रविवार, 28 फ़रवरी 2010

प्यार तुम्हारा रंगों का त्यौहार

एक रंग आसमान का
अनेक रंग धरती के
घुलते है भीतर
आती है जब तुम्हारी याद

एक रंग मिलन का
अनेक रंग सपनों के
पड़ते हैं ऊपर
होता है जब तुम्हारा साथ

एक रंग आँख का
अनेक रंग आत्मा के
रंगते हैं प्राण
देखता हूँ जब तुम्हारा रूप

एक रंग कविता का
अनेक रंग करुणा के
रचते हैं होठ
कहता हूँ जब तुम्हारा प्यार....

शनिवार, 27 फ़रवरी 2010

क्या एमएफ़ हुसैन बहादुरशाह जफ़र से ज़्यादा बदनसीब हैं?

दुनिया भर में मशहूर भारतीय चित्रकार एमएफ़ हुसैन ने भारत की नागरिकता छोड़ दी.उनके क़रीबी लोगों का कहना है कि हुसैन भारत से निकले हैं उनके भीतर से भारतीयता को नहीं निकाला जा सकता.इस पर कौन गर्व करेगा? निश्चितरूप से कुछ उत्साही,उद्धरणशील भारतीय जिन्हें भारत की विभूतियों को सलाम करते रहना ही आपद धर्म लगता है.भारत छोड़ चुके रत्नों को जिन्हें भारत की ही उपज बताने में खासा आनंद मिलता है.वे इस अतिरेक में वास्तविक कमी को भूल ही जाते हैं

इस घटना से हुसैन के समर्थकों को भारत में मौजूद हिंदू चरमपंथ को कोसने का बड़ा मौक़ा मिल गया है.वे इस घटना को हो सकता है भविष्य में भारत के मुसलमानों में पल रही असुरक्षा की भावना को बढ़ानेवाला घोषित कर दें.यह आशंका जताने लगें कि आगे और कलाकार पलायन करने को मजबूर होंगे.यह होना भी चाहिए क्योंकि हिंदू विघटनकारी ताक़तों ने फिदा हुसैन का भारत रहना मुश्किल कर दिया.उन्हें डर के साये में भारत से दूर रहने-जीने को मजबूर किया.उनकी कलाकृतियों को नष्ट करने की लगातार कोशिशें की.

पर सवाल ये भी उठता है कि हुसैन दुबई या लंदन की नागरिकता की अपील भी तो कर सकते थे जहाँ वे लंबे समय से रहते रहे हैं और क्या पता क़तर के नागरिक हुसैन आगे भी इन्हीं देशों में से ही कहीं रहें.

क़तर एक इस्लामिक देश है.वहाँ अट्ठानवे प्रतिशत सुन्नी संप्रदाय के लोग हैं.शासन प्रणाली राजतंत्र है.हुसैन पर आरोप रहे हैं कि वे हिंदू देवी देवताओं के अश्लील चित्र बनाते हैं.अब वे एक लोकतांत्रिक धर्मनिरपेक्ष देश छोड़कर क़तर के नागरिक बन गए हैं तो क्या इसे एक चरमपंथ से भागकर दूसरी अतिवादी स्थितियों में जाना नहीं कहेंगे?यह अप्रत्यक्ष रूप से चरमपंथ की ही जीत नहीं है?

इस बात से किसे इंकार होगा कि बड़े से बड़ा कलाकार भी नॉस्टैल्जिया से मुक्त नहीं होता .सारा जीवन घर-गाँव से भागते रहनेवाले विद्रोही भी अंत में अपने पैत्रिक श्मशान ही जाना चाहते हैं.मुझे लगता है जब हुसैन के इस क़दम को उनके हिंदू देवी देवताओं के अशोभन चित्र निर्माण से जोड़कर देखा जाएगा तब हुसैन की कला का वो नुकसान होगा जो अब तक नहीं हुआ है.

मुझे पता नहीं बहादुरशाह जफ़र के बारे में हुसैन के क्या विचार हैं? पर आज उनसे पूछने का मन हो रहा है-हे!चित्रकार श्रेष्ठ क्या आपके दुख भारत का नेतृत्व कर रहे इस बादशाह से बड़े रहे हैं?क्या आप दिल ही दिल में इकबाल को अपने क़रीब महसूस करते हैं?

हुसैन साहब,आप स्वेच्छा से भारतीय नहीं है तो इस बात से हमें धक्का पहुँचा है.आपकी सलामती हम हमेशा चाहेंगे पर हमारा आपके प्रति प्रेम बेशक़ कम हो गया है.आपने हमें जो सज़ा दी है उससे खुद ही यह हक़ खो दिया है कि अब हम आपकी किसी प्रकार की वकालत करें.हम आपकी निंदा नहीं करते पर आपके इस क़दम पर अफ़सोस जाहिर करते हैं.


बुधवार, 24 फ़रवरी 2010

हम खरीदार न सही पर अपनी क़ीमत जानते हैं



ये मलयेश हैं.

आप देख रहे हैं.जहाँ ये बैठे हुए हैं यह एक फुटपाथ है.स्पेंसर प्लॉजा के ठीक सामने.चेन्नई के इस शॉपिंग मॉल की गिनती दक्षिण एशिया के सबसे बड़े शॉपिंग मॉल में होती है.


एक शाम जब मैंने मलयेश को पहली बार अचानक अपने ठीक सामने कटोरा फैलाते हुए देखा तो डर गया था.हड़बड़ी में मैं आगे बढ़ गया पर ठिठककर मलयेश को ग़ौर से देखने से खुद को रोक नहीं पाया.मेरे पहले के डर और अब की जिज्ञासा को मलयेश ने भाँप लिया था.जवाब में उसने मुझे गाली दी.तमिल में.जिसे मेरे साथी ने समझाया.हाव-भाव से मुझे भी लग गया था कि यह गाली दे रहा है.अगले ही पल उसने अपना कटोरा खड़ख़ड़ाकर मुझे हटो यहाँ से..का साफ़ संकेत किया.

