गुरुवार, 25 मार्च 2010

शंभु गुप्त की कविता:उदाहरण

अच्छे कवि के लिए आलोचकीय विवेक संपन्न होना जितना आवश्यक है कवि का आलोचक हो जाना स्वयं के कवि-कर्म के लिए उतना ही बाधक है.ऐसा हम हिंदी के उन चोटी के आलोचकों को देखते हुए कह सकते हैं जो अपने शुरुआती दौर में कवि भी रहे.पर धीरे-धीरे उनका कविता लिखना छूट गया.अब वे कविताएँ शोधार्थियों,विशेषांक के संपादकों या जीवनीकारों के लिए ही महत्व की बचीं हैं.स्वयं का अत्यधिक रचना-सजग होना भी रचनाकर्म से दूर करता है या ठीक ठीक कहें तो रचनाकार को स्थगित करता है क्योंकि सिर्फ़ विश्लेषण,बौद्धिकता और स्मृति के सहारे कविता,कहानी लिखने को विवश हो जाना असंभव है.उसके लिए थोड़ी सी मासूमियत और ढेर संवेदनशीलता बचाये रखना ज़रूरी होता है.खैर यहाँ हमारा मक़सद आलोचकों के अकवि हो जाने के कारणों की पड़ताल करना नहीं है.बल्कि एक समर्थ आलोचक के कवि होने को आपसे बाँटना है.

शंभु गुप्त जी समकालीन हिंदी आलोचना के जाने-माने हस्ताक्षर हैं.पिछले कुछ समय से लगातार कहानी आलोचना के चुनौतीपूर्ण क्षेत्र में सक्रिय हैं.मुठभेड़ करना और आलोचना के रास्ते में किसी की परवाह न करना मेरे जानने में उनकी खासियत है.यदि आप इसे आलोचक होने की ही शर्त मानते हों तो इतना अवश्य जोड़ दूँ वे यह शर्त बा-खूबी पूरी करते हैं.इस बारे में खुद की परवाह भी नहीं करते हुए मैंने उन्हें देखा है.मौक़ा था देवास में प्रसिद्ध कथाकार शिवमूर्ति जी के कहानी पाठ का.शंभू जी कहानी सुन चुकने के बाद रूमाल लेकर बाथरूम की ओर भागे.सार्वजनिक तौर पर कहा भी शिवमूर्ति भाई तुम बहुत रुलाते हो...लेकिन उसी कहानी केसर कस्तूरी पर जब बोले तो इस प्रभाव को जिससे सभी अभिभूत थे कोई मूल्य नहीं दिया.बल्कि इसी भावप्रवणता को आधार बनाकर कहानी को कमज़ोर सिद्ध किया.मेरे लिए यह विचलित करनेवाला रहा.मैंने शंभु जी से अनधिकार पूछा भावुकता अगर कहानी का कमज़ोर पक्ष है तो आप यह जानते हुए क्यों भावुक हुए?उन्होंने बलपूर्वक इसके पीछे अपने संवेदनशील मनुष्य होने को कारण बताया.साथ ही कहा-लेकिन मैं आलोचक होने के नाते जो तय करता हूँ उसे अपनी कमज़ोरियों,पसंद-नापसंद से भी बचाने की कोशिश करता हूँ.

मैं काफ़ी समय से शंभु गुप्त जी को पढ़ता सुनता रहा हूँ.फ़ोन पर बेतकल्लुफ़ लंबी लंबी बातें भी होती हैं.पर हाल ही में उन्हीं से पता चला कि वे कविताएँ भी लिखते हैं.संकोच तो करते ही हैं धीरे से बताया कि आलोचक रहते छपवाने से डरता भी हूँ.मुझे उनकी कई बातों की तरह यह डर काफ़ी मानीखेज लगा.मैंने यह सोचकर अपना आग्रह रखा कि चूँकि मेरे ब्लाग के पाठक अधिक नहीं होंगे इसलिए ज्यादा डरने की ज़रूरत नहीं.वे मान गए.कुछ कविताएँ भेजीं.जिन्हें संदीप पाण्डेय ने यूनीकोड में बदलकर यहाँ छापने लायक बनाया.उन्हीं में से यह एक कविता आप सब के लिए.इसके बारे में आप ही सोचें.



उदाहरण

विचारहीनता की इस दुल्हन-सी सजी नाव में
मस्ती है जादू है निखालिस आनन्द है मांसलता है
और अन्यमनस्कता है

आयातित कपड़ों और गहनों और सपनों में लकदक यह दुल्हन
मारू है
जो देखे वही डोल जाए

ज़िन्दगी में आगे बढ़ते हुए एक दिन मैंने पाया
यह विचारहीनता निर्विकल्प है

इसकी सीढ़ियाँ चढ़कर मैं वहाँ पहुँच जाऊँगा
जो कभी मेरे सीमित एजेंडे में नहीं रहा

इससे आँखें चार होते ही मैंने पाया
मैं तो बहुत पिछड़ गया हूँ
अब जल्दी-जल्दी मुझे मंज़िलें फलाँगनी चाहिए.

ऐसी ही एक मंज़िल फलँगते हुए
जब मेरे पैरों के नीचे
कुछ मरणासन्न लोग आए जो कभी मेरे स्वजन थे
और जो बचा लेने की गुहार मचाए थे

मैंने उनकी तरफ़ उदात्त निगाहों से देखा
और हाथ झाड़ते हुए बोला-
ज़िन्दगी और मौत पर भला किसका वश है!

