शुक्रवार, 31 दिसंबर 2010

पाथेय:संघर्षरत साथियों के लिए

कविता जड़िया की यह रचना आप सबके लिए नये साल की हार्दिक शुभकामनाओं सहित-ब्लॉगर



साथी,
मैं जानती हूँ
तुममें कुव्वत है
तुम्हारा हुनर
मुक्तिबोध के मेहतर की तलाश की परिणति

सपने देखते हुए तुम
नहीं भूलते ज़मीं पर
बुलंदी से पाँव जमाना
दुआएँ माँगने के लिए
उठाते हुए फौलादी हाथ
उपेक्षित नहीं करते राह पड़े पत्थरों को
जानते हो उन्हें लाँघकर
बच निकलना
समकालीनों की तरह
जीवन की मूल आवश्यकताओं के त्रिकोण में
या सफलता के चालू उद्यमों में
नहीं बँधना चाहती तुम्हारी काया

मुझे मालूम है
शून्य से शुरू होकर
बनोगे तुम विशाल वृत्त
समेटोगे अपनी परिधि में दुनिया को
तुम्हारी आत्मा में समायी
महापुरुषों की सीखें
नहीं होने देंगी तुम्हें स्वपोषी या परजीवी
क़ीमतें तुम्हें नाप नहीं पाएँगी
सत्ताएँ तुम्हें क़ैद नहीं रख पाएँगी.

फिर भी मुझे डर है
तुम्हारे बदल जाने का नहीं
ज़माने के विमुख हो जाने का
कि रोक नहीं सकते तुम
स्वार्थी परिवर्तनों को

मिट्टी के क्षरण और अपरदन
पर्वतों के टूटकर चट्टान बनने
चट्टानों के बिखरकर कंकण होने को
रोक नहीं सका है संसार का महानतम शिल्पी भी

झुठलायी नहीं जा सकती
बहती धारा की शक्ति
छोटे पौधें हों या तने ठूँठ
हारना ही पड़ा है उन्हें
विपरीत धारा के प्रवाह से

इससे पहले कि चमकीले चाँद का खुरदुरापन
तुम्हें उदास कर दे
इससे पहले कि थककर तुम भी मानो
बचे रहने को ही इंसान का पहला तर्क
बाँधना चाहती हूँ मैं
तुम्हारी विजय यात्रा का पाथेय

साथी,
तुम भूलना मत
कूबड़ निकालकर कुरूप हुआ भोला ऊँट भी
जानता है भली-भाँति यह सच
कि ज़रूरी है-सँजो लेना
अपने भीतर जल रेतीले सफ़र में
मृगमरीचिका से बचने के लिए

मैं यही चाहूँगी
तुम थको,न रुको,न झुको,न टूटो कभी.

-कविता जड़िया

बुधवार, 29 दिसंबर 2010

कहानी का अपहरण संभव नहीं



हाईजैक की गई युवा कहानी इस शीर्षक से पाखी के पिछले अंक में एक बातचीत है.इस बातचीत में काशीनाथ सिंह,रोहिणी अग्रवाल,बलराज पांडेय,गोपेश्वर सिंह,राकेश बिहारी,प्रेम भारद्वाज और आशीष त्रिपाठी शामिल वार्ताकार हैं.नामवर सिंह की मौजूदगी में हुई इस पूरी बातचीत में न केवल उनकी राय अनुपस्थित है बल्कि कहानी की विवेचना की वह पद्धति भी ग़ायब है जिसे कहानी:नयी कहानी में उन्होंने विकसित करने का प्रयास किया था.

इस शिकायत के बारे में भी कहा जा सकता कि यहाँ नयी कहानी पर नहीं युवा कहानी पर बात हो रही है.हालांकि पूरी बातचीत में नयी कहानी की उपेक्षा नहीं की गई है.उसी को आधार मानकर निष्कर्ष निकाले गए हैं.यह युवा कहानी कैसी है इसके बारे में पूरी बातचीत का निष्कर्ष यह है कि इसे कुछ कहानीकारों ने हाईजैक कर लिया है.इसे सच मान लें तो एक नये क़िस्म की आधुनिक समस्या से परिचय होता है कि कहानी भी हाईजैक की जा सकती है.वह भी तब जब कहानीकार और संपादक के रूप में राजेन्द्र यादव,ज्ञानरंजन,संजीव,अखिलेश,स्वयं प्रकाश,प्रियंवद जैसे मील के पत्थर कहानी के विकास में अपनी अपनी भूमिका का निर्वाह बखूबी कर रहे हैं.यदि इस संकट को सच मान लिया जाए तो फिर कहानी को बचाने की अपील भी वैसी ही होगी जैसा विमान अपहरण के बाद यात्रियों को बचाने संबंधी अटल बिहारी वाजपेयी के सामने लगायी गई गुहार थी.

दुर्भाग्य से पूरी बातचीत उन्हीं पर केन्द्रित है जिन्हें युवा कहानी का हाईजैकर कथाकार कहा गया है.रोहिणी अग्रवाल ने कुछ कहानियों के हवाले से सन्दर्भ सहित नतीजे निकालने का प्रयास भी किया तो पूरी बातचीत में उसे बढ़ाने की कोशिश नहीं की गई.बल्कि इस तरह के चालू,महत्वाकांक्षी खयालों को प्रश्रय दिया गया कि हाईजैकर कथाकारों का इस्तेमाल इन्सट्रूमेंट की तरह कथा परिदृस्य से उदय प्रकाश,अखिलेश जैसे महत्वपूर्ण कथाकारों को हटाने के लिए किया गया और इन हाईजैकर कथाकारों ने अपना इस्तेमाल होने दिया.एक भिन्न विधा के हवाले से इस दूर की कौड़ी लगनेवाली वाचालता को समझने की कोशिश करें तो बकौल उदय प्रकाश प्रगतिशील वसुधा द्वारा ज़ारी पिछले तीस वर्षों की कवियों की सूची में उनका नाम नहीं है.तो सवाल है उन्हें मुख्यधारा से हटाने की कोशिश कहा हो रही है?ये हाईजैकर कथाकार तो संयोग से उदय प्रकाश को अपना आदर्श ही मानते हैं.

मैं मानता हूँ कि युवा कहानी जिसे मैं कथाकार के अतिरिक्त विद्यार्थी की तरह भी देखता हूँ के अच्छे कहानीकारों की सूची लंबी है.उन कहानीकारों और कहानियों से किसी भी तरह इन तथाकथित हाईजैकर कथाकारों को भी नहीं अलग किया जा सकता.लेकिन जिसे काशीनाथ सिंह कहानीकारों का ग्लोबल होता देशज समूह कहते हैं उनकी चर्चा किसी बड़े मंच पर,धारावाहिकता में कहानी का न कोई हरकारा करता है,न सुरक्षाकर्मी करता है और न ही कहानी का कोई सुरक्षा अधिकारी.सिर्फ़ संन्दर्भ बन चुके ऐसे कहानीकार केवल तब याद आते हैं जब कथित हाईजैकर कथाकारों को कोई संदेश देना हो.सच तो यह है कि कहानी का रक्षा मंत्रालय ही निर्दोष नहीं रहा.यदि इस पर यक़ीन कर लें कि युवा कहानी हाईजैक हो गई है तो इसमें उसकी भूमिका पर भी सवाल उठेंगे ही.

पूरे प्रसंग में मैं एक उदाहरण से बात रखना चाहता हूँ.पिछले दिनों वसुधा के संपादक और आलोचक कमला प्रसाद ने एक बात कही थी(शायद जनसत्ता में) जिसका आशय था कि रवींद्र कालिया के द्वारा एक ग़ैर प्रतिबद्ध,लगभग व्यावसायिक कथाकार पीढ़ी तैयार हुई है,जिसने सरोकारों की बजाय सफलता को मुख्य मान लिया है.उनके इस कथन के आलोक में मुझे वसुधा का समकालीन कहानी विशेषांक याद आया जिसे जयनंदन संपादित कर रहे थे.जब वह अंक छपकर आया तो उसमें वही सब कथाकार थे जो रवींद्र कालिया के संपादन में अमूमन होते हैं.चाहे वह वागर्थ हो या नया ज्ञानोदय.

कई बार विश्लेषण की शक्ल में महज समर्थक टिप्पणी भी बहुत कुछ सोचने पर विवश करती है.मसलन काशीनाथ सिंह के समर्थन में जिस साईकिल कहानी को यहाँ लगभग मनुष्य विरोधी ही मान लिया गया है उसी कहानी के बारे में यह भी जाँचने का अवकाश नहीं दिखता कि स्वयं काशीनाथ सिंह उस कहानी के बारे में क्या लिख चुके हैं.ये आलोचक कहानी आलोचना में भी सक्रिय नहीं हैं.तब इनकी स्थापना की वैधता क्या सिर्फ़ समर्थन की ही है?एक तरफ़ देवेंन्द्र की कहानी क्षमा करो हे वत्स को महत्वपूर्ण बताया जा रहा है.दूसरी तरफ़ चंदन पाण्डेय को हाईजैकर कहा जा रहा है इसी बीच मुझे याद आ रही है काशीनाथ सिंह की रेखाचित्र में धोखे की भूमिका कहानी की देवेन्द्र की कहानी क्षमा करो हे वत्स से ही तुलना.

मैं काशीनाथ सिंह पर बहुत भरोसा करता हूँ.वे मेरे प्रिय लेखक हैं.कोई अनुवाद निर्भर या पलटवार विवेचना उन्हें हिंदी में अवमूल्यित नहीं कर सकती.मैं जानता हूँ कि वे आधारहीन,ध्यानखींचू जुमलों पर यक़ीन भी नहीं करते.फिर भी चाहे इसे भी अनादर ही क्यों न समझ लिया जाए पर मैं कहना चाहता हूँ कि जैसे पूरी बातचीत में उनकी खीझ ही मुख्य है.उनके जैसे साहित्यकार का यह आरोप भी चंदन या कुणाल को ज़रूरत से ज्यादा बड़ा आँकना है.युवा कहानी में आज सबकी अपनी अपनी पसंद है और इस मिली जुली पसंद के चंदन और कुणाल भी कथाकार हैं.दोनों ने अच्छी कहानियाँ लिखी हैं.अपनी स्वतंत्र पहचान बनाई है.मैंने पढ़ने से पहले सोचा तक नहीं था कि पूरी बातचीत इन्हीं दोनों पर सिर्फ़ खारिज करने के लिए सिमट जाएगी.उस सोद्देश्य अपेक्षा पर भी हँसी आई जिसमें नामवर सिंह जी से आग्रह है कि वे चंदन पाण्डेय पर कुछ अवश्य कहें.

इस पूरी बातचीत में गीत चतुर्वेदी का कहीं नाम नहीं है.कैलास वनवासी,अरुण कुमार असफल का ज़िक्र नहीं है.रणेन्द्र,गौरीनाथ,भालचंन्द्र जोशी,मनीषा कुलश्रेष्ठ,राकेश मिश्र,दिनेश कर्नाटक,विपिन कुमार शर्मा का कोई स्मरण नहीं है.क्या ऐसा किसी उपेक्षा की भावना के तहत है?क्या वजह है कि विचारधारा की अपेक्षा के साथ कहानी पर बात शुरू होती है और सबसे ज्यादा उन्हीं पर केन्द्रित हो जाती है जिन्हें बाज़ारू कहकर खारिज करने की कोशिश की जाती है.महिला कथाकारों में भी क्या वजह है कि सुधा अरोड़ा, मधु कांकरिया और उर्मिला शिरीष तक बात आने ही नहीं पाती.

इतना ही नहीं मैं पूछना चाहता हूँ कि आपमें से कितने लोगों ने प्रभु जोशी की कहानी पितृ ऋण पढ़ी है.किसने कथाकार कैलास चन्द्र का नाम भी सुना है? जबकि कैलास चन्द्र सारिका की कहानी प्रतियोगिता में पुरस्कृत होने से लेकर आज तक निरंतर लिख रहे हैं और हंस,पहल आदि पत्रिकाओं में छपते भी रहे हैं.जब कहानी के हाईजैकरों की चर्चा हो रही हो तब यह बताना और ज़रूरी हो जाता है कि कौन कौन गुमनाम रहकर भी कहानी को बचाए हुए हैं.

मैं तो यह भी जानना ही चाहता हूँ कि कहानी की सारी प्रतिबद्ध मांगों के बीच कब कब हरिशंकर परसाई या राहुल सांकृत्यायन जैसा कहानीकार होने की ज़रूरत बताई गई ?ये कहानीकार थे और माफ़ कीजिए लोग इन्हें आप सबकी मौजूदगी में ही भूलते जा रहे हैं.

