
मैंने चाहा अगर मैं बन सकूँ तो ख़तरनाक इंसान बनूँ
स्वार्थियों की आँख का कांटा रहूँ
जिसे मौत की सज़ा दिए बग़ैर
सत्ता एक क़दम न चल सके
कोई मुझे प्यार करे तो उसे अपनी जान पर खेलना पड़े
ताक़तवर घृणा मुझे माफ़ ही न कर पाए
ऐसा हर्गिज़ न हो कि मेरा लंगोटिया यार
मेरी जान के भूखे दुश्मन के घर से पान खाकर लौटे
मेरे ख़िलाफ़ षडयंत्र रचनेवाला
हिनहिनाकर मुझसे कहे
ह..ह..ह.. आप तो बहुत अच्छे हैं
दोस्ती,दुश्मनी,फ़र्ज़ के मतलब और नहीं हों
मुझे पढ़ी लिखी ऐसी स्त्रियों का वकील न बनना पड़े
जो टूटकर प्यार करती हैं
लेकिन बाप की पसंद के लड़के से ब्याह कर लेती हैं
मैं उन प्रेमपूर्ण नैतिकों की छाँव तक से बचा रहूँ
जो पत्नी की परोसी हुई थाली पर लात मारकर उठ जाते हैं
तब मुझे मुगालता था
मेरे हिस्से एक सचमुच की दुनिया आएगी
कभी सामना करना ही पड़ा
तो मैं दुनियादार लाभ-लोभ विवेक से भेद लूँगा
अपने बाल-बच्चों की खातिर किसी के पेट पर लात मार देनेवाले
झूठ-मूठ के लोग मुझे बदल नहीं पाएँगे
पर यह नहीं हुआ
तब मैंने अपने मध्यम मार्ग में चाहा
कभी कमाने लायक हो सका तो
आमदनी का बड़ा हिस्सा ज़रूरतमंदों पर खर्च करूँगा
मेरे पास काम करने की आज़ादी होगी
क्योंकि मैं हथियारबंद जनसेवा में नहीं पड़ूँगा
रहूँगा आराम करने की सुविधाओं से सदैव दूर
भक्ति करने या अध्यात्मिक हो जाने की बजाय
नियमित अस्पताल उन बीमारों को देखने जाऊँगा
जिनका कोई नहीं होता
नौकरी करते हुए अगर छुट्टी नहीं मिल सकी
तो तनख्वाह कटवाकर उनका साथ दूँगा
जो इंसानों की भलाई के लिए सबकुछ छोड़ने को तैयार हैं
मैने तय किया कोई दिखावा नहीं करूँगा
हरियाली बचाने गमलों में पेड़ नहीं लगाऊँगा
ऐसे घर में रहूँगा जहाँ दूर लड़ रहे साथी सुस्ताने आएँगे
मेरी ज़िम्मेदारियाँ संघर्षशीलों की राह आसान करेंगी
अफ़सोस यह भी न हो सका
मैं अच्छा खाने,सुंदर पहननेवाला
मनोरंजन की खातिर वक्त और पैसा फूँक देनेवाला
एक शांत निरापद आदमी बनकर रह गया
इज्ज़तदार लोगो मुझ पर संदेह नहीं करें
मेरा सलामत रहना बख्शें
मैं दुर्भाग्य से बिल्कुल आपके जैसा ही हूँ.

शुक्रवार, 2 अप्रैल 2010

सेब का लोहा:गीत चतुर्वेदी

गीत चतुर्वेदी की यह कविता मुझे प्रिय है.इससे एक याद भी जुड़ी हुई है.

जिन दिनों मैं इंदौर में था एक दिन कथाकार सत्यनारायण पटेल ने कहा कि मैं गीत से मिलने आईआईएम जा रहा हूँ चलना हो तो चलो.मैंने कहा कि आप मुझे ले चलें यह बड़ी खुशी की बात होगी,चलिए.