यह पहली बार था जब किसी भिखारी ने मुझे गाली दी.मैं गहरे अपमानबोध में था.फिर भी मेरी फ़ोटो खींच लेने की इच्छा हुई.इस इच्छा का मैंने खुद ही दमन किया कि साले एक सिक्का तक तो दिया नही चले हो फ़ोटो खींचने.मैं उस दिन चला आया.पूरी रात मन खिन्न रहा.


एक महीने बाद जब फिर यहाँ आना हुआ तो मैं पहले ही सावधान हो गया.चलते-चलते ही दो रुपये का सिक्का निकालकर मलयेश के कटोरे में डाला और उसकी बगल में खड़ा हो गया.पहले तो खयाल आया कि चुपचाप फ़ोटो खींच लूँ जल्दी से पर लगा यह ज़्यादती होगी.मैंने इसकी इजाज़त चाही.मलयेश ने साफ़ मना कर दिया.

इल्लै...पो..पो..(नहीं.जाओ यहाँ से...) लेकिन मुझपर ज़िद सवार हो चुकी थी.
हारकर मलयेश ने सौ रुपये की मांग रख दी.
मैंने कम रुपये लेने की गुजारिश की.

यह ऐसी सौदेबाज़ी थी जिसने मुझे सिखाया कि मलयेश मजबूर भले हो उसे दुनिया के बारे मे कोई भ्रम नहीं.पर मेरा खुद को तर्क था मेरे पास हराम के पैसे नहीं होते जो सौ रुपये को छोटी रकम समझ लूँ.


मैंने ज़ोर देकर कहा कि यह बहुत ज़्यादा है
वह इससे कम पर राज़ी नहीं था.
लेकिन मैंने यह फोटो खीच ली.
उसे दस रुपये दिये.
वह असंतुष्ट था पर शायद मेरी स्थिति जान गया था.


मुझे अंदाज़ा था कि यह बहुत कम है पर मैं ऐसे लोगों में हूँ जो पांच रुपये बचाने ही दो-तीन किलोमीटर रेंग जाते हैं.सो मुझे इतना कम देने पर ज़्यादा देर तक अफ़सोस नहीं हुआ.


मलयेश ने भी मुझे माफ़ कर दिया है.परसों जब मैं उसके पास से गुज़रा तो हम एक दूसरे को देखकर मुस्कुराए.मुझे बहुत भला लगा.वह स्वाभिमानी है.परिचितों के सामने कटोरा नहीं फैलाता.

मैं चाहता हूँ इस बड़े महानगर में मुझे अच्छे दोस्त मिलें.पर मैं मलयेश की भी सच्ची दोस्ती का हक़दार रहूँ.वह मुझे देखकर खुश होता रहे.

मुझे नहीं पता कि मलयेश को यह कौन सी बीमारी है. मैं तो इस बात से विचलित हुआ कि इस काया को भी भूख नहीं बख्शती.


इतने बड़े बाज़ार के सामने जहाँ रुपये सिर्फ़ आंकड़े होते हैं यह अपनी भूख के लिए बैठा रहता है.सड़क के दलाल इससे भी टैक्स वसूलते हैं यह सोचकर ही ग़ुस्सा उफनता है.



शनिवार, 20 फ़रवरी 2010

तलाश

कविता जड़िया ने पांचवी में पहली कविता लिखी.फिर दसवीं में म.प्र.के गोविंदगढ़ में आयोजित एक कविता रचना शिविर में हिस्सा लिया जिसमें भगवत रावत,बद्रीनारायण,डा.सत्यप्रकाश मिश्र.प्रो.कमला प्रसाद आदि मार्गदर्शक की भूमिका में थे.कविता की कविताएँ तब से रुक-रुककर अखबार,पत्रिकाओँ में प्रकाशित होती रहीं.आकाशवाणी,दूरदर्शन केंन्द्रों से प्रसारित भी हुईं.चुपचाप.यह अच्छा भी रहा कि सिफ़ारिशी प्रशंसा कविता के हिस्से नहीं आईं.इधर कुछ सालों पहले किसी दिन अचानक तय कर लिया कि अब कुछ दिनों तक साहित्य सेवा बंद.पहले रोज़गार,परीक्षाओं के लिए पढ़ाई.सो नहीं लिखा.हिंदी में एम.फिल,नेट हैं.हाल ही में-नारी आत्म कथाओं में अभिव्यक्त आधुनिकता बोध और अस्मिता की खोज विषय पर शोध पूरा किया है.छह महीने पहले केंद्रीय विद्यालय बैकुंठपुर में हिंदी पढ़ाने के लिए नियुक्त हुई हैं.सो इस उम्मीद के साथ यह कविता कि लिखना फिर शुरू करेंगी.-ब्लागर

मैं जानती हूँ
पहाड़ों और खाइयों ने दोस्ती कर ली है
मिलकर पाट दिया है
उनके बीच अंतर पैदा करनेवाले
भू-भाग को
बना दिया है दुनिया को
फिसलपट्टी का खेल
जहाँ चढ़ने और फिसलने के सिवाय
नहीं बचता कोई तीसरा विकल्प
शेष नहीं रह जाता
बीच का कोई पड़ाव
दम भरने के लिए

फिर भी मुझे तलाश है
ज़मीन के उस समतल टुकड़े की
जहाँ खड़ा हो सके
औसत क्षमता और सीमित साधनवाला आदमी
अपनी पूरी संपन्नता के साथ.
-कविता जड़िया