इस पूरी बातचीत से मेरी अपेक्षा सिर्फ़ इतनी थी कि सार्थक कहानियों की बात होगी.इसी बहाने अच्छी कहानियों को अपनी डायरी में नोट किया जा सकेगा.पर यह कुछ नहीं मिला.वर्तनी की ग़लतियाँ भी ऐसी की हर वह कहानी जिसका ज़िक्र है या तो शीर्षक ही ग़लत है या अधूरा.मेरी मांग है कि ऐसे खतरों की ओर लोगों का ध्यान न मोड़ा जाए जो अगर हों भी तो नुकसान पहुँचाने ज्यादा समय नहीं टिकते.सबक सिखाने की भावना साहित्य को नुकसान ही पहुँचाती है.

गुरुवार, 16 दिसंबर 2010

नीरा राडिया के बारे में यह दलीलें हो तो इनके जवाब क्या होगें?

नीरा राडिया अपराधी हैं.हम निडर तथा निष्पक्ष होकर नीरा राडिया को अपराधी मानें.उनके सारे कर्मों पर एक ठोस पक्ष बना लें जिसमें लैंगिक निरपेक्षता भी अवश्य हो.यह थोड़ा जल्दी हो क्योंकि नीचे दी गई दलीलें शुरू हो जाने में देर नहीं.यदि किसी को आभासी देर दिख भी रही है तो उनके लिए एक जानी पहचानी चेतावनी कि देर सबेर ऐसी दलीलें आएंगी.वह तबका जो बहस को खेल समझता है और हर तरह के न्याय की मांग को तर्कों में उलझा देता है चुप नहीं बैठेगा.फिर जो लोग नीरा राडिया को बचाना चहेंगे वे क़तई मामूली नहीं हैं.सवाल उनकी साख और प्रतिष्ठा का भी है.

वे दलीले ऐसी हो सकती हैं.पुरुषों ने अब तक इतने कारनामें किए.राजनीति ही दुर्गंध है उनके हाथों.सारे विश्वयुद्ध उन्होंने किए.नरसंहारों और भ्रष्टाचारों का इतिहास उनका है.राजनीति की विकराल गाथा पुरुष वर्चस्व की ही राम कहानी है.एक औरत नीरा राडिया ने यदि वह सब किया जो अब तक पुरुष ही करते आ रहे थे.पुरुषों की ही दुनिया में संभव था वह सब तो उसे सज़ा ज़रूर मिलेगी क्योंकि वह स्त्री है.उसे लेकर यदि न्याय के पुजारी इतने सक्रिय हैं,तीव्र जाँचे,त्वरित छापे हैं तो इसकी एक बड़ी वजह यह भी है कि वह स्त्री है.उसने स्त्री होकर इतना सब किया इसे पुरुष वरचस्ववादी न्यायप्रिय समाज बर्दाश्त ही नहीं कर पा रहा.

यदि मीडिया में भी किसी स्त्री की जगह सिर्फ़ पुरुष की ही संदिग्ध भूमिका होती पूरे मामले में तो भी इतना बवाल नहीं मचता.आखिर यही सुनाई दे रहा है न बरखा..बरखा और बरखा..वीरों को तो जैसे भूल ही गए सब.भ्रष्ट पुरुष की तुलना में भ्रष्ट स्त्री को सज़ा अधिक आसान है.मान लीजिए अमेरिका जैसे देशों की तरह जहाँ राजनीतिक लॉबीईंग वैध है यदि भारत में भी इसे क़ानूनी मान्यता होती तो क्या नीरा राडिया एक मिसाल नहीं होती?एक स्त्री का विदेश की नौकरी छोड़कर अपने वतन आना और इतनी कमाई खड़ी करना गर्व की बात नहीं होती?जिस भारतीय स्त्री के जीवन में देहरी के भीतर से केवल प्राण पखेरू ही उड़ जाने के उदाहरण हों उसका अपनी विमान सेवा का मालिक होना तो युगांतरकारी ही माना जाता.

यह भारत का पिछड़ापन नहीं तो और क्या है जहाँ राजनीति संबंधी कारपोरेट दलाली के संबंध में कोई नीति ही नहीं है.नीरा राडिया ने ऐसा क्या किया है जो आनेवाले समय में भी अपराध माना जाएगा?सोचिए जिस दिन भारत का लोकतांत्रिक पूँजीवाद समग्र विकास या समाजवाद जैसी अड़चनों को पार कर सिर्फ़ विकास के मुकाम पर पहुँचेगा उस दिन नीरा राडिया जैसी लॉबीईस्ट ही तो सरकारे बनाएँगी.कोई उजबक बताए कि आज किस मंत्री के बनाए जाने में लॉबीइंग नहीं है.जिस तरह से नेता चुने जाते हैं,खरीद फरोख्त से गठबंधन करते हैं फिर सवाल पूछने तक के लिए घूस लेते हैं तो वह क्या बिना दलाली के संभव है.पहली बार यदि किसी स्त्री ने कार्पोरेट और अपराध को मिलाजुलाकर सरकार गठन का कोई अचूक नुस्खा निकाला है तो देशभर को क्यों तक़लीफ़ हो रही है.अरे बुड़बको कुछ तो शर्म करो.नीरा राडिया स्त्री है.सदियों की ग़ुलाम आबादी.ग़ुलाम की आज़ादी के पहले चरण में नैतिकता देखना सोची समझी साज़िश है.स्त्री जाग रही है.नीरा राडिया आनेवाले भारतीय लोकतांत्रिक युग की आहट है.वह दिन दूर नहीं जब लॉबीईंग को क़ानूनी मान्यता मिल जाएगी.तब देखना नीरा के नाम से विश्वविद्यालय होंगे.पत्रकारिता विश्वविद्यालयों में बरखा दत्त की वैसी ही मूर्तियाँ लगाई जाएँगी जैसी दलित नेत्रियों की लगती हैं.एक दलित स्त्री की सफलता को जैसे नोटों की माला कलंकित नहीं कर सकती वैसे ही नीरा की बेशुमार कमाई एक ग़ुलाम आधी आबादी का प्रतिशोध है.

यह मेरा वहम भी हो सकता है कि ऐसी दलीलें दी जाएँगी.पर यदि ऐसा हुआ तो हमारे जवाब क्या होंगे?

बुधवार, 15 दिसंबर 2010

कठोर करुणा

पढ़ाने के अनुभव बड़े जीवंत होते हैं.कई बार बच्चों की बातें,जिज्ञासाएँ,तर्क गहरे सोचने पर मजबूर कर देते हैं.जो बातें बड़े बड़ों के मुख से ही सुनी जा सकती हैं.सुनी जाने के बाद भी प्रभावित नहीं कर पातीं लगभग वही बात जब कोई बच्चा अपनी ताजगी के साथ रखता है तो दिल-दिमाग़ जैसे एकबारगी आश्चर्य मिश्रित आनंद के साथ विनत हो जाते हैं.कहीं अंदर से एक मार्मिक स्वीकृति पैदा होती है.अपना तर्क-वितर्क में बेहद उलझा रहनेवाला सोच भी तुरंत मानने के लिए तैयार हो जाता है कि हाँ ऐसा क्यों नहीं हो सकता?मैंने अक्सर महसूस किया है कि बच्चे जब अपनी पूरी रौ में होते हैं तो सीखते नहीं बहुत सिखाते हैं.बच्चों से ही मैंने जाना कि महानता ज़रूर हँसमुख और शरारती होगी.कितना अच्छा हो यदि हम बच्चों के अनुयायी बनें.ऐसे बहुत से बचपन के दुर्लभ छड़ जिनसे मनुष्य का विवेक समृद्ध होता है,जिजीविषा बढ़ती है अध्यापक होने के नाते मेरी पूँजी हैं.धन्या एक ऐसी ही लड़की है.उसकी लगन की मेरे जानने में दूसरी मिसाल नहीं.हालांकि मैं पहले ही स्पष्ट कर दूँ कि उसमें मैंने कुछ विलक्षण नहीं देखा.वह इतनी साधारण है और नि:शक्त भी कि कोई उसे देखे तो जीवटता का कोई गूढ़ या संपन्न अर्थ खोजने की कभी ज़िंदगी में कोशिश ही न करे.

एस.धन्या उसका पूरा नाम है.वह इस साल दसवीं में पढ़ती है.उसकी मातृभाषा मलयालम है.दो साल पहले जब मैं तमिलनाडु के छोटे से क़स्बे तक्कोलम मे आया था तो वह आठवीं कक्षा में थी.स्टॉफ़ रूम में बैठे हुए या कक्षाओं के लिए निकलते समय गैलरी में उसे धीमी लगभग टटोलती चाल में आते जाते देखता था तो मन में सवाल कौंधता था कि इसका देखना कम है क्या?वह इतनी विनम्र और शांत रहती थी.इतना चुपचाप चलती थी कि उसकी इस कमी पर सोचना तक संभव नहीं था.जब संदेह होता तो कार्यक्रमों में उसकी सहभागिता देखकर यह शंका इतनी क्रूर लगती कि कभी पूछ ही नहीं पाया.पहली बार मुझे तब पता चला जब परीक्षा में उसके प्रश्नपत्र की एनलार्ज फोटोकॉपी होते देखी.पढ़ने के लिए वे इतने बड़े अक्षर थे कि मेरे मुह से निकल गया ओह!.. मेरा अंदेशा सही था... इतनी अक्षम है वह बच्ची!...

फिर अप्रैल में ही शुरू हुए अगले सत्र में वह नवमीं में मेरे क्लास में आई.मैंने देखा-उसके पास पढ़ने के लिए एक दूरबीन जैसी लेंस लगी पाईप होती.मैं जब हिस्से किताब से पढ़ता तो वह वही दूरबीन लगाकर देखती रहती.वह इतना झुककर लिखती-पढ़ती कि सामान्य आँखों को तब दिखना बंद हो जाए.पढ़ते या लिखते बिल्कुल थक गई है साफ़ दिखता.फिर भी उसके सारे काम चाहे वह क्लास वर्क,होमवर्क हो या असाइनमेंट,प्रोजेक्ट हों सब समय पर होते हैं.कभी सोच भी नहीं सकते कि वह सौंपे गए काम के लिए बहाना करेगी.नहीं हुआ तो एक ही उत्तर नहीं हो पाया सर.सॉरी!..अभी कर दूँगी.पर कोई झूठी कोशिश नहीं.वह पढ़ने में भी अच्छी है.अपनी धुन,समझदारी और मेहनत में वह इतनी परिपक्व है कि बच्चों जैसा कुछ कर ही नहीं पाती.उसे जो बनना है उसमें शायद उसे हर बात के लिए कई गुना समय और श्रम चाहिए.जैसे क्रूर नियति ने उसे बचपने के लिए अवकाश ही नहीं दिया.

यह भी मुझे बाद में पता चला कि पाँच विषय की दो-दो नोटबुक समय से कंप्लीट करना उसके वश का नहीं है.लिखने का काम वह खुद नहीं कर पाती है.घर में माँ या स्कूल में उसके साथ बैठनेवाली या कोई दूसरी लड़की उसके लिए यह करती है.हाँ परीक्षाओं में वही लिखती है.इसके लिए उसे थोड़ा ज्यादा समय चाहिए होता है जो विद्यालय से मिल जाता है.सुनने में यह आसान लगता है कि किसी दूसरे से लिखवा लो पर इसके लिए जिस सज्जनता की दरकार होती है वह मैंने धन्या में ही देखी.वह कितनी भली होगी कि जिसने भी लिखने की ज़िम्मेदारी ली उस लड़की के चेहरे में मैंने सचमुच का खेद देखा जब धन्या नोटबुक जमा करने में देरी कर गई.

वह अवसर मिलने पर अपने विचारों को इतनी ईमानदारी से रखती है कि पता चलता है कहने का सच्चा तरीक़ा कैसा होता है.एक बार वह लड़कियों के साथ होनेवाली ग़ैर बराबरी पर बोलते हुए भावुक हो गई थी.अपनी कमज़ोरियों से लड़कर रोज़ जीतना कैसा होता है मैंने उसी बच्ची में देखा.चेहरे में कोई शिक़ायत नहीं.पूरे व्यक्तित्व में कैसी भी उद्दंडता नहीं.प्रात:कालीन सभा में कॉपीयरिंग भी वह अच्छा करती है.लेकिन जिस बात के लिए मैं धन्या के बारे में तबसे ज्यादा शुभकामनाओं से भर गया हूँ वह अपनी ही ज्यादती का एक छोटा सा प्रसंग है.

उस दिन कक्षा में किसी बच्चे ने कुर्सी तोड़ दी थी.मैं जानना चाहता था कि वह कौन है पर कोई मुँह खोलने को तैयार नहीं था.सिर्फ़ इतना पता चल सका कि यह लंच ब्रेक में हुआ.उस वक़्त क्लास में सिर्फ़ तोड़नेवाला ही रहा होगा कुल मिलाकर बदमाश द्वारा मैनेज किया हुआ यही नतीज़ा निकल रहा था.तभी लड़कियों में से किसी ने बताया कि धन्या को मिलाकर हम तीन थीं कक्षा में पर हमने नहीं देखा.धन्या आगे बैठी थी सो मैंने उसी से पूछा-तुमने देखा किसने तोड़ी कुर्सी? वह कुछ बोलती कि साथ बैठी लड़की ने कहा कि सर,धन्या थोड़ी दूर का भी देख नहीं पाती.मैंने ज़ोर से पूछा क्या इतनी दूर का भी नहीं यानी जहाँ मैं था उस वक्त.वही लड़की बोली हाँ सर वह तो अभी आपको भी नहीं देख पा रही है.मेरे दूसरी तरफ़ घूमते ही धन्या ने उसे बताया था.मैंने पूछा धन्या क्या सचमुच?