हम बाईक से आईआईएम पहुँचे जहाँ गीत चतुर्वेदी दैनिक भास्कर के एक प्रबंधन संबंधी प्रशिक्षण के सिलसिले में ठहरे हुए थे.मेरी उनसे यह पहली भेंट थी.हम लोगों में काफ़ी बातें हुईं.गीत चतुर्वेदी से मिलने के काफ़ी पहले से मैं उन्हें पढ़ता रहा हूँ.मिलकर मेरी वह धारणा पुष्ट हो गई कि गीत जी लेखन के क्षेत्र में काफ़ी तैयारी से आए हैं.जैसा कि कई बार आगे चलकर महत्वपूर्ण समझे जाने वाले लेखकों के साथ भी हुआ है गीत ने किसी रौ में लिखना शुरू नहीं कर दिया होगा.

उस दिन जो बातें हुई उनके केंद्र में यही था कि लेखन एक सुनियोजित,दीर्घसूत्रीय काम है.सफल लेखक पहले से इस बात के प्रति भी तैयार होता है कि भविष्य में कैसा रेसपांस मिलने वाला है.कौन कौन सी शुरुआती प्राथमिकताएँ निर्णायक साबित होती हैं.ज़ाहिर है हम प्रसिद्धि के किन्हीं चालू टाइप नुस्खों पर बात नहीं कर रहे थे मेरे अनुभव में यह लिखे जा रहे के संबध में गंभीर अकादमिक बातें थीं.
सत्यनारायण पटेल अपनी परिचित ज़मीनी जिदों के साथ थे.गीत अपने निरंतर अद्यतन होते रहनेवाले विजन के साथ.उन्होंने अपने अध्ययन,मेधा तथा जल्द ही हावी हो जानेवाली तर्क पद्धति से मुझे जितना चौंकाया उतना ही संतुष्ट भी किया.मैंने शुरू में ही कहा था गीत जी आपको पढ़ते हुए लगता है कि आपके पास लिखने को काफ़ी है.

बात आगे बढ़ी तो आजकल के अत्यंत सफल,लोकप्रिय अंग्रेज़ी लेखक चेतन भगत के बारे में उन्होंने बताया कि इस लेखक ने अपने उपन्यास लिखने के पहले बाक़ायदा सर्वे करवाये कि कैसे उपन्यासों को लोगों ने अब तक पसंद किया है,उनकी खास बातें क्या थीं?इस संबध में निकलकर आयीं दस प्रमुख बातों को केंद्र में रखकर चेतन भगत ने अपने प्लाट बुने.सबसे सफल यह युक्ति अपनाई कि उपन्यास सुखांत ही रखे.हिंदी का लेखक ऐसी तैयारी के साथ अपना काम क्यों नहीं कर सकता?.फिर उन्होंने नाम लेकर कहा कि हिंदी के कई अच्छे लेखक इसी व्यावसायिकता के साथ लिख रहे हैं.हमें उन्हें मिशनरी या समाजसेवक समझने की भूल नहीं करनी चाहिए.मैं तब गीत के इस फैसला देनेवाली बात से असहमत था.उन्हें भी अंदाज़ा होगा ही कि यह स्थापना कितनी विवादास्पद हो सकती है.पर इसकी सच्चाई से इंकार जितना मुझे तब था अब नहीं रह गया है.और लगातार कम ही हो रहा है.

सेब का लोहा, उसी रात डॉ.जया मेहता के घर में मैंने गीत जी से सुनी थी.वहाँ मौजूद थे रवींद्र व्यास,विनीत तिवारी,उत्पल बैनर्जी,कृष्षकांत निलोसे और सारिका.कविता सुनते सुनते ही दिलो-दिमाग़ में बैठ गई थी.आप गौर करेंगे कि इस कविता के कहन में सूक्तियों की अंतर्धारा है.जब कवि इतनी अपनी और गाढ़ी पंक्तियाँ कहने लगता है तो उसकी बातों में यह सोचकर भरोसा पैदा होता है कि दुनिया देखने की यही सिद्ध दृष्टि आज होनी चाहिए.पाठक का यह सोच अगर कवि के बहाने साथ साथ विकसित हो यानी वह पहले से मानकर न चल रहा हो कि कवि महान है हमें सिर्फ़ हृदयंगम करना है तो इसे आगे बढ़ना ही है.