शनिवार, 13 फ़रवरी 2010

क्रांति के सिपाही की जेब में प्रेम कविता


मेरे सब की धुरी हो तुम
मैं दूसरों की शिक़ायतें तुम्हीं से करना चाहता हूँ
दूसरों से मिले आशीर्वाद भी तुम्हें ही दे देना चाहता हूँ
तुम मुझे सबसे सुंदर इसलिए भी लगती हो
क्योंकि मेरे भीतर की सारी सुंदरता तुम्हारे लिए है
तुम्हें चूमने तुम्हारे गले लगने की मेरी ख्वाहिश
मेरी किसी ज़रूरत को उतना पूरा नहीं करती
जितना मुझे दानी बनाती है
मैं तुम्हें प्रेम करते हुए मरूँ की कल्पना यदि करता हूँ
तो इसके पीछे यह कामना नहीं है कि मैंने सोच रखा है
प्रेम में मृत्यु मनुष्य को अमर बनाती है
बल्कि इससे दुखांत किंतु बेहतर मैं सोच ही नहीं पाता
यदि मैं इस लायक भी हो जाऊँ
कि यह दुनिया मेरे इशारों पर नाचे
तो मैं चाहूँगा तुम्हारी इच्चाओं का ग़ुलाम होऊँ
प्रिये,
मैं भी चाहता हूँ तुम्हारी तरह आस्तिक होना
संत होने की सीमा तक धार्मिक होना
भगवान का कोई ऐसा रूप गढ़ लेना
जिसे मैं मनुष्यों के कल्याण के लिए आराध सकूँ
बिना खून बहाए
औरतों,आदिवासियों,मज़दूरों,किसानों को
उनके लूटे गए हक़ दिला सकूँ
मगर ऐसा संभव नहीं हो पाता
सब ओर से घिर जाने पर
अकेला छोड़ दिए जाने पर
मैं तुम्हारी सुंदर आँखों और प्यारे चेहरे को याद करता हूँ
और आत्मतोष पा लेता हूँ
मैंने पूजा कर ली
मेरी नमाज़ अदा हो गई
मेरे सुख-दुख,स्वर्ग-नर्क तुम्हीं हो
मैं सचमुच समझ नहीं पाता
कब तुम्हें सच्चा प्रेम करता हूँ
जब तुमसे दूर होता हूँ ज़माने भर से लड़ने के लिए
या जब तुम्हें बाहों में भर लेता हूँ.


गुरुवार, 11 फ़रवरी 2010

एक रंग ठहरा हुआ




युवा कवि आशीष त्रिपाठी का कविता संग्रह एक रंग ठहरा हुआ के पन्नों को उलटते हुए जिस पहली बात ने मेरा ध्यान आकर्षित किया वह है इन कविताओं की शांत बनावट जिसमें कहीं कोई हड़बड़ी या अतिरिक्त आवेश नहीं है.इस प्रकार का शिल्प साधना और उसमें अपनी सारी भावात्मक मनोदशा को व्यक्त कर पाना कला की दृष्टि से चुनौती भरा काम होता है पर मुझे खुशी हुई यह देखकर कि यह युवा कवि एक विलक्षण आत्मसजगता और खास तरह की प्रतिबद्ध मानसिकता के साथ अपने आस-पास की चीज़ों को देखता है और उन्हें कविता में दर्ज़ करता जाता है.

संग्रह का नाम एक रंग ठहरा हुआ ज़रूर है पर इन कविताओं में ठहराव नहीं एक गति की निरंतरता है.कवि की नदी शीर्षक कविता से लेकर कहें तो यह कथन स्वयं इस युवा कवि की कविता के स्वभाव पर भी एक टिप्पणी लगता है.

नदी के चुपचाप बहने में
चुप्पी पर नहीं
उसके बहने पर ग़ौर करना चाहिए


यह आकस्मिक नहीं है कि संग्रह की अनेक कविताओं में नदी बार-बार आती है और अलग-अलग संन्दर्भों में आती है.

संग्रह की एक अन्य कविता इन्कार में इस युवा कवि का एक अलग तेवर दिखाई पड़ता है जिसमें उसका कवि सुलभ साहस भी देखा जा सकता है-

यह धर्म है
या किसी धूर्त बूढ़े बेबस बाघ के हाथ
सोने का कंगन
यह धर्म है
तो मैं इसे मानने से इंकार करता हूँ
.

चार उपखंडों में विभाजित यह संग्रह कवि आशीष त्रिपाठी की सम्भावनाओं का आईना है और उनके अब तक अर्जित जीवनबोध का काव्यात्मक प्रमाण भी.

-केदारनाथ सिंह



दो कविताएँ
(इसी संग्रह से)

तुम

तुम
जैसे भीतर बसा गहरे कोई मौन कोई दुख
जैसे देहरी पर आकर ठहरा कोई सुख

जैसे
तीज का चाँद
पीठ पीछे

जैसे मेरे नाम का कोई हिस्सा
खोया हुआ

तुम
जैसे एक रंग ठहरा हुआ.



मैं

मैं
जैसे तुम्हारी ओर बढ़ते-बढ़ते ठिठका एक कदम
तुम्हें निहारते
पीछे आती आवाज़ को सुनता मुड़-मुड़

जैसे
ना बीतने का ठान चुकी एक दुपहरी
एक बोल गूँगे का

जैसे
अपने को निरर्थक में खो देने की एक ज़िद

जैसे
दीवारों की तरह के दरवाजों को खोलता एक मानुष.

