गुरुवार, 7 जनवरी 2010

दोस्ती

किताब सी तुम्हारी दोस्ती.

पढ़कर इम्तहान देना
न लिखकर ईनाम लेना
बस आदमी होते जाना
ज़मी-आसमां से भर जाना.

ज़िल्द बदलने की चिंता
न पन्ने उखड़ने का डर
बस बरतना प्यार से
संवरते जाना.

काली स्याही में
उजली भाषा सी
साथी किताब सी
तुम्हारी दोस्ती.

4 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत उम्दा संदेश...अच्छा लगा पढ़कर.

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  2. यह कविता तुमसे पहले भी सुनी है। सादी और सीधे दिल में समा जाने वाली कविता

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  3. बहुत अच्छी कविता है
    मैं कामना करता हूँ कि आगे भी ऎसे ही लिखते रहिए

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