इस कविता की पहली ही पंक्ति अपनी आत्मीय व्याप्ति में हमें मुरीद बना लेती है.यह जितनी सच है उतनी ही बेधक है.पहली ही लाइन से इस तरह शुरु होने वाली कविताएँ कम हैं.यह एक व्यक्ति की कविता है.कविता में जिसके बारे में खुलकर कह दिया गया है पत्थर आग पानी और जानवर अभिनय नहीं जानते/मैं जानता हूं

यह व्यक्ति ऐसे समय में है जिसमें लोग किधर के हैं यह तय करना कठिन हो गया है.सर्वग्रासी देशकाल में जहां बनायी हुई परिस्थितियाँ हर तरह की निष्ठा पचा लेती हैं यह भीतर ही भीतर प्रतिबद्ध होना चाहने पर हार रहे व्यक्ति के आत्मस्वीकार की कविता है.यह व्यक्ति फिर भी आत्मकेंद्रित होने से बचा हुआ है.जब कविता का मैं अपने बारे में कहता है-मैं भय विनाश भूख और त्रासदी से निकला हूं/सिर्फ़ एक अनुभव से नहीं समझा जा सकता जिन्हें.तो व्यक्ति की भीतरी टूटन सभ्यता के उस हिस्से का एक्स रे बनकर दिखती है जहाँ इंसान जनमता और मरता है.

व्यवस्था के सामने व्यक्ति की इससे बड़ी असमर्थता क्या होगी कि-सेब की फांक पर उभरे लोहे से चाक़ू नहीं बनता.व्यक्ति के द्वंद्वों को अनुभूतिपरक सफलता के साथ सामने लानेवाली यह कविता वैयक्तिकता की हामी नहीं है.यह वास्तव में उस व्यक्तिवाद के खिलाफ़ है जो सामूहिकता से खुद को पृथक कर लेने के अपराधबोध को आत्मविश्लेषण से कम करता है.अपनी आत्मकेंद्रीयता को भी लड़ाई का मोर्चा समझने की भूल करता है.पलायन कोई पक्ष नहीं होता बल्कि एक तर्क होता है.व्यक्ति कितने पलायन-तर्कों से भरा हुआ है जिनमें से ज्यादातर उसके ही गढ़े हुए हैं आप इस कविता में नोट कर सकते हैं.फिर भी अपनी परिणति में यह बचे हुए,जूझ रहे व्यक्ति की कविता है.

कविता का यह कथन कि शरीर में लोहे की कमी है सड़कों और खदानों में नहीं/मैं इसीलिए अपने हिस्से का सेब कभी नहीं फेंकता.सबमें मौजूद पर स्थगित निर्णय की ओर इशारा करता है.सेब का लोहा बड़ा व्यंजक प्रतीक है.पूरी कविता कई बार पढ़ने का जैसे आमंत्रण देती है.


गीत चतुर्वेदी कविता के मौलिक,रचनात्मक अध्येता भी हैं.इस अर्थ में कि उन्होंने कुछ यादगार कविताओं के संप्रेष्य को पंक्तियों समेत पिरोकर कथा स्थितियाँ बुनी हैं.इस कविता को पढ़ते हुए आप कल्पना करें कि किसी नहीं लिखी गई लंबी कहानी का फ़कीर अपने होने और समझे जाने के फर्क को स्पष्ट करता हुआ अपना पक्ष रख रहा है.