-आशीष त्रिपाठी
रीडर,हिंदी विभाग
बी.एच.यू.वाराणसी,उ.प्र.
ashishhindibhu@gmail.com


मंगलवार, 9 फ़रवरी 2010

जिन बच्चों की ज़िंदगी से पिता घट जाए उनकी खातिर दुआ है फ़िल्म 'पा'

मैंने भी पा  देख ली. अच्छी फ़िल्म है. बड़ी सरल और सादी कहानी है फ़िल्म की. फ़िल्म में ऐसा कुछ नहीं जो देखते हुए सोचते जाने से अलग हो. आगे क्या होगा के सारे अनुमान सच होते जाते हैं. फ़िल्म के बारे में काफ़ी पढ़ने में आ गया था पहले ही;  हो सकता है फ़िल्म इसलिए भी सहज लगी हो.

लेकिन फ़िल्म मुझे जिन वजहों से पसंद आई उन्हें साहित्यिक ही कहना सही होगा. बड़ी-बड़ी बातें रखने की बजाय पहले ही स्वीकार कर लूँ कि मैं किसी देखी हुई फ़िल्म पर तभी बात कर सकता हूँ जब कहानी और गानों को केंद्र में रखूँ. फ़िल्म की तकनीकि समझ मुझे नहीं है. मसलन मेकअप, सेट, पार्श्व संगीत, सिनेमेटोग्राफ़ी आदि-आदि. मुझे यक़ीन है इन अपेक्षाओं के लिए बहुत से समीक्षकों को ही माफ़ किया जाता रहा है तो मुझ बातूनी दर्शक को भी माफ़ कर ही दिया जाएगा. मुझे पता भी है अपने यहाँ बौद्धिक जगत में जो आसानी से मिल जाए वह माफ़ी ही है.

खैर, जब मैंने फ़िल्म देखना शुरू किया तो जैसे ही अरू(यही बच्चा कहानी के केंद्र में है) को देखा तो मुझे झट से लगा कि यह बच्चा अब पूरी फ़िल्म में असाधारण व्यवहार करेगा. अपनी विलक्षणताओं से सबको चकित करेगा. मेरे ऐसा सोच लेने की वजह आप सोच सकते हैं कि मुझे थोड़ा जल्दी ही हमारे समय के महत्वपूर्ण अत्यंत लोकप्रिय कथाकार उदय प्रकाश की मशहूर कहानी 'मैंगोसिल' जिसे पढ़ लेने के बाद शायद ही कोई भूल पाए याद आ गई होगी.

लेकिन जैसे ही फ़िल्म आगे बढ़ी कहानी 'मैंगोसिल' एक कौंध सी तिरोहित हो गई. फ़िल्म का बच्चा जैसा कि उसे होना चाहिए लाचार, असमर्थ ही रहा आया अंत तक. अरु की ज़िद कि अपने लब्धप्रतिष्ठ सफल राजनेता पिता को नहीं बताना कि मैं आपका ही बेटा हूँ जिन विवशताओं से गुज़रती है वे बड़ी कारुणिक हैं. इस त्रासदी को जो सहने लायक बनाए वह मां द्वारा अपना ली गई युक्ति भी कि किसी की हिचकी नहीं बनना बड़ी मार्मिक है. एक बच्चा, वास्तव में बीमार बच्चा इसे जिस खुद्दारी से अपनाता है वह फ़िल्म की सबसे बड़ी सफलता मुझे लगी. पिता जो कदाचित आदर्श नेता है एक नि:शक्त बच्चे के इस प्रण को भांप तक नहीं पाता. यहीं फ़िल्म का गीत हिचकी हिचकी..... भीतर तक छू जाता है. कह सकते हैं कि इस बिंदु पर एक स्त्री अपनी ममता, स्वावलंबन के बल पर पुरुष को बराबरी से जवाब देती है, प्रतिरोध का उदाहरण बनती है.

यहीं मुझे फिर एक कहानी याद आती है. प्रसिद्ध कथाकार शिवमूर्ति की कई साल पहले लिखी गयी कहानी सिरी उपमा जोग. इस कहानी में भी एक लड़का है जो शहर दूसरी शादी कर लेने वाले पिता से मिलने आता है. उसके हाथ में एक चिट्ठी है मां की. माँ ने अपनी मुसीबतों के हवाले से चिट्ठी में जो लिखवाया है वह संक्षेप में यह है कि अब अपने इस बेटे की ज़िम्मेदारी सम्हाल लें, बेटी भी व्याह के काबिल हो गई है. यहाँ गाँव में मैं इस लायक नहीं रही अब. कमाल यह है कि यह चिट्ठी बेटा पिता को ही देता है सौंतेली माँ या उसके बच्चों के द्वारा बहुत पूछने पर भी मुह नहीं खोलता. इस कहानी में बेटे को देखकर चिट्ठी पढ़कर बाप केवल परेशान होता है, पिछले दिन याद करता है और बेटे को खाली हाथ ही लौट जाने देता है. बच्चे को कुछ नहीं मिलता. प्यार, अधिकार तो दूर अपने पिता का आत्मीय परिचय भी नहीं. इस तुलना में अरू का फ़िल्मी पिता काफ़ी भला मानुष है. फ़िल्म की कहानी को आदर्शवादी, सुखांत निर्वाह जो मिला है.

यहाँ तक जब बात आ ही गई है तो मैं साहस करके कहूँ फ़िल्म की कहानी दरअसल शिवमूर्ति की ही कहानी है. यहाँ यह क़तई न समझें कि मैं नकल या चोरी का सस्ता आरोप लगाने जा रहा हूँ. बस पा की कहानी में जो औरत है वह बदली हुई है. आज़ादी के इतने दिनों में औरते ही हैं जो कुछ कुछ बदली हैं. समाज और पुरुष वैसे ही हैं. मैं जब कह रहा हूँ कि पा  की कहानी शिवमूर्ति की ही कहानी है तो साथ में यह भी कह रहा हूँ कि सिरी उपमा जोग  भी शिवमूर्ति की ही कहानी नहीं भारतीय समाज की कहानी है.

