सोमवार, 15 मार्च 2010

मैं मलयालम हूँ

मेरे घर से स्कूल तक का सफ़र काफ़ी छोटा है.कुल तीन मिनट का पैदल रास्ता.इस बीच बहुत से छात्र-छात्राएँ मिलते हैं.कई बार अपने स्कूल के विद्यार्थियों से भरी सड़क में उनके अभिवादनों का जवाब देते हुए ही स्कूल आ जाता है.कभी फोन पर उलझा रहूँ तो कितने अभिवादन अनुत्तरित ही रह जाते हैं.सुबह सुबह बच्चों को तरोताज़ा,बैग लादे लगभग भागते हुए देखना मुझे भी सक्रिय कर देता है.भूल ही जाता है कि कितने काम निपटाकर निकल रहा हूँ और जाते ही किस किस को पहले कर लेना है.

एक दिन मैं अपनी धुन में जा रहा था.कोमल-विनम्र आवाज़ में अभिवादन सुनकर सहसा वर्तमान में आ गया.बराबरी में आते हुए उसने कहा था-गुडमॉर्निंग सर!..फिर वह मेरे साथ-साथ चलने की कोशिश में क़रीब क़रीब दौड़ने लगा था.जब मेरा ध्यान इस पर गया तो मैंने अपनी चाल धीमी कर ली.सफेद सर्ट नीले पैंट वाले स्कूली यूनीफ़ार्म में बस्ते के बोझ से आगे की ओर झुका हुआ वह मुझसे जानना चाह रहा था-सर,एक बात पूछूँ?पूछो.मुझे खुशी हुई कि वह कुछ जानने; प्रयास करके मेरी बगल में आया है.सर,आप बुरा तो नहीं मानेंगे?वह आश्वस्त हो लेना चाहता था.मैं थोड़ा चौंका पर बाद में सोचा यह ऐसी कौन सी बात पूछ सकता है जो मुझे बुरी लगेगी.पूछो क्या पूछना है?उसने ज़रा ज़ोर देकर अपना सवाल रखा-सर,आप हिंदू हो या मुसलमान?मुझे ऐसे प्रश्न की उम्मीद नहीं थी.मैंने आगे के लिए सतर्क होते हुए जवाब दिया- मैं हिंदू. हूँ.थोड़े अंतराल पर जवाब देने की उसकी बारी थी-तुम क्या हो हिंदू या मुसलमान?उसने बेफिक्री से बताया-सर,मैं तो मलयालम हूँ.उसकी आवाज़ में इतना आत्मविश्वास था कि चाहते हुए भी मैं नहीं पूछ पाया मलयालम भी तो हिंदू या मुसलमान हो सकता है.अब मेरी उसमें दिलचस्पी बढ़ गयी थी.मैंने उससे बात बढ़ायी-तुम अकेले जा रहे हो तुम्हारा कोई दोस्त नहीं है?दोस्त तो बहुत सारे हैं लेकिन सब बस में जाना पसंद करते हैं.तुम क्यों नहीं जाते बस में?मुझे पैदल चलना अच्छा लगता है.फिर उसने मुझे ठहरकर देखते हुए कहा-एक बात बोलूँ सर,मैं अभी फर्स्ट में पढ़ता हूँ.अच्छा,पर तुम मुझे क्यों यह बता रहे हो?इसलिए कि मैं लंबा हूँ थोड़ा मोटा भी तो कहीं आप यह न समझ लें कि मैं फिफ्थ मे पढ़ता हूँ. उसने स्पष्ट किया.

मेरी रुचि उसमें बढ़ती ही जा रही थी.लेकिन हम गेट तक आ चुके थे अब ज्यादा बातचीत की गुंजाइश नहीं थी.बच्चों की भीड़ में बतियाते हुए साथ-साथ चलना मुश्किल हो रहा था.उसने अपने एक मित्र को देखकर उससे हाय किया.मुझे अगली बात बताई-सर,मेरे पापा इंसपेक्टर हैं.तुमने पहले नहीं बताया?पहले बताने का सवाल ही नहीं उठा.अभी बताने की क्या ज़रूरत पड़ी?मेरी बात असभ्य न हो जाए इसे ध्यान में रखकर मैंने कोमलता से कहा.उसने सफाई दी-अभी इसलिए बताया कि कहीं आप यह न समझ लो कि मैं पैदल चलनेवाला ग़रीब स्टूडेंट हूँ.क्या तुम्हें गरीब समझ लिया जाना बहुत बुरा लगता?उसने तपाक से कहा-हाँ सर,पावर्टी सबसे बड़ी बुराई है.मैं बड़ा होकर अमीर आदमी बनूँगा.

इतना बोलते-बोलते वह दौड़ने लगा था.बाय सर...बोलता हुआ वह अगले क्षण अपनी क्लास में चला गया.मैं देर तक उसके बारे में सोचता रहा. पहली कक्षा में पढ़नेवाले अश्विन कृष्णन के मानसिक स्तर की तुलना मन ही मन अपने बचपन से करके उसके भविष्य का अंदाज़ा लगाते हुए मुझे सुखद आश्चर्य हुआ.

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