इस तरह एक के बाद एक सीमाएँ तोड़ते हुए
विचारहीनता के गर्भगृह की ओर मैं अग्रसर था
मेरी आँखों में सितारे जगमगा रहे थे

सारे अवरोध पार करते हुए
एकदम स्मृतिविहीन और मुक्त होकर
जब मैं अन्तिम पड़ाव पर पहुँचा
मैं क़तई भौंचक नहीं था

दरअसल अब मैं एक भिन्न संसार में था
वहाँ इतनी ज़्यादा रौशनी की चकाचौंध थी कि
निरावृत आँखों से उसे देखा नहीं जा सकता था
अतः सबसे पहली उपलब्धि मुझे यह हुई कि मैं
नितान्त दृष्टिहीन हो गया

उसके बाद क्या-क्या हुआ
मुझे नहीं मालूम
मुझे सिर्फ़ इतना महसूस होता रहा कि
वे मुझे हिदायतें देते रहे और तदनुसार
मैं सक्रिय होता रहा

फिर उन्होंने मुझे अपने अनुयायियों की स्थायी सूची में
पंजीबद्ध कर लिया और एक तमगा मेरे सीने पर टाँग दिया
मैंने सुना कि अब वे मुझे एक उदाहरण के रूप में
विपक्ष के सामने पेश करेंगे।

मित्रो!
मुझे अफ़सोस है कि
तुम्हारे साथ संवाद की
अब मुझे कोई
ज़रूरत नहीं रही.
-शंभु गुप्त
अलवर,राजस्थान

गुरुवार, 18 मार्च 2010

सपने की याद

यह कविता मैंने अपनी उदासी,अकेलेपन और बेचैनी में कई कई बार लिखी.अनेक साथियों से शेयर किया.फिर भी इसे सार्वजनिक करने की मेरी हिम्मत नहीं हो रही थी.डर था कहीं गलत न समझ लिया जाऊँ.इससे पहले मुझे कविता लिखकर खुशी मिलती रही है.सर्जना का सुख.पहली बार यह कविता लिखकर परेशान रहा.खुद से ही लड़ता रहा.किसी सहृदय राय की बड़ी ज़रूरत महसूस हो रही थी.शुक्रिया कथाकार मनोज कुमार पांडेय का जिनके सुझाव के कारण मैं न केवल इससे उबर पाया बल्कि आप सबके सामने रख भी पा रहा हूँ.



जब यह तय जैसा था
हमें कहीं ठौर नहीं मिलेगी
हमारे पूर्वज कभी सत्ता के आदमी रहे न जनता के
इतना जोड़ नहीं पाए कि खाते-पीते कहलाएँ
इतने आरामतलब न हुए कि दीन हो जाएँ
उनके पास आभासी इज़्जत थी
काफ़ी श्रम था
इस खातिर खटते,अपनों में ही जूझते रहे सदा
कि बाल बच्चे कटोरा लेकर खड़े न हों किसी के द्वार
न ही बन जाएँ चोर-चकार
अपनी सवर्ण ठसक में अछूत हैसियत के साथ
वे एक खास जाति ही रहे हमेशा
हमें छोड़ गए थे गैर बराबरी में अमिट पहचान देकर
हम पढ़ने में अच्छे थे
फिर भी रोज़गार के लायक नहीं थे
इसीलिए देखना चाहते थे आरक्षण को लचीला
हमें चाहिए थी किसी छोर में कैसी भी एक नौकरी
बिना मक़सद की हमारी सुबहें शाम जितनी बोझिल होतीं थीं
रातों को अक्सर एक सपना आता था
मैं छिटककर सफल हो गया हूँ
ऐसी जगह पहुँच गया हूँ
जहाँ मुझे नौकरी मिली है
हमें प्यार करनेवाली लड़कियाँ भी
इन दिनों जिसका ज्यादा इंतज़ार करती थीं
वहाँ सबकुछ होता था
लेकिन रंग-रूप,वेशभूषा में लोग दूसरे होते थे
उनकी भाषा किसी क़ीमत पर समझ में नहीं आती थी
मेरी पूरी वर्णमाला भी वैसी ही
सामनेवाले को असंभव होती थी
यह ऐसी मजबूरी थी
जो सुखद सपने को डरावना बना देती थी
मैं पसीने में लथपथ थरथराता हुआ जागता था
अकेली माँ को सोचकर प्रार्थना करता था
मुझे कभी जाना नहीं पड़े ऐसी सुख की दुनिया में
इतने सालों में जब वक्त काफ़ी बदल चुका है
रोज़गार उनके लिए भी नहीं बचा है
बकौल जगदीशचंद्र जिनकी खातिर धरती धन न अपना है
प्रायोजित भ्रम में जिनके द्वारा हम खुद को खदेड़ दिया गया समझते रहे
भारतीय भाषाओं का विकल्प बन चुकी अँग्रेज़ी
केवल हिंदी जानते हुए
मैं रहता हूँ चेन्नई के एक लॉज में
सबसे ऊपर अकेला
जहाँ नौकरी से थककर पहुँचना रोज़ शाम को
उमर का पहाड़ चढ़ना होता है
दिनभर बचपन का छूट गया सपना जीता हूँ
देर रात पानी पीता हूँ
अनजाने ही उसी जूठे पानी की चाय बनाता हूँ
फिर यह सोच कौन आएगा यहाँ
पी लेता हूँ चुपचाप
नींद में रोज़ जाता हूँ घर-गाँव
सुबह सुबह सपना याद करता हूँ.
खाली वक्त मे कोशिश करता हूँ.
अंग्रेज़ी से पहले तमिल सीख लूँ.