हमारे यहाँ ऐसे कितने बच्चे हैं जिन्हें अपने बाप का पता नहीं? अब यदि किसी बच्चे की ज़िंदगी से पिता की पहचान तक घट जाए तो उसे कौन सी बीमारी हो जाएगी कोई नहीं बता सकता. मुझे पूरी फ़िल्म में यही लगता रहा कि अरू की अजीबो गरीब बीमारी फ़िल्म में कहानी को बढ़ाने का उपकरण है. इसके आधुनिक संदर्भ भी हैं इसलिए सब सटीक बैठते हैं. फ़िल्म वास्तव में उन बच्चों के लिए है जिनकी ज़िंदगी में पिता की पहचान नहीं. और माँ का कोई वजूद नहीं. कभी-कभार कुछ माँएं जो यह गुहार लगाती भी हैं कि अमुक रईस या नेता मेरे बेटे का पिता है तो उनपर लोग कैसे हँसते हैं; वे कैसे हारकर अपने अँधेरों में लौट जाती हैं सबको पता है.

सच मानिए मुझे यह फ़िल्म इसी रूप में भली लगी. चूँकि यह फ़िल्म समाज के काम की है इसलिए इसके नायक नेता का आदर्शवादी होना किसी तरह की सीमा का परिचायक नहीं है. अंतत: कुछ अच्छा करनेवालों को आदर्श का दामन पकड़ना ही पड़ता है. रही बात अमिताभ बच्चन और विद्या बालन की तो ये दोनों पूरे वही लगे जो रोल किया है. अभिनय के बारे में इससे ज़्यादा अभी मैं नहीं कह सकता. फ़िल्म देखने की पहली गुज़ारिश मैंने शिवमूर्ति जी से की थी. आपसे भी करता हूँ.

शशिभूषण

सोमवार, 8 फ़रवरी 2010

मित्रता

और एक युवक ने कहा:
हमसे मित्रता के विषय में कुछ कहो.
और उसने उत्तर दिया:
तुम्हारा मित्र तुम्हारे अभावों की पूर्ति है.

वह तुम्हारा खेत है,जिसमें तुम प्रेम का बीज बोते हो और कृतज्ञता के फल प्राप्त करते हो.

वह तुम्हारा भोजन-गृह है और वही तुम्हारा अलाव.

क्योंकि,तुम उसके पास अपनी भूख लेकर जाते हो और शांति पाने की इच्छा से उसे तलाश करते हो.

जब तुम्हारा मित्र तुम्हारे सामने अपना दिल खोलकर रखे तो तुम अपने मन के न को प्रकट करने में मत डरो और न हाँ कहने में झिझको.

और जब वह चुप होता है,तब भी तुम्हारा हृदय उसके दिल की आवाज़ सुनना बंद नहीं कर देता.

क्योंकि मित्रता में,शब्दों की सहायता के बिना ही सारे विचार,सारी कामनाएँ,और सारी आशाएँ अव्यक्त आनंद के साथ पैदा होती और उपभोग में आती हैं.

जब तुम अपने मित्र से विदा हो तो शोक मत करो.

क्योंकि,तुम उसमें जिस वस्तु को सबसे अधिक प्यार करते हो,वही उसकी अनुपस्थिति में अधिक स्पष्ट हो सकती है,जैसे एक पर्वतारोही को नीचे के मैंदान से पर्वत अधिक स्पष्ट और सुंदर दिखाई देता है.

आत्मीयता को गहरा बनाते रहने के सिवा तुम्हारी मित्रता में कोई और प्रयोजन नहीं होना चाहिए.

क्योंकि,जो प्रेम अपने ही रहस्य का घूँघट खोलने के अतिरिक्त कुछ और खोजता है,वह प्रेम नहीं,एक जाल है जिसमें निकम्म वस्तु के सिवा और कुछ नहीं फंसता.

तुम्हारी प्रिय से प्रिय वस्तु अपने मित्र के लिए हो.

जिसने तुम्हारे जीवन-समुद्र का भाटा देखा है उसे उसका ज्वार भी देखने दो.

क्योंकि मित्र क्या ऐसी वस्तु है जिसे तुम समय की हत्या करने के लिए खोजते हो?

सदैव समय को सजीव करने के लिए उसे खोजो.

क्योंकि उसका काम तुम्हारे अभाव की पूर्ति करना है,न कि तुम्हारे खालीपन को भरना.

और मैत्री के माधुर्य में हास्य का स्फुरण हो और उल्लास का विनिमय.

क्योंकि नन्हीं-नन्हीं चीज़ों के ओस-कणों में हृदय अपना प्रभात देखता है और ताज़ा हो उठता है.

-ख़लील जिब्रान
(जीवन संदेश से)