वह खड़ी हो गई.उसकी आँख से आँसू बह चले थे.सर,मैं आपको नहीं देख पा रही मुझे आपकी जगह कोई सफ़ेद छाया दिख रही है बस...उस दिन मैंने सफ़ेद सर्ट पहन रखी थी.उसकी यह बात मुझे भीतर तक छू गई थी.पर जैसे क्रूरता आती है तो अपनी सीमा खुद तय करती है.मैने उससे कहा तुम किसी अच्छे अस्पताल में क्यों नहीं दिखाती अपनी आँख ? वह बोली सर,चेन्नई के शंकर नेत्रालय में दिखा चुकी हूँ.डॉक्टर ने कहा मेरी आँख के लिए कोई चश्मा नहीं बन सकता.मैं स्तब्ध रह गया था.यह क्या कह रही है...शंकर नेत्रालय से अच्छा अस्पताल तो भारत में दूसरा नहीं.इसका मतलब है मैं एक नि:शक्त बच्ची को अनजाने ही तक़लीफ़ दे रहा हूँ.जैसे मेरे हाथ पांव ढीले पड़ गए.बात कहाँ से कहाँ पहुँच गई.टूटी हुई कुर्सी से शुरू होकर.मैंने सोचा.वह तब तक रोने लगी थी.मैंने उसे चुप कराया और बोला दुखी मत हो.कोई न कोई रास्ता निकलेगा.तुम चिंता मत करो,हिम्मत रखो भगवान सब ठीक करता है.तुम इतनी ईमानदार और मेहनती हो कि तुम्हारी कोई तक़लीफ़ हमेशा नहीं रहेगी.मैं जाने क्या क्या बोल रहा था और मेरा गला भर रहा था.मैंने देखा दो और लड़कियों की आँखें गीली हो गई हैं.कक्षा में सन्नाटा है.

मैंने महसूस किया अनजाने ही मुझसे अन्याय हो गया.मैं जैसे माफ़ी मागने के लिए बोल रहा था.तुम सबों को सही ग़लत का शऊर नहीं और एक यह लड़की है जो इतनी अक्षमता में भी सच्ची,मेहनती और नेक है.

उस दिन मुझे पहली बार अपनी कक्षा में रुलाई आ गई थी.अपनी वह कठोरता और उसके बाद की करुणा मैं भूल नहीं पाता.मेरी दिली कामना है इस बच्ची की आँख ठीक हो जाए.उसके पढ़ने लिखने तक हमारे देश की विकराल बेरोज़गारी थोड़ी कम ही हो जाए और उसे एक बहुत अच्छी नौकरी मिले...

शनिवार, 20 नवंबर 2010

अच्छा लगता है.....

अच्छा लगता है
सबके होंठों पर एक मुस्कान लाना
सबके दिलों को छूकर वहाँ घर बनाना
सबको खुशी के बदले खुशी देना
अच्छा लगता है

अच्छा लगता है
फूलों को देखकर साथ-साथ झूमना
उन्हें हथेलियों से सहलाना
उन पर बैठती तितलियों को देखकर
उनकी सुंदरता में खो जाना
अच्छा लगता है

अच्छा लगता है
बड़ों की डाँट सुनना
सुनकर अपने को सुधारना
सुधारना कि कुछ ऐसा कर सकूँ
जो सबकी खुशी का कारण बन सके
अच्छा लगता है

अच्छा लगता है
लहरें देखकर उनमें खो जाना
खोकर उनकी गहराइयाँ अनुभव करना
लहरें जो हमें ज़िंदगी के बदलते रूप को
दिखाती हुई आती हैं और चली जाती हैं

अच्छा लगता है
गाना,जो मेरी हर साँस में बसता है
अच्छा लगता है.

-अनुश्री घोष

बुधवार, 17 नवंबर 2010

सुनाऊँगा कविता


बहादुर पटेल कवि हैं.देवास में रहते हैं.उनका पहला कविता संग्रह बूँदों के बीच प्यास अंतिका प्रकाशन से छपकर आया हैं.यह हमारे समय के महत्वपूर्ण कथाकार प्रकाशकांत को समर्पित है.वे युवा कवि हैं कि नहीं यह बड़े लोग जानें पर मेरी नज़र में वे अच्छी कविताएँ लिखते हैं.उनकी कविताएँ अनेक पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहीं हैं.जब तक साहित्य में ऐसी धारणाएँ क़ानून नहीं बन जातीं कि महानगरों में ही अच्छी कविताएँ लिखी जाती हैं.अपनी तरफ़ का युवा ही अच्छा कवि होता है तब तक तो आपको भी यह कहने में हर्ज़ नहीं होना चाहिए कि कविता वहां भी है जहाँ तक विशेषांको की अनुक्रमणिका नहीं जाती.साहित्यिक केंद्रों की सिटी बसें नहीं पहुँचतीं.जिन्हें उदारता लाभ नहीं मिलता.एक ज़माने में इलाहाबाद में अच्छा साहित्य लिखा जाता था.अब वहां किसी प्राचीन स्मारक से अमरकांत जी के अगल बगल लोग अफसर होते हैं.फिर बनारस का साहित्य बढ़िया माना गया.अब वहां काशीनाथ सिंह जी जैसे स्तंभ की छोड़ दें तो प्रचुरता में टीकाएँ,कुंजियाँ,लिखी जाती हैं.आजकल तो जो दिल्ली से नहीं लिखता वह भी कोई साहित्यकार है?किसी आयोजन के निमंत्रण भी भेजने हों तो डाक दिल्ली ही जाती है.हालांकि कुछ ज़िद्दी,कहीं भी बस जाने को विवश यहां वहां भी साहित्य होने की तस्दीक करते रहते हैं.पर यह फुटकल है.नक्शे में लखनऊ,भोपाल,जबलपुर के आगे देखना नहीं हो पाता.सवाल उठता है साहित्य का केंन्द्र शहरों को कौन बनाता है?किसके भीतर कहीं से भी कविता सुनाने की धुन कम नहीं होती.बहरहाल यहाँ दो कविताएँ बहादुर पटेल की.इसी संग्रह से.इस उम्मीद के साथ कि आपको भी अच्छी लगेंगी.

सुनाऊँगा कविता


शहर के आखिरी कोने से निकलूंगा
और लौट जाउंगा गाँव की ओर
बचाऊँगा वहां की सबसे सस्ती
और मटमैली चीज़ों को
मिट्टी की खामोशी से चुनूंगा कुछ शब्द

बीजों के फूटे हुए अंखुओं से
अपनी आँखों के लिए
लूंगा कुछ रोशनी

पत्थरों की ठोकर खाकर
चलना सीखूंगा
और उन्हें दूंगा धन्यवाद
उनके मस्तक पर
लगाउंगा खून का टीका

किसान जा रहे होंगे
आत्महत्या के रास्ते पर
तब उन्हें रोकूंगा
सुनाउंगा अपनी सबसे अंतिम
और ताज़ा कविता
वे लामबंद हो चल पड़ेंगे
अपने जीवन की सबसे दुरूह पगडंडी पर।


टापरी


वो देखो वहां कभी हुआ करती
ठीक कुंए के बगल में टापरी
तब दादा भी हुआ करते
बनाई भी उन्होंने ही थी
अपनी मेहनत के मोतियों से

इकट्ठा किया था उन्होंने
ईंट, गारा और चूना
जिससे खड़ी की थीं चारों ओर दीवारें
सुरक्षा का एक घेरा बनाया था
बिछा दी थी दीवारों पर
कुछ सीमेंट की चादरें
नीचे से बल्लियों के टेकों पर

बहिन कमली अक्सर लीप दिया करती
पीली मिट्टी और गोबर से
कैसा दिपदिपाता था अंदर
जैसे सोने सा

धूप के कुछ पहिंए
मंडराते थे वहां दिन में कुछ ढूंढ़ते से
और रात में चांदनी
अपने करतब दिखाती

अमावस की रात जब भारी पड़ती
तो गुलुप जलता
या फिर किरासिन की चिमनी
ही होती आँखों का सहारा

यह तब की बात है
जब कुंए में हुआ करता था
लबालब सागर सा पानी
दादा अक्सर किस्सा सुनाते
कि कैसे जब चड़स में बैलों को जोतकर
निकाला जाता पानी

कैसे सोते फूट पड़ते
कल-कल संगीत के साथ
बैलों की कांसट करती उनकी संगत
यह कैसी कहानी थी
जिसमें कविता का वास था
संगीत का वास था
फिर कैषा हलवाहा अपनी
तान छेड़ता तो नहा जाती हवाएं
बहा ले जातीं दूर तक मिठास

कैशा तब भी गाता था जब
पहली बार बिजली से पानी निकाला गया
फिर वह गाने को
किस्से में बदलने लगा
ऐसे किस्से सुनाता कि कुंए के
सोते धार-धार रोते से लगते

इसे हम दूस रे टापरी कहते
और यदि होते पास तो खोली
गांव से दूर खेत पर थी यह
ऐसी कई टापरियां थीं
कई-कई खेतों पर
सबका मिजाज़ होता अलग-अलग
सबकी अलग-अलग थी गंध
सबका अलग-अलग था संसार

इनका उपयोग ऐसा कि
जैसे खाली पेट को खाना
प्यासे को पानी
मदन, मंशाराम, दादा, दादी,
माँ, पिता और हम भाई बहन कर रहे होते
खेतों में काम
तो बार-बार हर छोटे-मोटे काम के लिए
गाँव के घर न जाने की सुविधा
थी यह टापरी

काम करते तो सुस्ताते इसी में
थकान को धोते इसी की छाया से
मौसम की मार में हमेशा तैयार
गर्मी देती ठंडक
बारिश में छिपा लेती हमें
ठंड में रजाई सी होती गरम
हर मर्ज़ की दवा
सौ तालों की एक चाबी

गाँव के घर की उपशाखा
जिसमें कुछ खास चीज़ों को छोड़कर
था सबकुछ
जैसे एक लकड़ी का संदूक
जिसमें फुटबॉल, पाईप पर लगाने के क्लिप,
स्टार्टर की पुरानी रीलें, बिरंजी, नट-बोल्ट,
कुछ पाने, पिंचिस, पेंचकस, टेस्टर,
बिजली के तार, फेस बांधने का वायर,
सुतलियां, नरेटी, सूत के दोड़ले
और साइकिल के पुराने ट्यूब इत्यादि
ये सारे ब्यौरे किसी न किसी काम से नस्ती थे

यह एक ऐसा कबाड़खाना था कि
इससे बाहर कोई काम नहीं था
या कि किसी काम के लिए इसके
अलावा कोई विकल्प की ज़रूरत नहीं

कोने में पड़ी रहती खटिया
जिस पर दिन में एक तरफ ओंटा
हुआ चिथड़ा बिस्तर
जो रात में काम आता
रखवाली के समय
ठंड के दिनों में
पाणत करते तो इसी में दुबक जाते

खटिया के नीचे था रहस्यमय संसार
खाली बोरे, खाद की थैलियों के बंडल,
कुछ पल्लियां
जब अनाज पैदा होता तो
इन्हीं में बरसता
सब्जियां मंडी जातीं तो इन्हीं में
इनके सहयोगी होते
कुछ टोकनियां, छबलिये
और बड़े डाले, गेंती, फावड़े, कुल्हाड़ी
दरांते, सांग, खुरपियां
कितना कुछ था इस टापरी के भीतर
खेती किसानी का पूरा टूलबॉक्स

यही नहीं इसके पिछवाड़े
बल्लियां, बांस, हल, बक्खर, डवरे,
जूड़ा पड़े रहते
छांव में पड़ी होती पुरानी साइकिल

हां यहीं तो था यह सबकुछ
कैसे स्मृति में रपाटे मारती हैं सारी चीज़ें
कहां गया यह सब

देखो भाई
यह खोड़ली सड़क
जब से यहां से निकली है
सबकुछ खा गई यह डाकिन
यह देखो अपने साथ
कैसा विकास का पहिया लेकर आयी
कुचल दिया सबकुछ

यह पेट्रोल पंप
वह चौपाल सागर
ये बड़ी-बड़ी मषीनों से भरी फैक्ट्रियां
बड़ा भयावह दृष्य है यह
बाज़ार और पूंजी के पंजों को देखो
अदृष्य हैं ये
इनके वार ने खोद दी है
ऐसी कई टापरियों की जड़ें
एक सागर में तब्दील होता जा रहा है
सारा मंजर
जिसमें डूबता जा रहा है सबकुछ