सोमवार, 15 मार्च 2010

मैं मलयालम हूँ

मेरे घर से स्कूल तक का सफ़र काफ़ी छोटा है.कुल तीन मिनट का पैदल रास्ता.इस बीच बहुत से छात्र-छात्राएँ मिलते हैं.कई बार अपने स्कूल के विद्यार्थियों से भरी सड़क में उनके अभिवादनों का जवाब देते हुए ही स्कूल आ जाता है.कभी फोन पर उलझा रहूँ तो कितने अभिवादन अनुत्तरित ही रह जाते हैं.सुबह सुबह बच्चों को तरोताज़ा,बैग लादे लगभग भागते हुए देखना मुझे भी सक्रिय कर देता है.भूल ही जाता है कि कितने काम निपटाकर निकल रहा हूँ और जाते ही किस किस को पहले कर लेना है.

एक दिन मैं अपनी धुन में जा रहा था.कोमल-विनम्र आवाज़ में अभिवादन सुनकर सहसा वर्तमान में आ गया.बराबरी में आते हुए उसने कहा था-गुडमॉर्निंग सर!..फिर वह मेरे साथ-साथ चलने की कोशिश में क़रीब क़रीब दौड़ने लगा था.जब मेरा ध्यान इस पर गया तो मैंने अपनी चाल धीमी कर ली.सफेद सर्ट नीले पैंट वाले स्कूली यूनीफ़ार्म में बस्ते के बोझ से आगे की ओर झुका हुआ वह मुझसे जानना चाह रहा था-सर,एक बात पूछूँ?पूछो.मुझे खुशी हुई कि वह कुछ जानने; प्रयास करके मेरी बगल में आया है.सर,आप बुरा तो नहीं मानेंगे?वह आश्वस्त हो लेना चाहता था.मैं थोड़ा चौंका पर बाद में सोचा यह ऐसी कौन सी बात पूछ सकता है जो मुझे बुरी लगेगी.पूछो क्या पूछना है?उसने ज़रा ज़ोर देकर अपना सवाल रखा-सर,आप हिंदू हो या मुसलमान?मुझे ऐसे प्रश्न की उम्मीद नहीं थी.मैंने आगे के लिए सतर्क होते हुए जवाब दिया- मैं हिंदू. हूँ.थोड़े अंतराल पर जवाब देने की उसकी बारी थी-तुम क्या हो हिंदू या मुसलमान?उसने बेफिक्री से बताया-सर,मैं तो मलयालम हूँ.उसकी आवाज़ में इतना आत्मविश्वास था कि चाहते हुए भी मैं नहीं पूछ पाया मलयालम भी तो हिंदू या मुसलमान हो सकता है.अब मेरी उसमें दिलचस्पी बढ़ गयी थी.मैंने उससे बात बढ़ायी-तुम अकेले जा रहे हो तुम्हारा कोई दोस्त नहीं है?दोस्त तो बहुत सारे हैं लेकिन सब बस में जाना पसंद करते हैं.तुम क्यों नहीं जाते बस में?मुझे पैदल चलना अच्छा लगता है.फिर उसने मुझे ठहरकर देखते हुए कहा-एक बात बोलूँ सर,मैं अभी फर्स्ट में पढ़ता हूँ.अच्छा,पर तुम मुझे क्यों यह बता रहे हो?इसलिए कि मैं लंबा हूँ थोड़ा मोटा भी तो कहीं आप यह न समझ लें कि मैं फिफ्थ मे पढ़ता हूँ. उसने स्पष्ट किया.

मेरी रुचि उसमें बढ़ती ही जा रही थी.लेकिन हम गेट तक आ चुके थे अब ज्यादा बातचीत की गुंजाइश नहीं थी.बच्चों की भीड़ में बतियाते हुए साथ-साथ चलना मुश्किल हो रहा था.उसने अपने एक मित्र को देखकर उससे हाय किया.मुझे अगली बात बताई-सर,मेरे पापा इंसपेक्टर हैं.तुमने पहले नहीं बताया?पहले बताने का सवाल ही नहीं उठा.अभी बताने की क्या ज़रूरत पड़ी?मेरी बात असभ्य न हो जाए इसे ध्यान में रखकर मैंने कोमलता से कहा.उसने सफाई दी-अभी इसलिए बताया कि कहीं आप यह न समझ लो कि मैं पैदल चलनेवाला ग़रीब स्टूडेंट हूँ.क्या तुम्हें गरीब समझ लिया जाना बहुत बुरा लगता?उसने तपाक से कहा-हाँ सर,पावर्टी सबसे बड़ी बुराई है.मैं बड़ा होकर अमीर आदमी बनूँगा.

इतना बोलते-बोलते वह दौड़ने लगा था.बाय सर...बोलता हुआ वह अगले क्षण अपनी क्लास में चला गया.मैं देर तक उसके बारे में सोचता रहा. पहली कक्षा में पढ़नेवाले अश्विन कृष्णन के मानसिक स्तर की तुलना मन ही मन अपने बचपन से करके उसके भविष्य का अंदाज़ा लगाते हुए मुझे सुखद आश्चर्य हुआ.

रविवार, 14 मार्च 2010

प्यार का शिल्प

आजकल प्यार बहुत बढ़ गया है.जिस दिल में झांको प्यार का उमड़ता हुआ सागर दिखाई देगा.इतना प्यार सभ्यता के किसी दौर में नहीं था.इस प्यार को दिन दुगुना रात चौगुना फैलाने में सूचना और एसएमएस क्रांति का बड़ा हाथ है.जिसे देखो वही प्यार कर रहा है.माँ से पैसे माँगकर प्रेमिका के लिए ग्रीटिंग खरीदे जा रहे हैं.पत्नी से इशरार करके प्रेमिका के लिए पकौड़े बनवाये जा रहे हैं.बिटिया की मनुहार कर उससे उसकी सहेली को घर बुलवाया जा रहा है.कुल मिलाकर प्यार के रास्ते में कोई अपराधबोध है न बंधन.