सेब का लोहा


पत्थर भी अपने भीतर थोड़ी मोम बचा कर रखता है
ख़ुद आग में होता है बुझ जाने का हुनर
जब वह अपने आग होने से थक जाती है
गिरते हुए कंकड़ को अभय दे
अंगुल भर खिसक जाता है समुद्र एक दिन
सबसे हिंसक पशु की आंखों की कोर पर एक गीली लकीर
धीरे-धीरे काजल की तरह दिखने लगती है
सबसे क्रूर इंसान भी रोता है
और प्रार्थना में एक दिन उठाता है हाथ

पत्थर आग पानी और जानवर अभिनय नहीं जानते
मैं जानता हूं

मुझे सेब की फांक पर उग आया लोहा कह लो
या पहिए और पटरी के बीच से कभी फ़ुरसत से निकली चिंगारी
या तमाम माफि़यों से भरी वह प्रार्थना जिसका मसौदा सदियों से अपनी जेब में रखते आया
पढ़े जाने के माकूल वक़्त का इंतज़ार करते

जो कुछ छोड़े जा रहा हूं
क्‍या उसके बदले सिर्फ़ एक माफ़ी काम की होगी
जिसे पढ़ना होगा पुरखों नहीं संततियों के आगे
बताना होगा कि मेरी हथेलियां बहुत छोटी थीं
छिटकते समय को सहेज लेने के वास्ते

सिर्फ़ एक रास्ता काफ़ी नहीं इस जगह से घर को
सिर्फ़ एक जड़ से नहीं मिला छतनार को जीवन
सिर्फ़ एक बार नहीं बना था परमाणु बम
सिर्फ़ एक अर्थ से नहीं चलता रोज़गार शब्‍दों का
सिर्फ़ नीयत ही काफ़ी नहीं होती हर बार
बिना चले गठिया का पता नहीं चलता

मैं भय विनाश भूख और त्रासदी से निकला हूं
सिर्फ़ एक अनुभव से नहीं समझा जा सकता जिन्हें
सेब की फांक पर उभरे लोहे से चाक़ू नहीं बनता

कोई आता है हांक लगाता पुकारता मेरा नाम
एक उबासी से करता हूं उसका स्वागत फिर ढह जाता हूं
एक दिन वह बना लेता है उपनिवेश
मेरी देह और दिमाग़ के टू-रूम फ़्लैट में
फिर छिलके-सा उतार दिया जाता हूं
किसी आरोप या बिना किसी आरोप के
मेरी राजनीतिक उदासीनता राजनीतिक नासमझी में बदल जाती है
हर इच्छा एक नागरिक उदासीनता की तरफ़ ले जाती है

शरीर में लोहे की कमी है सड़कों और खदानों में नहीं
इसीलिए अपने हिस्से का सेब कभी नहीं फेंकता मैं
थोड़ा-सा मनुष्य भी है मुझमें
जो सदियों पुरानी धुनों पर गाता है भ्रम के गीत

कोई और रहता है मेरे भीतर

जो लिखता है कविता या गाता है
जब वह मेरे सामने आता
मिलता नहीं कोना जहां अकेले बैठ थोड़ी देर सचमुच रो सकूं मैं
अभिशप्‍त भटकता हूं
जैसे लिखे जाने से पहले खो गई किसी पंक्ति की तलाश में
तभी झमाझम बरसती हैं स्मृतियां
भूल जाता हूं पिछली बार कहां रख छोड़ा था छाता

शब्‍द के उच्चारण या नाद से निकली सृष्टि में
क्‍यों बार-बार भूल जाना कि
इतिहास से पहले भी जीवन था
बोली जाने वाली भाषा से पहले समझी जाने वाली
उससे भी पहले एक आंसू उससे भी पहले एक पीड़ा
उन्हीं के अवशेषों की भाषा लिखता हूं

मुझको पढ़ना बार-बार पढ़ी जा चुकी किताब-सा आसान नहीं
मेरा हर व्यवहार एक विचार है
हर हरकत एक इशारा
मैं आधी समझी गई पंक्ति हूं
अभी आधा काम बाक़ी है तुम्‍हारा.
(आलाप में गिरह संग्रह से)

-गीत चतुर्वेदी