-बहादुर पटेल

रविवार, 14 नवंबर 2010

कृति हमेशा नयी होती है और कसौटियाँ पुरानी


यह लेखक और चित्रकार प्रभु जोशी द्वारा ज्ञान चतुर्वेदी के नया ज्ञानोदय में प्रकाशित व्यंग्य लेखों की ज्ञानपीठ से छप रही किताब का ब्लर्ब है.गाढ़ा और व्यंजक.आलोचनात्मक संकेतों तथा सूक्तियों से गुँथा ऐसा ब्लर्ब मैंने नहीं पढ़ा अब तक.ज्ञान जी का मैं नियमित पाठक हूँ.कह सकता हूँ कि प्रभु जोशी जी की कही हुई एक भी बात झूठ नहीं है.जिस त्रयी की बात उन्होंने कही है सचमुच उसकी सिद्धि ज्ञान जी में मौजूद है.कृति हमेशा नयी होती है और कसौटियाँ पुरानी तो अद्भुत बात है.जितना एकल उद्धृत हिस्सा है वह सब तो अलग अलग लेखों की मांग करता है.थोड़ा लिखा है बहुत समझना की टेक को कहना चाहता हूँ बहुत को थोड़े में सचमुच कह दिया गया है.मुझे नहीं पता कि समकालीन आलोचना के पास ज्ञान जी पर ऐसी सार्थक बात समझने का भी कोई अभ्यास है.यह मेरा आरोप नहीं सदिच्छा है.समकालीन आलोचना सचमुच विरोधाभासों के आभासी उजाले में आसक्तों के दाग धो रही है.मुझे इस बात की भी खुशी है कि यह ब्लर्ब हमेशा किताब के साथ-साथ रहेगा.-ब्लॉगर

इस उत्तर-औपनिवेशिक समय में, ‘बाज़ार के आशावाद‘ को बेचती पत्रकारिता के आग्रह पर, इन दिनों अख़बारों और पत्र-पत्रिकाओं के व्यंग्य-स्तम्भों में, जो कुछ भी ‘लिखा‘ जा रहा है, आलोचनात्मक-विवेक से देखने पर, उसका ‘अधिकांश‘ मात्र एक ‘अभ्यस्त मसख़री का सतही उत्पाद‘ भर जान पड़ता है। ऐसे में कमोबेश उसके लिए ‘कृति‘ का दर्ज़ा हासिल करना, तो सर्वथा असंभव ही होगा। यदि, उसे ‘आलोचना की आँख‘ की थोड़ी-बहुत उदारता से भी खँखालने का उपक्रम करें, तो, हम पायेंगे कि उसे सिर्फ़ अपने पाठकों के मनोरंजन की टहल में जुटी पत्रकारिता के ख़ाते में ही दर्ज़ किया जा सकता है, जिसमें कभी-कभी और कहीं-कहीं, ‘साहित्यिक-संस्कार की छायाओं का मिथ्याभास‘ होता रहता है। अधिक-से-अधिक हम, उसे ऐसा प्रीतिकर और ‘पठनीय-वाग्जाल‘ भर कह सकते हैं, जिसमें ‘भाषा का मनोरंजनमुखी‘ मंसूबा ही, उसका आखि़री प्रतिपाद्य है। बस.... इसे ही अपनी सबसे बड़ी अर्हता मानने की वजह से, वह सारा का सारा ‘लिखा जा रहा‘, सृजन का वरेण्य पुरुषार्थ प्राप्त नहीं कर पा रहा है।

जबकि, ज्ञान चतुर्वेदी ने कमोबेश, एक दशक से भी अधिक के, अपने स्तंभ-लेखन में समझ, सामर्थ्य और शिल्प की ऐसी ‘त्रयी‘ गढ़ ली है, जिसके चलते उसने व्यंग्य-लेखन की एक अत्यन्त परिष्कृत-प्रविधि को अपना आश्रय बना लिया है। यही वह रचनात्मक युक्ति है, जिसके कारण रचना अपने आभ्यन्तर में, एक वृहद् ‘गल्प-संभावना‘ के विस्तृत मानचित्र को गढ़ने में उत्तीर्ण हो जाती है। प्रकारान्तर से कहूँ कि ज्ञान, ‘अधिकतम लोगों से अधिकतम तादात्म्य‘ बनाने में ही अपने सृजन की अन्तर्व्याप्ति देखता हैं। कदाचित्, इसी को वह अपनी पहली और अंतिम प्राथमिकता भी मानता हैं, जिसके कारण वह ‘भाषा से भाषा‘ में पैदा होने वाले अनुभवों का मायावी स्थापत्य नहीं गढ़ता, बल्कि, इरादतन किफ़ायत के साथ, यथार्थ के पार्श्व में खड़े ‘विसंगत यथार्थ का व्यंग्यात्मकता के माध्यम‘ से विखण्डन करता हैं।

कहने की ज़रूरत नहीं कि ज्ञान का लिखा हुआ आलोचना के आपात-कक्ष की प्राणवायु पर साँस लेता लेखन नहीं है, अलबत्ता इसके ठीक उलट कहा जाए कि वह जिन्दगी के हाट में भीड़ के बीच कंधे रगड़ कर, उम्मीद के लिए जगह बनाता, जन-जन को सम्बोधित सृजन है, तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। उसमें एक ऐसी सम्वाद-क्षम ऊर्जा है, जो उसे अभिव्यक्ति की लड़ाई में पराजय से दूर रखती है। मुझे ज्ञान के व्यवसाय की चिकित्सीय-भाषा के रूपक का सहारा लेते हुए कहने दीजिए कि ज्ञान का इधर का सारा लेखन, जनतांत्रिकता की ड्रिप लगाकर लेटी रूग्ण-व्यवस्था के वक्ष में पलते नासूर की पहचान के लिए लगातार की जा रही मेमोग्राफी है।

ज़ाहिर है कि ज्ञान अपने लेखन में, राजनीतिक शब्दावलियों की कसौटियों से तय की गई प्रतिबद्धता से कतई लदा-फँदा नहीं है, अलबत्ता बहुत मानवीय समग्रता के साथ, पूरी कायनात को कुनबा मानकर चलते हुए, स्वप्न और दुःस्वप्न से भरी बेनींद रात में, अचानक उठ कर बैठ गये आदमी द्वारा, जख़्मी आँख से उस अँधेरे के पार देखने की ज़िद और जिहाद में मुब्तिला है, जहाँ मामूली जीवन जीते आदमी की उम्मीदें अकेली, आहत और लहू-लुहान है।

इसकी पुख़्ता तसदीक उसकी औपन्यासिक कृतियों से की जा सकती है। उसने अपनी अप्रतिम मेधा से ‘सर्वोत्कृष्ट और विपुलता’ के बीच वैमनस्य की धारणा को धराशायी किया है। ज्ञान के यहाँ ये एक-दूसरे में समाहित है। लगभग अन्तर्ग्रथित।

ज्ञान अपनी भाषा को सुविचारित तरीके से न तो मेटानिमिक बनाता है और ना ही कवियों की तरह मेटाफोरिक, बल्कि, इस सबसे अलग दुर्बोधता बनाम् कलात्मक महानता के विरूद्ध लगभग सभी तरह से विषयों को छूती हुई, उसकी एक किस्म की ऐसी भारहीन भाषा है, जो तितली की तरह उड़ती हुई फूल नहीं, उसकी खूबसूरती पर जाकर बैठती है और बाद बैठने के वह खु़द उसका हिस्सा लगने लगती है। यही वह मुश्किल है, कि उसकी भाषा को, उसके पात्र से बाहर निकालना यानी नसों और नब्जों सहित उसकी जीभ उखाड़ लेना है। यहाँ इस बिन्दु पर ख़ासतौर पर एकाग्र किया जाना चाहिए, कि, ज्ञान की तुलना न तो शरद जोशी से की जा सकती है और न ही हरिशंकर परसाई से। वह तो जीवन के निरबंक घसड़-फसड़ से रस-रस करती बस एक कलात्मक अन्तर्दृष्टि से प्राप्त की गई अभिव्यक्ति का अनुपम उदाहरण है।

मुझे ज्ञान को देखकर हमेशा लगता रहा है, जैसे वह ‘अपने ही आकाश के एकान्त‘ में अकेले और चुपचाप टिमटिमाते उस तारे की तरह है, जो आलोचना की आँख में, एक किरकिरी की तरह ‘अपनी‘ और ‘अपने होने’ की बार-बार याद दिलाता रहता है। उसके कान उधर हैं ही नहीं, जहाँ आलोचना अपने आसक्तों की अभ्यर्थनाओं में लगी हुई है और उनकी ऊँचे स्वर में गाये जाने वाले प्रशस्तिगानों के लिए कोई नया छंद गढ़ रही है। बहरहाल, इसे बस वक्त की विडम्बना ही कहें कि आलोचना की हमेशा से यह दिक्कत रही है कि वह अपने समय के सर्वोत्कृष्ट को समझने में हमेशा गफ़लत करती रही है।

अन्त में यही कि शायद, इतने वर्षों से लिखते हुए, ज्ञान ने यह जान लिया है कि कृति हमेशा नयी होती है और कसौटियाँ पुरानी। वे सूखे छिलके की तरह उतरती रहती हैं। इसीलिए, रचना में समग्रता को आत्मनिष्ठता के साथ नाथ कर, कल्पना के ज़रिये रचना-सत्य को खोजने के साथ ही उसे सामान्यजन के सोच के सम्भव मुहावरे में व्यक्त करने की अपनी एक प्रामाणिक-प्रविधि विकसित कर ली है और उसे इस पर पूरा भरोसा भी है। वह आलोचना के कृपासाध्यों की सूची से बाहर है और कृपांकों के सहारे उत्तीर्ण नहीं है, बल्कि लेखन की प्रवीणता उसकी अपनी आत्मसाध्य है।

वह साहित्य के इतिहास के फटे-पुराने मस्टर में अपना नाम दर्ज़ कराने के लिए होती आ रही धक्का-मुक्की से नितान्त दूर, वह वक्त की कोरी दीवार पर, जनता की जानकारी में बहुत परिश्रमसाध्य युक्ति के ज़रिये, व्यंग्य की कलम से, बहुत साफ और सुपाठ्य हर्फों में समकालीन-यथार्थ की एक मुकम्मल इबारत लिख रहा है। यह आकस्मिक नहीं कि उसके ‘रचे हुए‘ में व्याप्त लेखकीय ईमानदारी के चलते उसका लिखा हुआ, चाहे वह पत्र-पत्रिकाओं के साप्ताहिक स्तम्भों में हो या एक ‘औपन्यासिक आभ्यन्तर‘ में हो, निश्चय ही वह हिन्दी साहित्य के पाठकों की स्मृति का अविभाज्य हिस्सा बन कर हमेशा साँस लेता रहेगा और कदाचित् यही उसके लेखन की उत्तरजीविता का सर्वाधिक सशक्त और सार्वकालिक आधार भी होगा।

-प्रभु जोशी
4, संवाद नगर, इन्दौर

गुरुवार, 11 नवंबर 2010

विनीत तिवारी की कविता:हमें पता है

विनीत तिवारी सामाजिक कार्यकर्ता,संस्कृतिकर्मी,कवि,अनुवादक और प्रतिबद्ध बुद्धिजीवी हैं.अच्छे वक्ता,स्पष्ट विश्लेषक हैं.मार्क्सवादी दृष्टि के साथ खुशमिजाज़ और दोस्ताना स्वभाव रखते हैं.मैं उन्हें अच्छा वाचिक कथाकार भी मानता हूँ.अपने समय के किसी अच्छे तर्क या व्यक्तितव को यदि वे उद्धृत करने जा रहे हों तो बिल्कुल कथाकार जैसे निर्वाह में आ जाते हैं.रोचक शैली में विदग्धता के साथ किसी मामूली घटना को भी दृष्टांत बना देना उनकी बड़ी खासियत है.उन्हें देखकर मैंने जाना कि दिन रात का कोई भी पहर किसी विशेष काम के लिए नियत नहीं होता.काम करते हुए ये सिर्फ़ बीतते रहने के लिए होते हैं.मसलन शाम को जुलूस-धरने में जाना.आधी रात तक किसी सभा का संयोजन करना.किसी साथी को अस्पताल देखने जाना या रेलवे स्टेशन छोड़ना.रात में ही कोई पर्चा या कार्ड बनाना.फिर याद से कोई छूटा हुआ लेख या वक्तव्य पूरा करना यह सब करते हुए यदि सुबह सामान्य ही रहने की संभावना है तो तीन चार घंटे सो लेना उनका सामान्य रूटीन है.इसमें नहीं सोना और आठ दस घंटे की लगातार ड्राइविंग भी किसी क्षण जुड़ सकते हैं.मैंने उन्हें कविता लिखते,सुनाने की उत्सुकता और अपनी प्रशंसा की आकांक्षा में कभी नहीं देखा.सिर्फ़ निंदा के लिए किसी को याद करते हुए नहीं सुना.किसी तर्क में आकंठ डूबकर वाह वाह में चले जाने की श्रद्धा में नहीं देखा.विनीत तिवारी का संतुलन और तर्कक्षमता को इस अर्थ में देखा मैंने कि हर हाल में उनका एक पक्ष होगा.खुश करने के लिए सहमत या असहमत होनेवाले सहमति का सौजन्य और असहमति की विनम्रता विनीत तिवारी से सीख सकते हैं.उनके बारे में यह भी ज़रूर याद आ जाता है कि वे कम लिखते हैं ज्यादा करते हैं.