इस समय केवल निठल्ले या बोदा लोग ही प्रेम नहीं कर रहे हैं.या फिर जिनके पास दिल जैसी कोई चीज़ नहीं होगी.हालांकि यह कहना विवादास्पद होगा कि किसी के दिल ही नहीं.इसे थोड़ा घुमाकर ऐसे कह सकते हैं कि कुछ लोग दिमाग़ का इस्तेमाल करते हुए इस सुलभ वक्त में भी दोस्ती वगैरह से धीरज धर रहे हैं.वरना प्यार इतने रूपों में आकर्षक सौगातों के साथ उपलब्ध है कि उसकी कथा कह सकने लायक पर्याप्त शिल्प का अभाव है.इतनी प्रेम कहानियाँ लेकिन क़िस्सों के वही घिसे पिटे अंत वाले शिल्प.इसीलिए तो हिंदी का कथाकार पिछड़ा हुआ है.

जैसे एक इसी कहानी का उदाहरण लीजिए एक लड़के ने तीन लड़कियों को टूटकर प्यार किया.उन्हीं लड़कियों में से एक ने उसे मिलाकर एक अधेड़ और एक अपने से छोटे लड़के को प्यार किया.आखीर में जब दोनों प्यार से भर गए तथा एक दूसरे में खुद को सीमित कर लिया तो सोचा लाइफ में प्यार के स्वर्ग के अलावा गृहस्थी का नरक भी ज़रूरी है.सो उन्होंने शादी करने की ठानी.पर लड़की के बाप ने साफ़ कह दिया देखो मैंने तुम्हारे प्यार व्यार मे कोई अड़ंगा नहीं डाला एक तरह से बढ़ावा ही दिया क्योंकि मैंने भी प्यार किया था, मैं समझता हूँ इसमें कोई बुराई नहीं, इससे व्यक्तित्व में निखार आता है.पर शादी मैं जाति के बाहर हर्गिज नहीं होने दूँगा.जैसे मैंने खुद को समझा लिया था तुम भी सही रास्ते पर आ जाओ.इसी में खानदान की इज्ज़त है.लड़की ने मन मारकर पिता का फैसला मान लिया.लड़के को ठीक वही जवाब दिया जो उसने एक लड़की के भावुक हो जाने पर दिया था कि देखो प्रिये मैं माँ-बाप की मर्जी के बगैर कुछ नहीं करूंगा.पर तुम चाहो तो हमारा प्यार कभी खत्म नहीं होगा.क्योंकि प्यार कभी मरता नहीं.

अब सोचिए यह कहानी जो वास्तव में अमर प्रेम की दास्तान है.जिससे युवाओं ने सीख भी ले ली कि सीर्यस प्रेम करने के लिए अपनी जाति की लड़की होनी चाहिए इसे लेखक कैसे लिखेगा?वह एक उदास वाक्य कहेगा कि इसके बाद वे कभी जुदा न होने के लिए एक दूसरे से दूर चले गए.और कहानी खत्म हो जाएगी.लेकिन वास्तव में कहानी यहीं खत्म नहीं होती.कहानी तो यूँ आगे बढ़ती है कि लड़की शादी के बाद जिद कर करके मायके जाती है,पूर्व प्रेमी से मिलती है.उपहारों का आदान प्रदान होता है.इस नये मिलन में उनका विद्रोह भी है कि शादी मां-बाप की मर्जी से पर प्यार अपनी मर्जी का.ऐसे ही प्रेम को अमर बनाती यह कहानी चलती रहती है.इसमें आगे यह भी जुड़ जाता है कि नयी पीढ़ी के लोग विश्वसनीय संस्थानों से प्यार की कोचिंग ले रहे हैं,अपना अपना व्यक्तित्व सँवार रहे हैं.इस कहानी को जिसमें अभी अनेक सोपान जुड़ते ही जाना है ठीक ठीक अंतहीन ढंग से सुनाने का शिल्प क्या होगा?जाहिर है इसका जवाब नहीं खोजा गया अब तक.इसीलिए कोई सबसे अच्छी प्रेम कहानी कभी नहीं लिखी जा सकी.भविष्य में भी इसकी संभावना नहीं है.कहानियाँ आज तक वहीं खत्म हो रही हैं जहां से प्रेम घर की ओर मुड़ जाता है.एक ही छत के नीचे,उसी बिस्तर में पति या पत्नी के साथ चोरी से रहने लगता है.

यही छल रोकने के लिए प्रेम बढ़ रहा है.मिट मिटकर अंतहीन हो रहा है.क्योंकि प्यार को पता है कि वह छुपकर ज़िंदा नहीं रह सकता.आप कहीं भी दफ्तर या देवालय में प्यार के इस बढ़ते शैलाब को महसूस कर सकते हैं.लेकिन आप चाहें तो मेरी इस बात को भी खारिज कर सकते हैं कि इतना प्यार सभ्यता के किसी दौर में नहीं था.