रविवार, 7 फ़रवरी 2010

इसे डायरी की तरह नहीं लिखा जा सका

सुबह जल्दी जाग गया था
दिन भर किसी से बहस नहीं हुई
पिता ने गालियाँ नहीं दी
सहानुभूति नहीं दिखाई किसी ने
न ही दोस्तों ने कोई काम कराया
अपने ही छोटे-मोटे काम निपटा पाया
मसलन
कपड़े धोना
दाढ़ी बनाना
साइकिल का टेढ़ा हैंडल सुधरवाना
दवाइयों की उधारी चुकाना
सिरदर्द कम रहा
आँखों की जलन थमी रही
थकान,कमज़ोरी का भान कम रहा
शाम को पढ़ाकर लौटते हुए स्कूल से
एक ढाबे पर बैठकर दो समोसे खाए
चाय पी
खाया पान
पढ़ लिया अख़बार
अपने रेडियो पर सुना बीबीसी
देखने में नहीं आया कोई विज्ञापन
जो इस संविदा अध्यापकी से बेहतर होता
कहीं से परीक्षा का प्रवेश पत्र भी नहीं आया
रुके रहे सारे रिजल्ट
करप्शन
डोनेशन
रिजर्वेशन के मुहाने पर
रात की रोटी
आलू की तरकारी के साथ निबट गयी
अम्मा देना नहीं भूली गरम पानी
सो सोने से पहले खा लिया त्रिफला चूर्ण
उसकी यादों की हूक उठी दिल में
मगर मिलने की तड़प पी गया
वह भी घोटती ही रही फ़ोन पर अपनी बेचैनी
नहीं सोचा भावी दाम्पत्य के बारे में
इसलिए डर भी नहीं लगा ज़माने से
छपने के खयाल ने नहीं मज़बूर किया
सो नहीं भरमाया प्रसिद्धि के सपनों ने
अपनी सीमाएँ मुखर रहीं
मगर हीनताबोध नहीं हुआ
कल के बारे में तय करते हुए
कि इस सब के साथ
बनानी हैं कुछ नहीं हुई गोष्ठियों की रपटें
जाँचनी हैं विश्विद्यालय की कॉपियाँ
आकाशवाणी में ड्यूटी पता करनी है
लिखनी है कथादेश
और काशीनाथ सिंह जी को चिट्ठी
चादर तानकर सोने जा रहा हूँ
कानों में भजन गूँज रहा है
तुम ढूँढो मुझे गोपाल मैं खोई गैया तेरी....

मंगलवार, 2 फ़रवरी 2010

अस्सी ने मुझे प्यार दिया,लिखने की छूट दी और माफ़ भी किया:काशीनाथ सिंह


कहा जाता है कि कथा (कहानी,उपन्यास,संस्मरण जिसमें इसके सरोकार होते हैं) लोकतांत्रिक विधा हैं.लेकिन कम ही कथाकार हैं जिनकी रचनाओं में पात्रों का जनतंत्र दिखाई देता है.वे कथाकार जिनकी पहचान जनवादी लेखक होने की है भी उनकी सभी रचनाओं में लोकतांत्रिक मूल्य खोज लेना ऐसे ही है जैसे अपनी धरती से लगाव होने के कारण हर पत्थर को क़ीमती कहना.पर काशीनाथ सिंह को सच्चा लोकतांत्रिक लेखक कहना उन्हें जड़ अकादमिक वादों में बाँधने से बेहतर होगा.काशीनाथ सिंह ऐसे उपन्यासकार-संस्मरण लेखक हैं जिनकी रचनाओं के पात्र बाक़ायदा उन्हें पढ़ते हैं.वे खाली पाठक ही नहीं,हस्तक्षेप करने,झगड़ पड़नेवाले,इस लेखक को प्यार करनेवाले साथ ही अपने अपने क्षेत्र के माहिर लोग भी हैं.सो काशीनाथ सिंह के सामने लाचार हुई तो वह समकालीन आलोचना होगी.काशीनाथ सिंह के बड़े फलकवाले लेखन पर कुछ सार्थक कहना हो तो एक बार अस्सी देखना पड़ेगा.अब तक तो यह होने भी लगा है.बनारस जानेवाले काशीनाथ सिंह जी के पाठक अस्सी खोजते हैं.

मैं पिछले दिनों जब बनारस में था सड़कों,बाज़ारों,घाटों में भटकते हुए कौन ठगवा नगरिया लूटल हो और पांड़े कौन कुमति तोहे लागी की अनुगूँज सुनता रहा.बनारस के बारे में जो सुना था वो सब एक तरफ़ यही कहानियाँ सच लगती रहीं.फिर एक जनवरी को काशीनाथ सिंह जी के जन्म दिन पर अस्सी में उन अधिकांश लोगों को देखने का मौका मिला जिन्हें मैं पात्रों के रूप में पढ़ता रहा था.मैं दंग रह गया.

काशीनाथ सिंह जी को मानने,जन्मदिन मनाने के लिए मना लेनेवाले जितने समर्थ हैं उसके उलट वे उतनी ही सादगी से जिसमें काफ़ी मस्ती भी शामिल होती है उनका जन्मदिन मनाते हैं.इस आयोजन मे इतनी ही औपचारिकता थी कि एक माईक था.इसके अलावा खड़े होने-बैठने की जगहें उनको थी जिन्हें मिल गई.अध्यक्ष प्रो.सत्यदेव त्रिपाठी हों या स्वयं काशीनाथ सिंह बैठने को जगह दे दी गयी थी.बैठने को सुविधाजनक नहीं बनाया गया था.हालत यह थी कि सड़क पर लोग थे भी वहीं से लौट भी जा रहे थे.मेरी स्थिति यों थी कि अध्यक्ष अगर जमकर बैठ जाते तो मैं पिस जाता दायीं ओर संचालक आशीष त्रिपाठी बैठने से बाहर हो जाते.पर एक वक्ता ने कह ही डाला कि गया सिंह जी ऐसे बैठे हुए हैं कि नये लोग उन्हें ही काशीनाथ सिंह समझ रहे हैं.वक्ता बोल भी ऐसे ही रहे थे जैसा वो अक्सर बोलते होंगे.बातें मज़ेदार भाषणबाज़ी का नामोनिशान नहीं.इस आयोजन में शामिल होना मुझे समृद्ध कर गया.मैं चाहता रहा कि कम से कम एक फ़ोटो खींच लूँ.पर एक बार बैठने को मिल गया तो फिर केवल बैठ और सुन ही पाया.मेरी बग़ल में देवेन्द्र जी थे उनकी बग़ल में चौथीराम यादव.मैं सोच रहा था चौथीराम जी का पता नहीं होना तो यहीं कहीं चाहिए पर मैंने जाना तब जब वे बोलने लगे.