विनीत तिवारी की यह कविता मैंने कथाकार और अब बया के संपादक गौरीनाथ द्वारा संपादित हंस के विशेषांक में पढ़ी थी.तब से यह मुझे याद आती रहती है.विनीत तिवारी की एक और कविता है जिसे भुलाया नहीं जा सकता-जब हम चिड़िया की बात करते हैं.हमें पता है तथा जब हम चिड़िया की बात करते हैं ये दोनों कविताएँ यदि एक साथ पढ़ी जाएँ तो कवि के आयाम और ईमानदार कवि किसके लिए और कैसे कहता है बेहतर ढंग से समझे जा सकते है.मेरी नज़र में इस कविता की सबसे बड़ी खासियत यह है कि यह कवित्व और आलोचना दोनों की आत्मा अपने भीतर सम्हाले हुए है.यह कविता और आलोचना दोनो है.आप पूरी कविता पढ़ जाइए थोड़ी देर गुनिए फिर दोहराइए हमें पता है,देखिए हमको न बताइए.तब आप बिना हँसे नहीं रह सकेंगे.यह हँसी इस बात के लिए होगी कि कविता में जीवन के लिए क्या क्या किया गया.जीवन बचाए रखने वाले,समाज बदलने के दावे करनेवाले कवियों की एक बड़ी जमात झेंपती नज़र आएगी.मैं इसे अपनी समझ के अनुसार एक व्यंग्य कविता मानता हूँ.जो समाज जितना ही रचनाकार समाज के लिए है.
आपकी राय का मुझे इंतज़ार रहेगा.



हमें पता है

देखिए ,हमको न बताइए
कि एक हरी पत्ती बच गई
तो जीवन बचा है अब भी
जीवन के सबूत के लिए कई चीखें,
आँसू,सिसकियाँ,घाव,खून,गालियाँ वगैरह
काफ़ी चीज़ें हैं हमारे इर्द-गिर्द

जीवन का ही सबूत है
तानाशाह के होठों पर उभरी यह मुस्कान
जो सुबह बगीचे में खिलखिलाते फूलों और
सुंदर हरियाली दूब को देख आई है
अगर कविता से प्रेम अतिरिक्त सबूत है जीवन का
तो काफ़ी है सौम्यता में लिपटा
फूलों,पत्तियों,चित्रों,नृत्यों और कविताओं से
खासकर आपकी हरी पत्तीवाली कविता से
तानाशाह का प्रेम

हमें सुनाना बंद कीजिए आप
तितलियों,फूलों,रस,पराग
और जीवन की सुंदरता के लिए इनके मायने
कलियों को खिलता देख जो सम्मोहित हैं भद्रजन
पिछली क्यारी का पानी अभी तक लाल है
उनके हाथ धोने के बाद से
नाक पर रूमाल रखकर बतियाने वाले
इन लोगों की शक्लें हू-ब-हू वही हैं
जो कल रात ईराक में देखे गए थे
और उसके बाद सिर्फ़ मलबा और बारूद की गंध थी
परसों तो वे दिन में ही अफगानिस्तान में थे
जहाँ उन्होंने पिस्ता खाते हुए बयान दिया
कि हमें गुलमोहर,पलाश और बोगनबेलिया के साथ
लोकतंत्र भी बहुत पसंद है
हरी पत्तियो और खुशरंग फूलों के बीच
तरोताज़ा सांस लेकर
अपने भीतर भरकर कुछ बेहतरीन सिंफनियाँ
निकलना है उन्हें फिलिस्तीन,नेपाल
सीरिया,कोरिया,ईरान और,कई और ठिकानों पर

ऐसे में आप हमे बता रहे हैं कि
कविता ही बचाएगी दुनिया को
या बची रहेगी कविता तो बचा रहेगा जीवन
या प्रेम,या वग़ैरह-वग़ैरह
तो मुझे शक होता है
कि या तो आपकी मति मारी गई है
जिसे आप चाहें तो कोशिश करके दुरुस्त कर सकते हैं
या फिर आप उनकी तरफ़ के जासूस हैं
और एक दिन इन सब फूल,पत्तियों,तितलियों इत्यादि के बीच
आप न भी चाहें तो भी
पहचान लिए जाएँगे.

शुक्रवार, 5 नवंबर 2010

अँधियारे की बाढ़ में, चली दीप की नाव

धनतेरस के दिन बाज़ार नहीं जा पाया था.समय नहीं मिला.कुछ खरीदना भी नहीं था.सब्जियाँ बिना बनाए ही मुरझा रहीं थीं.बर्तन पहले से इतने हैं कि सबमें कैसे कैसे बनाया जाता है मुझे नहीं आता.यह अच्छा भी है.क्योंकि मुझे पक्का विश्वास है अगर अच्छा खाने अच्छा पहनने की लत लग जाए और सहारा अपना ही हो तो हो गई ज़िंदगी.

खैर,सुबह से लेकर दोपहर तक स्कूल के वार्षिक दिवस समारोह में रहे.कार्यक्रम अच्छा गया था.अपने को मिली ज़िम्मेदारी अच्छे से निभ गई थी.बच्चों ने अपनी मेहनत से खुश किया.इन्हीं सब की मिली जुली निश्चिंतता थी.सो मस्ती में आए और सो रहे.शाम को तरंग उठी तीन चार घंटे की कड़ी मेहनत की और एक सीधी सादी कविता लिख ली.फिर क्या था धनतेरस के बधाई संदेश आते रहे और हम बताते रहे कि हमने कविता लिखी है.दो तीन हिम्मतवालों को सुना भी डाली फोन पर ही.ले देकर पता चल गया कि ठीक-ठाक है.

आज दीवाली में भी घर से नहीं निकला हूँ.खाना बनाना पड़े इसलिए सुबह ही इडली खा ली.दो पैकेट बिस्कुट निपटा दिए.अमरूद खा चुका.राजपाल यादव की फिल्म कुश्ती देख डाली.नहाने के बाद झा़ड़ू लगाकर कचरा फेंकते हुए(दो दिन के जूठे बर्तन बाद में धोऊँगा) लौट ही रहा था सोचते कि अब क्या बचा है खाने को कि नीचे संगीत शिक्षक झा जी मिल गए.बोले शाम को खाना मत बनाइए.हमारे साथ खाइएगा.

मैं खुश हो गया.चैन से अपने लैपटाप के संग हो लिया.वरना इससे पहले तो जाने क्या क्या सोच रहा था.बड़ा आलसी हूँ.गोया टीवी देखना भी समाजवाद लाने की दिशा में एक कदम हो.मैं बुदबुदा रहा था मेरे सामने मेरे ही आलस्य और इच्छाओं का पहाड़ है.चढ़ चढ़कर लुढ़कता रहता हूँ.उस पार जलता दीया है.पहुँचे बिना ही उस तक सोचता रहता हूँ.उठा उठाकर लोगों की देहरी में रख दूँगा.

यह सब सोचते हुए ही फेसबुक की नाव पर सवार हो गया.समय की धार इससे बेहतर नहीं कटती किसी से.लगता ही नहीं कि समय काटा जा रहा है.वहीं आज दिखे ओम द्विवेदी.उनके कुछ दोहे.उन्हें पढ़ने के बाद बाक़ी पढ़ने दी गई लिंक पर आया.सारे के सारे पढ़ डाले.सच मानिए तबियत खुश हो गई.भीतर से आवाज़ आई अपनी दीवाली तो हो गई.इतना अच्छा लगा कि कुछ पूछिए मत.मन भर आया लगा कि ओम भाई को फ़ोन लगाऊँ.पर सोचा कुछ और करते हैं.संदीप को सुनाने की सोची तो खयाल आया बंदे ने क्या बिना पढ़े छोड़ा होगा अब तक.फिर लगा एसएमएस में दो दोहे लिखूँ और सब को दीवाली की शुभकामना बनाकर भेज दूँ.कुछ संतों,विद्वानों को भी जो प्यार कर करके उनसे दुश्मनी करते हैं.उन्हें छोटा-मोटा पत्रकार समझते हैं.खयाल आया यह बदमाशी समझ ली जाएगी.

कविता को फोन लगाया.वह सोने जा रही थी.मैने कहा अभी मत सोओ.वह बोली क्यों?मैंने कहा पहले दोहे सुनो.उसने कहा सुनाओ मैंने सुनाए.उसे बहुत पसंद आए.बोली ये तुम्हारे तो हैं नहीं.मैंने कहा ओम द्विवेदी के हैं.उसने कहा बहुत अच्छा लिखते हैं.कई बार बड़े कवियों की छुट्टी कर देते हैं.मैने कहा सही है.अब तुम सो जाओ मैं कुछ लिखना चाहता हूँ.वह कहती रह गई यह अच्छा है जगा जगाकर कविता सुनाओ. जब चाहे बोल दो अब सो जाओ.मैंने हँसते हुए फोन काट दिया और लिखने बैठ गया हूँ.लिखता रहूँगा जब तक कोई मनहूस फोन या दरवाजा नहीं खटखटा देगा.या मेरा ही आलसी मन नहीं उचट जाएगा.तो अब सीधे ओम द्विवेदी पर आते हैं.

ओम द्विवेदी कवि हैं,व्यंग्यकार हैं और पत्रकार हैं.सचमुच ओम द्विवेदी को कोई बहुत बुरी लगनेवाली बात कहनी हो तो बाक़ायदा भी लगाकर कह दीजिए कि ओम द्विवेदी रंगकर्मी भी हैं.अच्छे अभिनेता.निश्छल व्यक्ति.अभासी सौजन्य से भरे मित्रों में वास्तविक दोस्त.जो नाराज है तो प्यार से हर्गिज नहीं बोलेगा और खुश है तो दिल उड़ेल देगा.लड़ेगा तो हानि-लाभ सोचकर नाम नहीं छुपाएगा.आपके साथ खड़ा होगा तो धिक्कारने की भी हिम्मत रखेगा.छला जाएगा तो गली गली,रचनाओं में रोएगा नहीं.सबकुछ होते हुए जैसे जानबूझकर अपना क़द छोटा रखेगा.क्योंकि शायद उसे डर है अधिक महत्वाकांक्षा से गुलामी आती है.कृपा के वैभव में जीने से बेहतर है थोड़ी तंगी में जीना.मस्त और बेपरवाह.

एक बार मैने ओम भाई के घर से लौटते हुए कथाकार सत्यनारायण पटेल से पूछा था कि इस आदमी को आपने गौर से देखा.इतनी बात की कैसा है?सत्यनारायण पटेल जो हमेशा इस मुद्रा में रहते हैं कि प्रशंसा करना सबसे निकृष्ट कार्य है बोले-इस आदमी के भीतर आग है.यह कभी भूखा भी सोया होगा.इसने दुनिया देखी है वरना तो तुम्हारे रीवा में जी सर और मोनालिसा की मुस्कुराहट वाले बहुत हैं.जो देखे वही सोचे मेरे लिए मुस्कुरा रहा है.उन सबको ठेंगे पर रखता होगा जो रीवा में सफलता का ईनाम बाँटते हैं.इसीलिए असफल है.पर ठीक है यार सफलता से क्या उखड़ता है.अपना काम तो कर ही रहा है.

ओम द्विवेदी.आजकल नयी दुनिया इंदौर में सहायक संपादक हैं.मेरे मन में अभी बातों ,यादों,प्रसंगों का रेला रहा है.सबको सिलसिलेवार जमाने लायक सोच पाने का भी वक्त नहीं.इस सबको पोस्ट भी तो करना है.आकुलता में ज़रूरी छूटकर गौंण हो जाए इससे बेहतर है कम लिखना.मेरी रफ्तार बिल्कुल कम हो गई है.एक लाइन लिखने में कई कई लाइन मिटा रहा हूँ.अभी खयाल रहा है सबकुछ विस्तार से बाद में लिखूँ तो अधिक ठीक रहेगा.अभी दोहे आपसे बाँटू.

ये दोहे मैंने ओम द्विवेदी के ब्लॉग से छाँटे हैं.सारे पढ़ने के लिए आप इस लिंक मीठी मिर्ची पर जाएँ.ओम द्विवेदी संकोची हैं इसलिए यदि आप उन्हें बहुत अच्छे कवि के रूप में नहीं जानते तो आपकी ग़लती नहीं.ये दोहे पढ़िए और सोचिए कैसा कवि ऐसे दोहे लिख सकता है.मैं सिर्फ़ इतना कह रहा हूँ यह मेरे ब्लॉग की दीवाली पोस्ट है.