शुक्रवार, 12 मार्च 2010

मेहतर




जबकि सभी यह अच्छी तरह समझ गए थे कि बौद्धों के बाद भारत में ज्ञान-विज्ञान में कोई तरक्की हुई न आगे किसी भाँति संभावना है.तब से लेकर पिछले दो हज़ार नौ तक का सब नकल है.सदा की तरह यहाँ सबकुछ उधार या आयातित ही रहा आएगा.क़रीब क़रीब सारे ऐसे ही अंग्रेज़ीदां बौद्धिक फैसलों के तामीली वक्त में रामचरन को यह खब्त सवार हो गई कि हिंदी में ही हर तरह का शैक्षिक अनुशासन खुद सीखेंगे भी और आगे की ज़िंदगी में सत्ता तथा बाज़ार द्वारा लगभग व्यर्थ कर दी जानेवाली शिक्षा ले रहे बच्चों को सिखाएँगे भी.जितना हो सकेगा उन्हें बदलेंगे.यद्यपि वे किसी भी विश्वविद्यालय में,मिली हुई फेलोशिप की अवधि गुज़ारने रिसर्च करते रहकर पैसा,वक्त और बुद्धि बरबाद करके भी विद्वान कहला सकते थे,ढलती उम्र में ही सही प्रोफेसर हो सकते थे पर उन्होंने चूतियापों से सँवरनेवाली क़िस्मत को लात मारकर हिंदी का झोलाछाप-चप्पलधारी मास्टर होना स्वीकार कर लिया.इस निर्णय के पीछे उनकी एक घाटे का सोच यह भी था कि उच्च शिक्षा में सीखने के लिए कोई पढ़ने नहीं जाता.सब पके पकाए महत्वाकांक्षी अवसर झपटने वहां जाते हैं.इन्हीं रामचरन के स्कूल में यानी भारत के एक क़स्बे से जुड़ चुके गाँव के स्कूल में यह दिलचस्प किंतु मामूली घटना हुई.

एक लड़की जो पापा की डाँट के डर से परीक्षा में शत प्रतिशत अंक लाने के लिए ही सोती-जागती थी,हिंदी में भी पूर्णांक लाने की अभिलाषा रखती थी.एक दिन वह रामचरन की ध्यान से जाँची गई लगभग लाल स्याही से रंगी हुई उत्तरपुस्तिका लेकर उनके टेबल के पास पहुँची.उसने पूरी समस्या को बड़े मौलिक ढंग से रखा क्योंकि उसके जानने में आ गया था कि रामचरन सर समझा बुझाकर लौटा देते हैं.बोली-सर,आपने सौ में कुल चार अंक काटे है लेकिन दिया बानवे है मिलना तो छियानवे चाहिए न?रामचरन ने सोचा कह तो सही रही है ये आठवीं के बच्चे भी कितना सोचते हैं पर उन्होंने भी जवाब दिया गौर से देखो अगर टोटल में गलती हो तो बताओ मैं ठीक कर दूँगा.लड़की ने कहा-सर टोटल तो सही हैं.पर नंबर तो छियानबे ही होना चाहिए.वह इतना कहकर रोने लगी.बाक़ी बच्चों ने भी उसकी बात को सही ठहराया.पूरा प्रसंग इतना भावुक एकतरफा हो गया कि रामचरन को समझना मुश्किल हो गया चूक कहाँ हो गई?पर बिना संतुष्ट हुए नंबर बढ़ा देना उन्होंने स्वीकार नहीं किया.एक बार पहले भी यह लड़की बदमाशी कर चुकी है.उन्हीं की जाँची हुई कापी के सामने अंकित नंबर को बिल्कुल न छेड़ते हुए आखिरी पृष्ठ के ठीक ऊपर नंबर बढ़ाकर पापा को इस आजिज़ी से दिखा चुकी है कि पप्पा,सर ने सामने करेक्ट नहीं किया क्योंकि काट-पीट हो जाएगी इसलिए यहाँ पीछे लिख दिया है.मुझे अट्ठानवे ही मिले हैं.वो क्या है न पप्पा कि हिंदी में पूर्णांक मिलते ही नहीं.लड़की के पिता जी इसे स्पष्ट समझने रामचरन के घर आ गए थे.काफी देर तक उलझना पड़ा था उन्हें.रामचरन के लिए यह अनोखा अनुभव था कि होशियार बच्चे भी प्रतियोगिता में झूठे हो रहे हैं.आज फिर वही लड़की सामने थी.वह कुछ तय कर पाते कि उसी वक्त परीक्षा विभाग से ज़रूरी बुलावा आ गया तो वे चले गए.प्रकरण कल तक के लिए टल गया.

पर बात रामचरन के दिमाग़ से निकल नहीं रही थी.इधर ऐसे हादसे भी हो रहे थे कि कुछ नंबर कम हो जाने से छोटे-छोटे बच्चे आत्महत्या कर रहे थे.यह सोचकर ही उनकी आँख भर आई कम नंबर के बगल में एक मासूम बच्चे की लाश पड़ी हुई है.उन्होंने पानी पिया,सिर धोया और लड़की की उत्तरपुस्तिका लेकर बैठ गए.जब मन एकाग्र हुआ तो उनके दिमाग़ में एक बात कौंधी और उन्हें हँसी आ गयी.वह ज़ोर से हँसे,अपनी ही चुटकी ली-मैं भी कम बुद्धू थोड़े हूँ.ऐसा भी तो हो सकता है लड़की चार नंबर का प्रश्न हल करना ही भूल गई हो.उन्होने ध्यान से देखा तो यही हुआ था.चूँकि कक्षा में ऐसे विद्यार्थियों की संख्या आधे से ज्यादा थी जो परीक्षा मे कोई प्रश्न नहीं छोड़ते थे इसी गफ़लत में यह सोचा तक नहीं जा सका था.