खैर,कुछ बातें फिर होंगी अभी शुक्रिया चंद्रशेखर सिंह का जो मुझे इस कार्यक्रम तक ले गए.फोटो सहित विस्तृत रिपोर्ट भेजी.रिपोर्ट में मैंने कुछ संशोधन किए हैं उसके लिए क्षमा.फ़ोटो के बारे में सोच ही रहा हूँ काश और साफ़ होती.
-ब्लॉगर


यह मेरी ज़िंदगी का पहला ऐसा अनुभव है कि किसी रचना के पात्र सचमुच लेखक से इस तरह रू-ब-रू हों और यह भी कि लेखक के जन्मदिन पर आयोजित नितांत अनौपचारिक समारोह में उतनी ही बेलौस ढंग से बातचीत करें.जितनी की लेखक करता है.अपनी पीढ़ी के लगभग सभी लेखकों से ज़्यादा सक्रिय,आज भी अपनी रचनात्मक ऊर्जा को विभिन्न प्रयोगधर्मी शिल्पों में उतने ही प्रभावशाली ढंग और दमखम के साथ साहित्य जगत में दर्ज़ कराने वाले प्रसिद्ध कथाकार-उपन्यासकार प्रो.काशीनाथ सिंह का चैहत्तरवाँ जन्मदिन काशी के अस्सी घाट पर जयप्रकाश पोई की चाय की दुकान में मनाया गया.इस मौक़े पर उन्हीं की रचनाओं के जीवित पात्र, लेखक,रंगकर्मी,नेता,छात्र और उनके चाहने वाले बड़ी संख्या में उपस्थित थे.काशीनाथ सिंह हिन्दी के शायद ऐसे विरले लेखक हैं जिनको रचनाजगत के बाहर, आम लोगों का इतना प्यार और सम्मान मिला है. वर्ष के पहले दिन आयोजित इस कार्यक्रम की अध्यक्षता प्रो.सत्यदेव त्रिपाठी ने की.उपस्थित लोंगों में प्रमुख थे-प्रो.चौथीराम यादव,प्रो.बलराज पाण्डेय,कथाकार देवेन्द्र,डा.वाचस्पति,डा.बी.के.सिंह(लखनऊ),डा.मनोज ठक्कर(इंदौर),शशिभूषण(चेन्नई) आदि.

कार्यक्रम की शुरूआत शशिभूषण के वक्तव्य से हुई उन्होंने कहा काशीनाथ सिंह ऐसे लेखक हैं जिनके लिखे हुए को जीने की इच्छा होती है.सदी का सबसे बड़ा आदमी कहानी पढ़कर मैंने सीखा कि स्वयं को थूक से बचाना है.राही मासूम रज़ा के बाद काशीनाथ सिंह मेरे दूसरे प्रिय लेखक हैं.जिस तरह ताल्सताय को समझने के लिए गोर्की द्वारा लिखा ताल्सताय पर संस्मरण देखना जरूरी है उसी तरह नामवर सिंह को समझने के लिए काशीनाथ सिंह का संस्मरण घर का जोगी जोगड़ा पढ़ना ज़रूरी है.काशीनाथ सिंह से हिंदी कहानी की एक परंपरा शुरू होती है.

चन्द्रशेखर सिंह ने उनकी रचनाओं का उल्लेख करते हुए कहा कि काशीनाथ सिंह अपनी क़िस्सागोई, फक्कड़पन और भाषा की मौलिकता के लिए हमेशा याद किए जाएंगे.

शशि कुमार सिंह का कहना था कि काशीनाथ सिंह मूलतः कथाकार हैं और कहानीपन उनकी रचना का मूल है, चाहे वे किसी भी विधा में लिख रहे हों.

डॉ.वाचस्पति ने कहा कि काशीनाथ सिंह को किसी साँचे में फिट नहीं किया जा सकता है.वे साँचे खुद बनाते और खुद तोड़ते हैं.

लखनऊ से आए डॉ. बी.के. सिंह ने कहा कि आज यह देखने की ज़रूरत है कि रचनाओं में सत्य को देखने की ताक़त क्यों नहीं आ रही है?काशीनाथ सिंह अपनी रचनाओं में इस समस्या से मुठभेड़ करते हैं.उनकी रचनाओं ने लेखक और पाठक के बीच की दूरी को समाप्त किया है.

डॉ.गया सिंह ने कहा कि काशीनाथ सिंह हमेशा नएपन की तलाश में रहते हैं.खुद को बदलते है और अपनी रचनाशीलता से तरूण रचनाकारों को भी चैलेंज करते हैं.

इस मौक़े पर काशीनाथ सिंह के शिष्य रहे प्रो.बलराज पाण्डेय ने कहा कि मैंने गया सिंह और काशीनाथ जी के संबंधों को बहुत क़रीब से देखा है मुझे पता था कि ये नाराज़गी एक दिन दूर होगी इसलिए इनमें से किसी से भी मैंने दूसरे की आलोचना नहीं की.इस संबंध में एक बात और कि यह जन्मदिन मनाने की शुरुआत मैंने की थी जिसे गया सिंह ने उसी तरह हथिया लिया जैसे बक़ौल काशीनाथ सिंह शिवप्रसाद सिंह रूपी पौधे को त्रिभुवन सिंह ने अपने गमले में रोप लिया था.काशीनाथ सिंह से मैंने जीना सीखा.उनका व्यक्तित्व ऐसा है कि वे कभी आपसे यह नहीं कहेंगे कि आप ये करें या न करें पर उनके साथ रहते हुए सचमुच ऐसा है कि कोई भी लेखक हो जाएगा.प्रशंसा और आलोचना को समान रूप से ग्रहण करना काशीनाथ सिंह की ख़ासियत है.