झालर, झूमर, दीप सब, सजकर हैं तैयार।
अँधकार के तख्त को, पलटेंगे इस बार॥

अँधियारे की बाढ़ में, चली दीप की नाव।
घर-घर पहुँची रोशनी, रोशन सारा गाँव॥

बंद आँख में रात है, खुली आँख में भोर।
पलकें बनकर पालकी, लेकर चलीं अँजोर॥

लक्ष्मी, दीप, प्रसाद सब, बेच रहा बाजार।
जिसकी मोटी जेब है, उसका है त्योहार॥

मावस ने है रच दिया, यह कैसा षडयंत्र।
कहे रोशनी ठीक है, अँधियारे का तंत्र॥

सूरज ने जबसे किया, जुगुनू के संग घात।
लाद रोशनी पीठ पर, घूमे सारी रात॥

पसरी है संसार पर, जब-जब काली रात।
एक दीप ने ही उसे, बतला दी औकात॥

सोता है संसार जब, बेफिक्री की नींद।
रात पालती कोख में, सूरज की उम्मीद॥

नहीं चलेगा यहाँ पर, अँधियारे का दाँव।
पोर-पोर में रोशनी, यह सूरज का गाँव॥

उँजियारे का है बहुत, मिला-जुला इतिहास।
कुछ आँखों के पास है, कुछ सूरज के पास॥

अँधकार के राज में, दीपक की हुंकार।
तुझसे लड़ने के लिए, आऊँगा हर बार॥

गुरुवार, 4 नवंबर 2010

साहित्यिक संवेदना का राजनीतिक सन्निपात



एक लेखक के ’साहित्यिक संस्कार’, जिस तरह ’संवेदना को केन्द्र में रखकर रचना का प्रतिपाद्य गढ़ते हैं, उसमें वह देखे गये सामाजिक सत्य की ’वस्तुगतता’ को पार्श्व में रखकर अपने द्वारा रचे गये सच का ऐसा प्रतिरूप खड़ा करता है कि वह अपनी सम्पूर्णता में सर्वग्राह्य और प्रामाणिक जान पड़े। वहां उसके लिखे हुए में ’संवेदना का आवरण’, कवच की तरह काम करता है, और नतीजतन पाठक को लगता ही नहीं कि उसका वस्तुगत सत्य उससे कभी का बाहर हो चुका है।

कहने की जरूरत नहीं कि ’भाषा से भाषा में’ पैदा होने वाले अनुभवों के सहारे, सचाई के साथ फ्लर्ट करने में माहिर, अंग्रेजी लेखिका अरून्धती राय पिछले एक लम्बे अरसे से लगातार एक अराजनीतिक से जान पड़ने वाले मानववाद का लोक लुभावन मुखौटा लगाकर, कश्मीर समस्या पर अपने लिखे हुए से ’सत्यों को संवेदना के सहारे’ बुहारकर बाहर कर रही है। यह निश्चय ही एक लेखक की अभ्यस्त चतुराई है, जिसे बिला शक ’बौद्धिक-चालाकी’ के रूप में ही चिन्हित किया जाना चाहिए। जबकि, इस संदर्भ में हमारा टीआरपी-पीड़ित इलेक्ट्रॉनिक मीडिया मोहाविष्ट-सा, जब-तब उनमें सुरखाब के पर लगाता चला आ रहा है।

याद करिये, बड़े बांधों के विरूद्ध बरसों से गांवों की गलियों और पगडंडियों पर धूल-धक्कड़ के बीच, धरम-धक्के खाती रहने वाली मेधा पाटकर, मीडिया के लिए अब मात्र एक ’बाइट’ बनकर रह गईं, जब अरून्धती राय ने इस परिसर में प्रवेश किया। अलबत्ता, कहना चाहिए कि ’नर्मदा बचाओ आंदोलन’ में प्रवेश करते ही वह ’बाइट’ नहीं, पूरा का पूरा ‘चंक‘ और ‘श्रेय‘ लूट ले गयीं हैं। प्रिण्ट मीडिया की हालत तो ये थी कि वहां मेधा की हैसियत अरून्धती के बरअक्स ’सिंगल कॉलम’ की रह गई थी। अखबारों ने अरून्धती के इतने-इतने बड़े छायाचित्र छापे, जितने कि भारतीय भाषा के किसी शीर्ष लेखक के छायाचित्र तो उसकी मृत्यु पर भी नहीं छपते।

पिछले दिनों कश्मीर के भूगोल की तफरीह से लौटकर अरून्धती ने अपने ’संवेदनात्मक-ज्ञान’ का भाषा में चतुर प्रविधि से ऐसा दोहन किया कि कश्मीर के अलगाववादी आंदोलन के कर्ता-धर्ता से कहीं ज्यादा चर्चा अरून्धती की होने लगी। उन्होंने जो और जैसा बोला, विगत में आतंकवाद के दौर में यदि वे पंजाब में भ्रमण कर रही होतीं, तो निश्चय ही खालिस्तान की मुक्ति की पटकथा की लेखक बन चुकी होतीं। क्योंकि, खालिस्तान बनाने का स्वप्न देखने वाले तमाम ’मरजीवड़े’ अपना सर्वस्व फूंकने पर तुले हुए थे। वे अपनी ही कौम की सत्ता की गोलियों के निशाने पर ठीक कश्मीरियों की तरह ही आ रहे थे।

दरअस्ल, यह अरून्धती के दुर्भाग्य की करूण कथा कही जाना चाहिए कि तब वे इतनी यशस्वी नहीं थीं और संयोग से यदि वे ऐसे ‘विखण्डनवादी‘ जुमले बोल रही होतीं तो उन्हें सुनकर पंजाब पुलिस का एक सामान्य दारोगा भी ‘भड़काऊ‘ वक्तव्यों के बिना पर हिरासत में लेने में सक्षम होता। लेकिन, बुकर-पुरस्कार (जिसकी घोषणा के पहले लंदन के पुस्तक प्रकाशन से जुड़े व्यवसायियों के बीच सट्टा लग जाता है) को प्राप्त करने के बाद, अंग्रेजों का गौरवगान करने वाली भारत सरकार के लिए अब अरून्धती एक ऐसी भयभीत करने वाली शख्सियत बन गई है कि उन्हें छूने का अर्थ ‘सत्ता का स्वाहा‘ हो जाना है। बन्दीगृह की बात तो सरकार के लिए आत्मध्वंस ही होगी। यह लगभग फ्रांस की सत्ता का-सा वह ‘चुना हुआ‘ भय है, जो सार्त्र की गिरफ्तारी के प्रश्न से तत्कालीन राष्ट्रपति द गाल को हुआ था। बहरहाल, भारत की ‘बुकर-धारिणी‘ अरून्धती राय, अब भारतीय पुरा-कथाओं की उस स्त्री-पात्र की मानिंद हो गई हैं, जिसने अपने तपोबल से ऐसी अलौकिक शक्ति अर्जित कर ली थी कि वह कुपित होने पर अपने श्राप से, सत्ता के सिंहासन को राख कर देती थी। वे अब उत्तर-आधुनिक युग की हाईली इन्फ्लेमेबल ऋषिकन्या हैं। वे ज्वालादेवी हैं। मीडिया भी उनके विवादग्रस्त कथनों में खोट देखने में अपनी ‘ज्ञानात्मक भीरूता‘ से भरा हिचकिचाता है। दरअस्ल, इस आर्यावर्त में बुद्धि के बलबूते पर जीवन-यापन करने वाली बिरादरी तो ऋषि एण्डरसन के उस आप्त-कथन से बेतरह डरी हुई है कि जो कहता है ‘राष्ट्र-राज्य तो एक काल्पनिक समुदाय है।‘

बहरहाल जो, निरा ‘काल्पनिक‘ है, उसके विरूद्ध की जाने वाली किसी भी बौद्धिक-अबौद्धिक किस्म की कार्यवाही की आलोचना करने के लिए आगे आना यानी ‘ज्ञान के क्षेत्र में लज्जास्पद‘ हो जाना है। ऐसे में एक काल्पनिक समुदाय के विखण्डन का बीजगणित तैयार करने वाली अरून्धती की आलोचना करने की हिमाकत भला कैसे की जा सकती है ? फिर चाहे उस काल्पनिक समुदाय के लिए दुनिया भर के राष्ट्रों के सत्ताधारी आर्थिक और सामाजिक योजनाओं के अरबों-खरबों के, बड़े-बड़े मानचित्र क्यों न बनाते रहें और सीमाओं के पार जाने के लिए पार-पत्र भी जारी करते रहें। यही वह स्थिति है, जब तर्कों की तूलिकाओं से एक साफ-साफ और राष्ट्र विरोधी कथन को ‘दार्शनिकता के आवरण‘ में रखकर ‘वेध्य‘ होने से बचा लिया जाता है। जबकि, हथियारों के जरिये राष्ट्र को क्षति पहुंचाई जाये, या कलम के द्वारा दोनों ही कार्यवाहियां, अपने मंसूबों में एक ही काम करती हैं। दोनों में फर्क करना और बताना, बौद्धिक-धूर्तता ही होगी। अरून्धती के मामले में यही अमोघ युक्ति काम कर रही है। चतुराई का यही वह ‘एब्स्ट्रैक्ट‘ और ‘कंक्रीट‘ है।

अब राष्ट्र-राज्य की अवधारणाओं के विमर्श से नीचे उतर कर जरा मीडिया महर्षि फ्रेडरिक जेमेसन के आप्त-कथन की ओर अग्रसर होते हैं। वे कहते हैं, ‘जनता एक काल्पनिक समुदाय है, जबकि असल में आबादी केवल जनसमूहों में ही होती है।‘ जनता शब्द अमूर्तन की तरफ ले जाता है। इसलिए संवाद और संचार के क्षेत्र में उसकी कोई अर्थवत्ता नहीं है। तो क्या यह नहीं मान लिया जाना चाहिए कि अरून्धती जो बात कर रही हैं, वह ‘जनता‘ नहीं मात्र ‘समूहों‘ की बात कर रही हैं। और वे समूह ‘अलगाववाद‘ की धधकती आग में अर्से से आपादमस्तक तपते आ रहे हैं। वे अपनी ही लगाई लाय में झुलसते हुए, उन समूहों की हताशा और निराशा को संवेदना के सहारे प्रश्न का रूप देते हुए, भारत के विखण्डन की एक सुविचारित ‘सिद्धान्तिकी‘ गढ़ रही हैं कि भूखे-नंगे हिन्दुस्तान से कश्मीर को आजादी की दरकार है। यह चिंतन उन नारों का ही अन्वय है, जिन्हें कश्मीर के अलगाववादी समूह रात में दीवारों पर लिख देते थे-‘भूखा-नंगा हिन्दुस्तान, जान से प्यारा पाकिस्तान।‘

कहने की जरूरत नहीं कि पिछले वर्षों में पाकिस्तान की ‘जमात-ए-इस्लामी‘ तथा ‘आई.एस.आई.‘ द्वारा कश्मीर की युवा और राजनीतिक भटकाव से भरी पीढ़ी के खून में, मजहबी कट्टरवाद का जहर डाल कर, उन्हें जंगखोर बना दिया जा चुका है, जिसके चलते हथियार उनके हाथों के खिलौने बन चुके हैं। और अरून्धती जंग के जोश और जुनून में झोंक दी गई इस बर्बाद पीढ़ी की पीड़ा और प्रश्नों को, करूणा से डबडबाती भाषा के आवरण में रख कर, निहायत निरूद्वेगी मुद्रा में ‘तथ्य-कथन‘ की तरह प्रस्तुत करने का छद्म रच रही है। या फिर यह एक महज साहित्यिक संवेदना का राजनीतिक सन्निपात है ?