अगले दिन कक्षा में उन्होंने लड़की को यह बात समझाई.लड़की मान गई.धीरे से बोली-हाँ सर.फिर भी पूरी कक्षा की सहमति ली.सब संतुष्ट हो गए.जैसे ही पूरे जोश के साथ कक्षा में सामूहिक यस सर गूँजा बच्चों का भोलापन देखकर उनकी भावुक आँखें फिर भर आईं.अब की बार उन्होंने निजी क़िस्म की बात सोची-कोई काम छोटा नहीं कालेज में प्रोफ़ेसर बनकर गलत विद्यार्थियों को प्रमोट करते रहने से अच्छी है ये साढ़े तीन हज़ार की मास्टरी.एक अध्यापक के गलत मूल्याँकन से पूरी सभ्यता बीमार हो जाती है,तमाम विश्वविद्यालय मूर्ख बनाने के कारखाने है उनके दिल में अपने प्रिय किंतु ज़माने भर में बदनाम दार्शनिक की बात गूँजी.उन्होंने मन में अपना संतोष दोहराया और पढ़ाने में जुट गए.

सोमवार, 8 मार्च 2010

अपने हिस्से की माफ़ी

मुझे पक्का याद था कि आज महिला दिवस है.इसे ही ध्यान में रखकर मैंने कल एक कविता की पोस्ट भी लगाई.पर जब आज स्कूल गया तो किसी ने मुझे शुभकामना नहीं दी.मैंने भी किसी से कुछ नहीं कहा.सब कुछ ऐसे रहा जैसे कोई सचमुच का ऐसा दिन भी हो सकता है जिसमें हँसी का साथ देते हुए बढ़कर हाथ मिला लेने का मौक़ा ही न आए.मोबाईल में भी इससे संबंधित कोई एसएमएस नहीं आया.लेकिन भीतर ही भीतर यह उत्सुकता भी रही कि हमारे घाघ राजनीतिज्ञ महिला आरक्षण विधेयक को टालने में इस बार कौन सी सफल युक्ति अपनाएँगे.अनुमान जनित अफसोस भी रहा कि इस बार भी पुराना इतिहास ही न दोहराया जाए.
खैर,स्कूल में एक मीटिंग में हम सब एकत्र हुए.सारी बातें हुई.चलने का समय आया तो संस्कृत के अध्यापक को जाने कैसे याद आ गयी उन्होंने वी.तमिलारसी मैडम को हैप्पी वीमन्स डे बोला.मैडम ने एक पल की देरी किए बिना तुरंत कहा इतनी देर से इस विश का कोई मतलब नहीं.फिर उन्होंने सीधा मेरी ओर इशारा करते हुए कहा कि हिंदी सर को देखिए इतना बोलते हैं पर आज इनके पास भी एक सेंटेंस नहीं.यह बात मेरे भीतर तक उतर गई.तमिलारसी मैडम अपने साफ़ दिल,तुरंत निर्णय और गलत का कभी समर्थन नहीं करने के लिए जानी जाती हैं.मुझे यह नहीं भूल सकनेवाली अपनी ग़लती लगी लेकिन उनकी अपेक्षा पर गर्व भी हुआ.
यही सोचते हुए कि हम अपनी उदारता में भी आवश्यक सौजन्य कैसे भूल जाते हैं घर आया.मेरे दिमाग़ से अपनी गलती सुधारने का खयाल भी क़रीब क़रीब निकल चुका था कि अब से थोड़ी देर पहले मेरी एक दोस्त का फ़ोन आया.उसने मुझसे प्रत्यक्ष कोई शिक़ायत नहीं कि पर यह बोली कि आज सुबह से अखबारों में महिला दिवस के बारे में बहुत पढ़ा,समाचार चैनलों मे बहसें सुनी पर किसी ने मुझे महिला दिवस विश नहीं किया.यही फ्रैंडशिप डे या वैलेंटाईन डे होता तो जान बचानी मुश्किल होती.कोई जेंट्स डे होता तो स्टाफ़ रूम में ठहाके गूँजते.

यही दो बातें हैं आज मेरे जेहन में जिन्होंने मुझमें अपराधबोध पैदा किया.एक खबर भी है राज्यसभा की जो गुस्से से भर रही है.पर कोई बड़ी बात कहने से ज्यादा ज़रूरी लग रहा है आज मुझे;मैं पहले अपने हिस्से की क्षमा माँगू.

रविवार, 7 मार्च 2010

कोख

दो पुरुष मिलकर चलाएँगे
गृहस्थी की गाड़ी
अधिक क्षमता वाला कमाकर लाएगा
दूसरा चूल्हा-चौका चलाएगा
पुरुष परस्पर रक्षा का वचन देंगे
रक्षा-बंधन पर
जतन से रखे जाएँगे स्त्री के जीवाष्म
पुरातत्व विभागों में
सहेजकर टाँगी जाएँगी उसकी तस्वीरें
दुनिया भर के संग्रहालयों में
पुरुष वैज्ञानिक खोज ही निकालेंगे
पुरुषों के गर्भाधान के तरीके
पुरुषों से पुरुष पैदा होंगे
पर तब उचित न होगा
पुरुषों को पुरुष कहना
यह नयी मानव जाति होगी
रक्त-दूध-वीर्य के मिश्रणवाली
अभी कोख में दुबकी बिटिया की
सिसकी सुनने का वक्त नहीं है.
-कविता जड़िया

शुक्रवार, 5 मार्च 2010

आलोचना


एक आदमी ने रोटी पकाई.खाते-पीते मित्र को खाने पर बुलाया.ज़िद करके खाना खिलाया.वह अघाया मित्र दिन भर खाते रहने का आदी हो चला था.इसलिए इंकार न कर सका.अनमना खाता रहा.