‘क्षमा करो हे वत्स’, ‘नालंदा में गिद्ध’ तथा ‘शहर कोतवाल की कविता’ जैसी यादगार कहानियों के लेखक कथाकार देवेन्द्र ने कहा कि मैं काशीनाथ जी का शिष्य रहा हूँ,लेखन की तमीज़ मैंने काशीनाथ सिंह से सीखी.मैं काशीनाथ जी की अधिकांश रचनाओं का छपने से पहले का पाठक रहा हूँ.पर मैंने कभी अपनी असहमति के साथ समझौता नहीं किया.काशीनाथ जी ने सहमत होने का कभी दवाब भी नहीं डाला.इसका एक उदाहरण काफ़ी होगा कि काशीनाथ जी प्रलेस में हैं और मैं नहीं हूं.पर यहाँ आज मैं यह सब देखकर अभिभूत हूँ और उपन्यास रेहन पर रग्घू पर जो मैंने आलोचनात्मक लिखा है उसे वापस लेता हूँ.

काशीनाथ सिंह के पुराने साथी और सहयोगी रहे प्रो.चैथीराम यादव ने कहा कि काशीनाथ सिंह को अमर बनाने के लिए काशी का अस्सी ही पर्याप्त है.इस कृति में सभी विधाओं का मेल है.इसकी भाषा का अनुकरण असंभव है.काशीनाथ सिंह लोकरंगी कथाकार हैं।अपने पुराने दिनों को याद करते हुए प्रो. यादव ने कहा कि काशीनाथ सिंह को जितनी कहानी की समझ है उतनी ही गहरी कविता की भी समझ है.मैंने आधुनिक कवियों को उनसे पढ़कर पढ़ाना सीखा.धूमिल की कविता पर उनका लेख ‘विपक्ष का कवि: धूमिल’ आज भी धूमिल को समझने का सबसे महत्वपूर्ण माध्यम है.

इस अनौपचारिक गोष्ठी की अध्यक्षता कर रहे प्रो.सत्यदेव त्रिपाठी ने कहा कि काशीनाथ सिंह ने अस्सी को ग्लोबल बना दिया.संस्मरणों को काशीनाथ सिंह ने श्रेष्ठ पहचान दी.इनके संस्मरणों को पढ़ाना वाक़ई साहस का काम है.

इस अवसर पर रवीन्द्र कौशिक,सुबेदार सिंह, अशोक पाण्डेय, सरोज जी, मनोज ठक्कर आदि ने भी अपने विचार व्यक्त किये.

अंत में काशीनाथ सिंह ने नए वर्ष की शुभकामना के साथ सभी का आभार व्यक्त करते हुए कहा कि आप सब साथ रहें तो सौ साल जीने का मतलब है अकेले मुझे नरक में न ठेलें.आज अपनी इतनी प्रशंसा सुनकर लग रहा है कि जिस पर इतनी बातें हो रही हैं वह कोई दूसरा आदमी है.मित्रो,इस आयोजन के बारे में भी एक बात बता दूँ कि कई सालों तक मैं नहीं आया.मेरी अनुपस्थिति में ही यह मनता रहा.बाद में सोचा कि चलना ज़रूरी है वरना लोग मरा हुआ न समझ लें इसलिए अब आ जाता हूँ.आप लोगों से मुझे कुछ नया और सार्थक करने के लिए चैलेन्ज मिलता है.मैं भाग्यशाली हूँ कि अस्सी के लोगों ने मुझे इतना प्यार दिया, लिखने की छूट दी और माफ़ भी किया.यह अस्सी ही है जो मुझे लिखने की ताक़त देता है.अस्सी बनारस का ही नहीं भारत का ऐसा मोहल्ला है जहां आधुनिकता और परम्परा साथ-साथ चलते हैं.बलराज पाण्डेय द्वारा उटाये गये एक प्रसंग का उल्लेख करते हुए उन्होंने कहा-कोइ चीज़ जिंदगी से बड़ी नहीं होती.सो मैंने राम जी राय के लिए खड़े होने को नौकरी से ऊपर रखा.उनके पक्ष में कोर्ट में गवाही दी.

कार्यक्रम का संयोजन डॉ.गया सिंह ने और संचालन डॉ.आशीष त्रिपाठी ने किया.सभी उपस्थितों के प्रति धन्यवाद ज्ञापित किया डॉ.शैलेन्द्र कुमार सिंह ने.


चन्द्रशेखर सिंह
हिन्दी विभाग,बी.एच.यू.

सोमवार, 1 फ़रवरी 2010

सैयद काशिफ़ रज़ा की कविता

एक मामूली नामवाला आदमी

कुछ लोगों के नाम
याद रखने के लिए रखे जाते हैं
और बाक़ी के पुकारने के लिए
मोहम्मद अकरम के बाप ने
उसका नाम सिर्फ़ पुकारने के लिए रखा था

कुछ लोगों के नाम
वक़्त के साथ बड़े होने लगते हैं
बाकी के और छोटे
एक दिन अकरम को भी इक्कू बना दिया गया

उसकी माँ खुश होती तो
उसे मोहम्मद अकरम कहकर पुकारती
फिर वो लोग मादूम हो गए
जिन्हें उसका असली नाम याद था

उसका नाम किसी कतबे पर
दर्ज़ नहीं किया जाएगा
इक्कू ने एक दिन सोचा
उसकी क़ब्र पुख़्ता नहीं की जाएगी

आज वो ज़िंन्दा होता तो
उसे खुशी से मर जाना चाहिए था
अस्पताल के बाहर लगी हुई
फेहरिस्त में अपना नाम
मोहम्मद अकरम वल्द अल्लाह दत्ता देखकर.
-सैयद काशिफ़ रज़ा
(प्रगतिशील वसुधा 82 से साभार)