उनके तमाम वक्तव्य मानववाद के पक्ष में ‘सारगर्भित लगने वाली वाचालता‘ का साहित्यिक संस्करण भर है। वे अपने लिखने और बोलने में कश्मीर की बिगड़ती हालत की तटस्थ सूचना नहीं दे रही है, बल्कि जंगखोर दहशतगर्दों की वकालत कर रही है। वहां छिद्रित सीमा से इस पार घुसपैठ कर आई, पाकिस्तान के आतंकवादी शिविरों की एक पूरी दीक्षित-प्रशिक्षित फौज है, जिन्हें अरून्धती अपनी भाषिक-युक्तियों से ‘जिहादी‘ के बजाय भोली और मासूम पीढ़ी बता रही है तथा उनके अनुसार विश्व की सबसे निर्दयी सैन्यशक्ति की गोलियों से भूनी जा रही है। मैं माओवादियों को देशद्रोही नहीं मानता, बल्कि उन्हें विचारधारा के द्वारा पैदा किये जा रहे ‘क्रिएटिव-क्रिमिनल्स‘ कहना चाहूंगा। लेकिन कश्मीर में मजहबी कट्टरपन से कुच्चम-कूच भर दिये गये विध्वंसकारी युवकों के ऐसे हिंस्र समूह हैं, जिन्होंने भारत के खिलाफ एक असमाप्त जंग छेड़ रखी है। ऐसे में अरून्धती तथा उनकी समझ के अनुयायियों के विरोध के कारण ‘सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून‘ में जरा भी हेरफेर करना अथवा सेना का कश्मीर से हटा लिया जाना, बेशक भारत सरकार की भयंकर भूल होगी। वैसे कश्मीर में आरंभ से ही गलतियों पर गलतियां किये जाते रहने का इतिहास रहा आया है। हो सकता है ऐसा करते हुए हम एक आखिरी और महाभूल करना चाहते हों।

बहरहाल, अब फिर उस मूल-प्रश्न की तरफ आया जाये कि माना कि अरून्धती इस नंगे-भूखे भारत में गोरांग प्रभुओं की भाषा की महानतम लेखिका है और अद्भुत स्वप्नदर्शी भी हैं, तो क्या वे अपने मन, वचन और कर्म से किसी ऐसे भावी राष्ट्र-राज्य के निर्माण में अपनी बौद्धिक ऊर्जा से स्वयं को झोंकने पर तुल गई हैं, जो घृणास्पद भारत देश से कहीं ज्यादा समृद्ध सम्पन्न और शांतिप्रिय देश होगा ? बड़े जनतांत्रिक आदर्शों वाला होगा ? क्या वह वर्ग, जाति और सम्प्रदायरहित होगा ? क्या वे ऐसे आदर्श राष्ट्र-राज्य के लिए नींव का पत्थर डाल रही है ? क्या उन पत्थरों पर ही उनकी इच्छा के हिसाब से सामाजिक, आर्थिक और भू-राजनीतिक घोर वैषम्य से भरे इस भारत के विखण्डन का नारियल फूटेगा ? वे अपने तर्कों की तिक्त तूलिका से जिस ‘भावी नवस्वतंत्र राष्ट्र का मानचित्र‘ रचने की धधकती रचना में ‘अग्निस्नान‘ कर रही हैं, क्या वहां इस भूखे नंगे भारत की तुलना में ज्यादा गैर-बराबरी बरामद होगी ? क्या वह दक्षिण एशिया में स्थायी शांति का गारंटी देने वाला महान राष्ट्र-राज्य होगा?

मेरे खयाल से मोराजी भाई देसाई के प्रधानमंत्री बनने की उम्र को छूने वाले, पाकिस्तान की ‘जमाते-ए-इस्लामी‘ से अपना रक्त-सम्बन्ध बनाये रखने वाले सैयद अली शाह गिलानी, जिनके साथ वे देश की राजधानी में मंच साझा कर रही थी, जब वे ‘राष्ट्रपिता‘ बनेंगे, तो क्या वे इस ‘भारत-पुत्री‘ के लिए उनके पास कोई मुकम्मल जगह होगी ? इनकी कल्पना का भावी कश्मीर जो कि निश्चय ही एक इस्लामिक राष्ट्र होगा और बेशक वहां भारत जैसी साम्प्रदायिक समस्या नहीं होगी, क्योंकि ‘जिसे कश्मीर में रहना है, उसे अल्लाह-ओ-अकबर कहना है।‘ इसलिए वह पूर्णतः वह मुस्लिम राष्ट्र ही होगा, जहां गैर-मुस्लिम आबादी होगी ही नहीं। और अभी तक का इतिहास तो हमें यही बताता आ रहा है कि इस विश्व के तमाम इस्लामिक राष्ट्र, ‘जनतंत्र‘ को बर्दाश्त ही नहीं कर पाते। पाकिस्तान जनतांत्रिक होने के दावे जरूर करता रहता है, लेकिन जनतंत्र को वह केंचुल की तरह उतार कर कभी का फेंक चुका है। उसके पास भी वही तानाशाही की फुंफकार है। इसलिए इनमें से किसी भी मुल्क में अभिव्यक्ति की आजादी की ऐसी बीन नहीं बजती, जैसी अरून्धती बिना डरे, ‘भर-मुंह सांस‘ से राग ‘देस-तोड़ी‘ बजा रही है।

अंत में कहना यही है कि अब अरून्धती की समझ और सोच की आरती उतारना बंद की जाना चाहिए। क्योंकि उनके मंतव्य बहुत खुल कर सामने आ चुके हैं कि वे क्या चाहती है? वे इतनी विराट नहीं है कि उनका कद देश से भी ऊंचा दिखने लगे। वे भारतीय भविष्य के संदर्भ में ‘गॉडेस ऑव स्माल थिंकिंग‘ है। वे इतिहास की ऐसी ‘रतौंध‘ की शिकार है, जिसकी वजह से उन्हें कश्मीर भारत के अभिन्न अंग की तरह दिखाई देना कभी का बंद हो चुका है। यह पूरी तरह इरादतन है और वे अपरोक्ष रूप से किन्हीं दूसरी शक्तियों के इरादों को सींचने के धत्करम में लगी जान पड़ती है। उन्हें भारत के विखण्डन के लिए ‘बीजगणित‘ तैयार करना है। वे अंध राजनीति के लिए ‘पैराडाइज लास्ट‘ का रफ ड्राफ्ट लिख रही हैं।

उन्हें कौन याद दिलाये कि फॉकलैण्ड के युद्ध के समय बीबीसी ने मार्गरेट थैचर की कार्यवाही की आलोचना में किसी का भी एक शब्द प्रसारित नहीं किया, जबकि वह तो सचाई और अभिव्यक्ति की आजादी को समर्पित होने का सबसे बढ़-चढ़कर दावा करता है। क्या ऐसी महान हस्ती को यह भी याद दिलाने की जरूरत है कि फॉकलैण्ड ब्रिटेन से ढाई हजार किलोमीटर दूर है और हमारे कश्मीर को ‘उत्तरी पाकिस्तान‘ बोलने-बताने वाला ब्रिटेन, वहां साढ़े सात सौ साल से लड़ रहा है, जबकि कश्मीर हमारे मानचित्र की गरदन की रक्तवाहिनी है। अभी तक हम वहां सिर्फ ‘रक्षात्मक-मुद्रा‘ में लड़ते रहे हैं, जबकि डॉ. फारूख भारत की संसद में भारत-सरकार से दहाड़ कर पूछते रहे हैं कि पाक अधिकृत कश्मीर आखिर हम कब लेंगे? क्योंकि यही वाजिब वक्त है, जब पाकिस्तान अपनी ही नीतियों से खुद को कमजोर बना चुका है।

क्या अरून्धती को यह दिखाई नहीं देता, कि पिछले कुछ वर्षों से कश्मीर को मुस्लिम बहुलता को सौ प्रतिशत बनाने की अदम्य इच्छा में अलगाववादियों द्वारा हिंसक कार्यवाही लगातार तेजी से बढ़ती गई और कश्मीरी पंडितों को खदेड़ कर बाहर करने के बाद उन्होंने साठ हजार सिक्खों को भी कश्मीर खाली करने की धमकी दे रखी है। कहने की जरूरत नहीं कि कश्मीर अब देश के भूगोल में राज्य नहीं, बल्कि पूरी तरह ‘इस्लामिक इथनोस्केप‘ बना दिया जा चुका है, जिसमें सीमा पार से उन शिविरों से पूर्णतः प्रशिक्षित आतंकवादियों के जत्थों के जत्थों को घुसपैठ द्वारा कश्मीर में भेजा जा रहा है, जिन्हें पाकिस्तान की आय.एस.एस. चला रही है। कश्मीर की तबाही में उनकी बहुत अहम् भूमिका है।

हमें यह कतई नहीं भूलना चाहिए कि कश्मीर एक ऐसा सीमावर्ती राज्य है, जो संवेदनशील नहीं, अलबत्ता भयानक विस्फोटक स्थिति में है। रक्षा विशेषज्ञों की दृष्टि में तो इतनी चिंताजनक स्थिति पर पहुंच चुका है कि यदि वहां से सेना हटा ली जाये, तो मात्र पन्द्रह दिनों में भारत से कश्मीर अलग हो जायेगा। ऐसे समय में कश्मीर के बारे में अरून्धती के चिनगारी भड़काने वाले बयान देशघाती ही कहे जाने चाहिए। क्योंकि ऐसे बयान कश्मीरियों में विखण्डन के उन्माद में अनियंत्रित उफान पैदा करने वाले हैं। क्या हमारा ‘भीरू‘ राष्ट्र-राज्य अरून्धती के आशयों की अनसुनी करते हुए उसे मात्र अभिव्यक्ति की आजादी का मसला मानकर गूँगी बनी रही सकती है ? या कि अपनी कूटनीतिक समझ से इसे खतरनाक मानती है ? और इसके भावी परिणामों पर बहुत वस्तुगत ढंग से विचार कर रही है। दरअस्ल, यह एक बड़ी प्रश्नभूमि है, जहां खड़ा रह कर भारत का बहुत सामान्य नागरिक भी सरकार की तरफ कान लगाकर खड़ा है कि वहां से कोई उत्तर आने वाला भी है कि वे अभी राष्ट्रमंडलीय खेल राग में ही डूबे हुए हैं और झूम-झूम कर एक दूसरा कीर्तन करने में ही लगे रहेंगे ?


प्रभु जोशी
‘समग्र‘, 4, संवाद नगर,
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दूरभाष: 94253-46356
आवास: (0731) 2400429
(0731) 2401720

रविवार, 17 अक्तूबर 2010

होई भगति भें लोग बेहाला

आज दशहरा है.नौ दिनी भक्ति समाप्त होने को है.सड़क के किनारे घर की ठीक बगल में.दुर्गा विराजी हैं.आसपास के पेड़ों और कॉलोनी की ऊँची पानी की टंकी में लगे स्पीकरों को मिलाकर करीब सौ मीटर की सीमा में दस स्पीकर सेवाएँ दे रहे हैं.सुबह के छह बजे से रात के दस बजे तक सिर्फ़ भक्ति.भजनों का कोलाहल.

इतनी घनघोर निर्वेद ध्वनि कि घर के खिड़की दरवाजे जहाँ से भी प्रकाश आ सकता है बंद करने के बाद भी न तो टीवी का कोई चैनल समझ आए न फ़ोन पर किसी की ज़रूरी बात.कई बार भीतरी ग़ुस्सा इतना उफ़ना की बंगाल से केवल मंत्र पढ़ने-चीखने आए पंडितों के पास दौड़ता हुआ जाऊँ-चुप करो सालो....जीना हराम कर रखा है.

ज़ब्त किया.सब्र से काम चला रहा हूँ.आत्म निर्वासन के रास्ते चुने.कविता के साथ घर से निकल-निकल जाते रहे.विधर्मी दुआएँ की,काश मुसलमानों के मोहल्ले में अपना घर होता...उम्मीद यह थी कि आखिर दशहरा भी बीतेगा ही.सो हम मन ही मन खुश हैं कि आज रात आठ बजे के बाद हम पर भी राम जी की कृपा होगी.

पर मन धिक्कारना नहीं छोड़ रहा.छुट्टी बीती जा रही है.किसी से फ़ोन पर बात नहीं कर सका इन दिनों.दशहरे के बधाई एसएमएस पढ़कर जैसे मन सुलगा जा रहा है.टेंट हाउस के लड़के लाउड स्पीकर छोड़कर एक एककर सजावट उतार रहे हैं.मैं बड़बड़ा रहा हूँ.अब देर नहीं कर सकते.मालिक एक्स्ट्रा भुगतान के लिए लात मारेगा.

मन इतना खिन्न है कि यह भी नहीं कह सकता कि भक्तो इतनी बिजली,खाद्यान्न,संसाधन बर्बाद कर दिया.अब मूर्तियों से नदी,नाले पाट दोगे.इतने में तो गाँव के गाँव आबाद हो जाते.स्कूलों का जीर्णोद्धार हो जाता.यह कहना इस देश में उस मूर्खता से भी बड़ी उद्दंडता है जो नवरात्रि में बाक़ायदा अंज़ाम दी जाती है.खुलकर न बोल सकने के पीछे अपना डरपोक मन भी है कि बोल गए तो डंडे पड़ेंगे.

याद आता है इन्हीं दिनों का एक आंदोलन जो साधुओं ने किया था.हुआ यह था कि कुछ साधुओं ने जैन मंदिर क्षेत्र में अपना तोरण द्वार बना लिया.मना करने पर चमका दिया.तब कुछ साहसी जैनी पुलिस रिपोर्ट आदि का बेमतलब होता देख ज़िला कलेक्टर से मिले.कलेक्टर ने मौका देखा.साधुओं को गेट हटा लेने को कहा.साधु नहीं माने.कलेक्टर ने इच्छाशक्ति दिखायी.बल प्रयोग से गेट हटवा दिया.