जिज्ञासु मेज़बान से रहा न गया तो उसने मेजबानी में आत्मीयता जोड़ते हुए पूछ लिया
-.क्या रोटी अच्छी नहीं थी?
मित्र ने कहा-देखो मित्र अव्वल तो अब कोई रोटी खाता नहीं.पर अगर तुम रोटी बनाना नहीं ही छोड़ना चाहते तो गैस स्टोव की बजाय चूल्हे में लकड़ियाँ जलाकर सेंको.और हाँ खाली गेहूँ का आटा इस्तेमाल करने की बजाय उसमें थोड़ा चना या सोयाबीन का आटा मिलवा लीजिए.शुरू में ही एक साथ पिसवा सकें तो सबसे बढ़िया.आजकल यह जरूरी हो गया है.रोटी का मतलब पौष्टिक आहार भी होना चाहिए.

मेजबान मित्र उदास हो जाता है.इस बार दयनीय होकर पूछता है
-माफ़ करना क्या रोटी बिल्कुल अच्छी नहीं थी?
अतिथि मित्र ज़रा रुखाई से बोलता है.
-देखिए हमें अब इतनी गोल रोटियों की आदत छोड़नी होगी.रोटी निर्माण में कला घुसेड़ने की ज़रूरत नहीं.उससे भूख मिटाने का ही काम लिया जाय तो बेहतर होगा.व्यर्थ साज सज्जा बढ़ाकर रोटी को मनोरंजन का साधन बना दिए जाने के मैं सख्त खिलाफ़ हूँ.आखिर रोटी को तोड़ना और चबा ही डालना है.घी चुपड़ देने का चोंचला भी बंद करना पड़ेगा.लोगों की आँतों के चारों ओर पहले से चिकनाई बहुत जमा है.इसलिए घी इस्तेमाल करने से ज्यादा जरूरी है कोई चटनी साथ में दें जिसमें रेशे हों.मुझे लगता है आप आटा भी महीन पिसवाते हैं.इसकी कोई ज़रूरत नहीं.

इतना सुन लेने के बाद मेजबान मित्र झल्लाकर वाहियात प्रश्न पूछ डालता है
-अब इस रोटी में क्या कोई सुधार किया जा सकता है?
मेहमान मित्र ने कहा
-अगर आप सचमुच चाहते हैं कि यह रोटी सफल होने की बजाय सार्थक हो तो इसकी मौजूदा संरचना को तोड़िए.इसकी आत्मा वही रहने दीजिए पर शरीर बदल दीजिए.मेरा मतलब समझ रहे हैं न?इसे सुखा लीजिए.दुबारा पीसकर नए आटे को भूनिए.याद रखिए यहाँ घी का इस्तेमाल अवश्य करें.अब थोड़ा पानी और मसाले डालकर उसका हलवा बनाइए मगर शक्कर डालकर बहुत मीठा करने से बचिएगा.देश में आजकल कम मीठे हलवे का चलन है.इससे ज्यादा मैं कुछ नहीं कहूँगा.रोटी खिलाने का बहुत-बहुत धन्यवाद.

मेजबान मित्र यह सब सुनकर हक्का-बक्का रह गया.उसे समझ में ही नहीं आया कि इस आलोचना से कुछ सीखे या भविष्य में ऐसे खाते-पीते मित्र को कभी खाने पर न बुलाने का निर्णय ले.

बुधवार, 3 मार्च 2010

शर्म

यह एक बड़ा सालाना आयोजन था.

एक भूतपूर्व प्रसिद्ध उद्योगपति की याद में उन्हीं के नाम से स्थापित हिंदी का सर्वश्रेष्ठ साहित्यिक सम्मान समारोह.इसमें कई विधाओं के लिए वार्षिक पुरस्कार दिए जानेवाले थे.

हॉल खचाखच भरे होने की भी समुचित व्यवस्था की गई थी.बड़े-बड़े साहित्यकारों,आलोचकों,संपादकों,समीक्षकों,पत्रकारों,राजनीतिज्ञों,और कला जगत की जानी मानी हस्तियों के बीच अनेक साहित्यसेवियों के साथ भूपुष्प को भी सम्मानित किया जा रहा था.विभिन्न निजी,सरकारी टी वी चैनल समारोह को सीधा प्रसारित कर रहे थे.

भूपुष्प मूलत: कवि थे पर हिंदी की सभी प्रमुख विधाओं में काम कर चुके थे.उनकी चालीस साल की अभावों से जूझती अनवरत् साहित्य साधना में अब तक कोई बड़ा यश नहीं आया था.विख्यात पत्रिकाओं ने उन्हें खास तवज्जो नहीं दी थी.किसी बड़े प्रकाशन से कोई किताब नहीं छप सकी थी न किसी प्रसिद्ध आलोचक ने उन पर कभी कुछ लिखा था.राष्ट्रीय महत्व के आयोजनों में वे अपने ही खर्च से सम्मिलित होते रहे थे.जब तक सरकारी नौकरी की नियत आय रही अपने घर में प्रिय संगठन की गोष्ठियाँ करवाते रहे.फिर भी वे गुमनाम ही रहे सदा.पर प्रतिभा को कब तक नज़रअंदाज़ किया जा सकता है?अचानक राष्ट्रीय स्तर पर राजनीति में सफल हो गए बचपन के एक मित्र की बदौलत इस बार भी यह मुहावरा झूठ होने से बच गया था.पारखियों की नज़र उनपर भी डलवायी गई.खर्च खुद वहन करने की शर्त पर अपेक्षाकृत अच्छे प्रकाशन से किताबें छपवायी गयीं.यह बात अलग है कि अब भी उनके मौलिक लेखन को नहीं अनुवाद को पुरस्कृत किया जा रहा था.इसमें संतोष की बात यह थी कि किसी रूप में ही सही प्रसिद्धि भूपुष्प के हिस्से भी आई जिसके वे पुराने हक़दार थे.कहते हैं प्रसिद्धि बड़े-बड़े दरवाज़े तोड़ देती है इसी बहाने उनपर बात की शुरुआत हो रही है तो जल्द ही नया अध्याय भी खुलेगा ऐसी उम्मीद तो की ही जा सकती है.

सबसे पहले भूपुष्प का संक्षिप्त परिचय पढ़ा गया.जिसमें खासतौर से यह उल्लेख किया गया था कि कैसे भूपुष्प जी ने उम्र के छठवें दशक में अत्यंत मुश्किल चीनी भाषा सीखी.फिर मध्यकालीन चीनी काव्य का गहन अनुशीलन किया तब जाकर इस अज्ञात कवयित्री को उन्होंने खोज निकाला.जिस पर आज तक किसी की नज़र नहीं पड़ी थी.जबकि हर साल चीन में ही सैकड़ों शोध होते हैं.इस कवयित्री की अनूदित कविताओं से गुज़रते हुए एक पल को भी यह नहीं लगता कि हम किसी चीनी समाज से बावस्ता हैं बल्कि लगता है जैसे भारतीय समय-समाज ही हमारे सम्मुख मूर्त हो रहा है.उसकी परतें खुल रही हैं.इसी बिंदु पर यह स्वीकार करना ही पड़ता है कि दुनिया एक गाँव है.देश विदेश की सीमाएँ कोई मायने नहीं रखतीं.यदि क्रांति के उजले दर्पण की तरह ये कविताएँ हमें प्रतीत होती हैं तो इसका काफ़ी श्रेय उत्तम अनुवाद को जाता है.आनेवाले दिनों में इस चीनी दलित कवयित्री की कविताओं के बहाने हिंदी में भी सार्थक बहस की शुरुआत हो सकेगी,भटके हुए विमर्शों को सही दिशा मिल सकेगी ऐसी आशा करना बिल्कुल उचित होगा.इस अवदान के लिए हिंदी समाज भूपुष्प जी का सदैव ऋणी रहेगा.

इसके बाद भूपुष्प जी को शॉल श्रीफल और ढाई लाख रुपये का चेक देकर उनके ही राज्य के लेखक राज्यपाल द्वारा सम्मानित किया गया.पूरा दृश्य देखकर उनकी भावुक पत्नी की आँख में आँसू आ गए.बेटे और बहू ने पोते का साथ देते हुए ज़ोर की तालियाँ बजायीं.जब माहौल में सारस्वत शोर थोड़ा कम हो गया तो भूपुष्प ने संबोधित करने के लिए माईक सम्हाला.इस वक्त उनकी टांगें काँप रहीं थी और मुह से स्पष्ट बोल नहीं निकल रहे थे.लग रहा था जैसे वे अपनी किसी भीतरी लड़ाई में मारे जा रहे अपने ही बौने अवतारों की लाश निकाल रहे हैं.पर शुरुआती आभार संबंधी औपचारिकताओं के बाद उनकी आवाज़ साफ़-संयत हो गई.लोगों ने खुद को उन्हें सचमुच का सुनते हुए पाया.

पर यह क्या?भूपुष्प जी ने पहला वाक्य बोलकर ही सबको सकते में डाल दिया.-मैं आज सचमुच शर्मिंदा हूँ.मुझे यह नहीं करना चाहिए था.पर मैं मजबूर था.और वह रोने लगे.लोगों को लगा ऐसे मौको पर संवेदनशील कलाकार आमतौर पर भावुक हो जाते हैं तथा पुरस्कार ग्रहण करने की चाही गयी मजबूरी को भी अपराधबोध के शिल्प में प्रकट करते हैं इसलिए भूपुष्प को बोलने में जितनी तक़लीफ़ हो रही थी श्रोता उतनी ही बेचैनी से उन्हें झुठलाते हुए सुनना चाह रहे थे.आखिरकार भूपुष्प बोलने में सफल हुए उन्होंने कहा-मुझे माफ़ करें यह किसी चीनी कवयित्री की नहीं मेरी ही कविताएँ हैं.मैंने कोई अनुवाद नहीं किया.ये मेरी वो कविताएँ हैं जो आज तक कहीं न छप सकीं.जिन्हें मैं अपने मित्रों के प्यार के बदौलत फाड़कर फेंक न सका.और आप सबसे बदला लेने के लिए यह कर बैठा.मैं आप सबसे माफ़ी माँगता हूँ.मैं सचमुच शर्मिंदा हूँ.
यह द्विवेदीयुगीन हृदय परिवर्तन से उपजी ऐसी नैतिकता थी जिसे किसी ने स्वीकार नहीं किया.बदले में सभी अपमान से इतने आक्रामक हो गए कि इसके बाद समारोह में जो जो हुआ उसकी तफसील में जाने की जरूरत नहीं.भूपुष्प जी को गंभीर हालत में अस्पताल में भरती कराया गया.

अगले दिन अखबारों में इसके पक्ष-विपक्ष में बयान छपे थे.किसी ने कहा यह सदी का सबसे बड़ा साहित्यिक फ्राड है.किसी का कहना था इसमें कुछ भी ग़लत नहीं.