फिर क्या था आंदोलन ही शुरू हो गया.राजवाड़े में मंच सज गया.धूनी जल गयी.माइक लग गए.अनशन शुरू हो गए.कम्प्यूटर,मोबाइल,इलेक्ट्रिक आदि नामोंवाले बाबा जुट आए.कलेक्टर मुर्दाबाद...अधर्मी को हटाओ...पुकार लगायी जाने लगी.या तो यहाँ धर्म रहेगा या कलेक्टर.दोनों नहीं रहने देंगे हम.

उसी आंदोलन में मैने मंच से अश्लील भाषण सुने.इसके पहले मैं ऐसे अनुभव से वंचित था.एक संत जो वक्तव्यों का संचालन कर थे उन्होंने कहा कि अब इलेक्ट्रिक बाबा यह समझाएँगे कि कलेक्टर अधर्मी क्यों है..वे साधु आए और समझाने लगे.जिसका कुलमिलाकर आशय यह था कि इस कलेक्टर की मां के संबंध ज़रूर किसी इसाई से रहे होंगे.इतना भ्रष्ट और हिंदू विरोधी ईसाई का मूत्र ही हो सकता है.

मेरी हिम्मत नहीं हुई थी कि मैं सभी साधुओं को सुन पाता.बाद में खबर मिल गई थी कि कलेक्टर का पत्नी बच्चों के साथ सकुशल तबादला हो गया.

जिस देश मे आई ए एस के रुतबे,अधिकारों का ढोल पीटा जाता है वहीं मैंने कलेक्टर की यह औकात देखी है.अगर आप भी सामाजिक प्राणी होंगे तो धार्मिक मामलों में हस्तक्षेप का अंजाम जानते होंगे.

इस देश को बाज़ारवाद या साम्राज्यवाद से उतना खतरा नहीं है जितना धर्म और जाति से.अगरबत्ती का धुआँ सिगरेट के धुएँ से खतरनाक है.लेकिन कहीं इसकी वैधानिक चेतावनी नहीं.जिन्हें इस अप्राकृतिक न्याय से संतोष नहीं कि नगर निगम की बहुराष्ट्रीय कचरा गाड़ी में क्षत विक्षत अलौकिक मूर्तियाँ भी लादी जाती हैं.देवी-देवता अंत में नालियों में गंधाते हुए सड़ते रहते हैं उनकी कोई सुनवायी नहीं.

एक हम हैं कि अपने किसी भी महान नेता,लेखक,संस्कृतिकर्मी या किताब की ऐसी लोकस्वीकृत याद एक दिन के लिए भी नहीं आयोजित कर पाते.जबकि अलभ्य देवी देवताओं के लिए लोग महीनों नंगे पैर चलते हैं,व्रत रहते हैं,खुलकर चंदा देते हैं.हमारे किसी सच्चे साथी की हत्या के विरोध में भी बुद्धिजीवी शराब पीते हुए एयर कंडिश्नर यात्रा करते हैं.हमारे कवि-लेखक जानबूझकर आयटम स्क्रिप्ट,गीत लिखते हैं.वकालत जैसी पत्रकारिता करते हैं.पंडों जैसा अध्यापन करते हैं.

इस सांस्कृतिक शोर में मुझे सूझ ही नहीं रहा कि इस दशहरे में राम को जन्मभूमि मिलने की बधाई दूँ,अपने घर से भाग जाऊँ या आज रात तक शोर से मुक्ति पा जाने का इंतज़ार करूँ.


शनिवार, 16 अक्तूबर 2010

खबरों के आगे खिंचता नेपथ्य

दुनिया भर में,‘विश्व के सबसे बड़े जनतंत्र‘की तरह ख्यात भारत ने,जब एक‘नव-स्वतंत्र राष्ट्र‘की तरह,विश्व-राजनीति में जन्म लिया,तब निश्चय ही न केवल‘पराजित‘बल्कि,लगभग हकाल कर बाहर कर दी गयी‘औपनिवेशिक-सत्ता‘के कर्णधारों की आंखें, इसकी‘असफलता‘को देखने के लिए बहुत आतुर थीं।चर्चिल की बौखलाहटों को व्यक्त करती हुई,तब की कई उक्तियां इतिहास के सफों पर आज भी दर्ज हैं।अलबत्ता,उनकी अपशगुनी उम्मीदों के बर-खिलाफ,जब-जब इस‘महादेश‘में संसदीय चुनाव हुए,तब-तब इस बात की पुष्टि काफी दृढ़ता के साथ हुई कि बावजूद‘सदियों की पराधीनता‘के,भारतीय-जनमानस में एक अदम्य‘लोकतांत्रिक-आस्था‘है,जो केवल उसके सोच भर में स्पंदित नहीं है,बल्कि,उसकी तमाम संस्थाओं में,वह लगभग‘दहाड़ती‘हुई उपस्थित है।कहने की जरूरत नहीं कि उसके‘चौथे खंभे‘में तो‘नृसिंह‘की-सी शक्ति है,जो सत्ता के पेट को चीर सकती है।आपातकाल में तो उसने यह पूरी शिद्दत से प्रमाणित कर दिया था कि न केवल‘लिख कर‘बल्कि इसके विपरीत‘न लिखकर‘भी वह अपनी आवाज को इस तरह बुलन्द कर सकती है,जो हजारों-हजार लिखे गए लफ्जों से कहीं ज्यादा प्रखर प्रतिरोध का रूप रख सकती है।सम्पादकीय की जगह खाली छोड़ने से‘मौन की तीखी अनुगूंज‘राष्ट्रव्यापी बन गयी थी।

बहरहाल, इन्दौर नगर में पिछले सप्ताह ‘गांधी-प्रतिमा स्थल‘ पर कतिपय बुद्धिजीवियों ने देश भर के कोई बीस-बाइस हिन्दी समाचार पत्रों की एक-एक प्रति जुटाकर,तमाम अखबारों के द्वारा ‘अकारण‘ ही तेजी से किये जा रहे हिन्दी के हिंग्लिशीकरण बनाम ‘क्रिओलीकरण’ के जरिए,जिस ‘बखड़ैली भाषा‘ को जन्म देने में लगे है,उसके प्रति हिन्दी भाषाभाषी पाठकों की पीड़ा और प्रतिकार को प्रतीकात्मक रूप से व्यक्त करने के लिए,उनकी होली जलायी। निश्चय ही प्रतिकार की इस ‘प्रतीकात्मकता‘ से जो लोग असहमत थे,वे इसमें शामिल नहीं हुए। उनके पास अपने तर्क और अपनी स्पष्ट मान्यताएं थीं,जबकि अखबारों की ‘होली‘ जलाने वालों के पास अपनी सिद्धान्तिकी थी। दोनों के पक्ष-विपक्ष में एक गंभीर विमर्श भी बन सकता था। बहरहाल,घटना छोटी-सी और निर्विघ्न सी थी,लेकिन भारतीय पत्रकारिता के विगत तिरेसठ साल के इतिहास में पहली बार घट रही थी। लेकिन देश के किसी भी हिन्दी अखबार ने(नईदुनिया को छोड़कर)यह खबर प्रकाशित नहीं की।इण्टरनेट के ब्लागों और ‘फेस बुक‘ पर अवश्य इस पर बहस के लिए अवकाश (स्पेस) निकला लेकिन,आरंभ में उसका रूप जिस तरह की गंभीरता लिए हुए शुरू हुआ था,दूसरे दिन वह ‘भर्त्सना‘ और ‘भड़ास‘ की शक्ल अख्तियार कर चुका था।उसमें मनोरंजन और मसखरी भी शामिल हो चुकी थी।अतः पूरी बात विचार के दायरे से ही लगभग बाहर हो गयी।

यहां यह बात गौर करने लायक है कि कदाचित् सम्पूर्ण हिन्दी समाचार-पत्रों ने,इस कार्यवाही को अपनी सत्ता के प्रति एक ‘बदअखलाक चुनौती‘ की तरह लिया है।हो सकता है समाचार-पत्रों ने,चूंकि वे समय और समाज में विचार के लिए वाजिब जगह बनाने की जिम्मेदारी अपने ही हिस्से में समझते हैं,अतः वे इस कार्यवाही के खिलाफ निस्संदेह ठोस बौद्धिक-असहमति रखते हैं।लेकिन प्रश्न उठता है कि जो समाचार पत्र,वर्ष के तीन सौ पैंसठ दिन,’समय और समाज’की खाल खींच कर उसमें नैतिकता का नमक डालने पर तत्पर रहता है,क्या वह तिरेसठ वर्ष के अपने जीवनकाल में मात्र एक दिन किसी एक शहर में अपने पाठक की असहमति और उसका प्रतीकात्मक प्रदर्शन तक बरदाश्त नहीं कर सकता?जबकि,वह इस महाकाय जनतंत्र की रक्षा का एक सर्वाधिक शक्तिशाली कवच है?क्या समूचा समाचार-जगत ’विचार’ के स्तर पर,व्यक्ति की सी स्वभावगत ’एकरूपता’ रखता है ?जबकि, वह व्यक्ति नहीं संस्था है।मुझे यहां याद आता है कि नेहरू के विषय में कहा जाता रहा है कि उनका अहम् काफी अदम्य था और वे अमूमन अपनी असहमति की अवमानना पर तिक्त हो जाते थे।एक प्रसंग मुझे याद आ रहा है। ’टाइम्स ऑफ इण्डिया’ के तब के ख्यात सम्पादक मुलगांवकर प्रधानमंत्री आवास पर स्वल्पाहार हेतु आमंत्रित थे और जिस सुबह वे आमंत्रित थे,ठीक उसी दिन उन्होंने नेहरू तथा ’नेहरू-सरकार’ के विरूद्ध अपने अखबार में बहुत तीखी सम्पादकीय टिप्पणी छाप दी।लगभग आठ बजे प्रधानमंत्री-आवास से दूरभाष पर सूचना दी गयी कि किन्हीं अपरिहार्य कारणों से पूर्व में स्वल्पाहार के समय प्रधानमंत्री के साथ निर्धारित भेंट निरस्त की जा रही है।यह सूचना पाते ही श्री मुलगांवकर ने नेहरू को फोन किया कि ठीक है कि आज का सम्पादकीय आपके तथा आपकी सरकार के खिलाफ है,लेकिन इसका हमारे नाश्ते से क्या लेना-देना है? बहरहाल,नेहरू ऐसे थे कि सत्ता के सर्वोच्च शिखर पर रहते हुए भी ठिठक कर बुद्धिजीवियों द्वारा की गई अपनी आलोचना सुन सकते थे।कदाचित् उनके इसी जनतांत्रिक धैर्य को ध्यान में रखकर दुनिया भर की प्रेस उन्हें ’डेमोक्रेटिक प्रॉफेट’ के विशेषण से सम्बोधित भी करती थी।

बहरहाल,इन्दौर नगर में भारतीय समाचार पत्रों को उनके भाषगत नीति को केन्द्र में रखकर उसके प्रतिरोध में होली जलाने वाली कार्यवाही को लेकर इतना आहत और क्रोधित नहीं होना चाहिए कि उनके द्वारा अकारण किये जा रहे क्रिओलीकरण के खिलाफ शुद्ध गांधीवादी प्रतिकार की खबर को वे अपने पृष्ठों पर तिल भर भी जगह न दें।यह काम निश्चय ही सम्पादक का नहीं हो सकता। तो क्या हमारे समाचार-पत्रों में एक किस्म की ‘कॉरपोरेट सेंसरशिप‘ अघोषित रूप से आरंभ है ? जबकि,ठीक उसी दिन ‘दैनिक भास्कर‘ ने क्रिओलीकरण के विरूद्ध लिखी गयी मेरी तीखी टिप्पणी ससम्मान और प्रमुखता से छापी और ‘नईदुनिया‘ ने इसके दो दिन पूर्व ही ‘भाषा के खिलाफ हो रही साजिश को समझो‘ शीर्षक से हिन्दी के ‘क्रिओलीकरण‘ के खतरे की तरफ पाठकों नहीं, सम्पूर्ण हिन्दी भाषा-भाषियों को सचेत करने वाली उस टिप्पणी को एक ऐसी सम्पादकीय टीप के साथ प्रकाशित किया, जो ‘जन-आह्वान‘ के स्वर में थी। यह तथ्य दोनों ही अखबारों के ‘खुलेपन‘ और ‘जनतांत्रिक उदारता‘ के स्पष्ट प्रमाण हैं। तो अब प्रश्न यह उठता है कि क्या उनकी यह ‘उदारता‘ इतनी ज्वलनशील है कि प्रदर्शन की आंच की खबर से भस्म हो सकती है ? हां, राजनीतिक सत्ताएं ‘विचार‘ को खतरा मानती हैं और उससे डरती भी हैं, लेकिन अखबर की ताकत तो ‘विचार‘ ही है। ‘विचार‘ तो उसके लगभग प्राण हैं ? फिर चाहे वे ‘सहमति‘ के रूप में हों, या ‘असहमति‘ के रूप में।

मैं मानता हूं कि आज हमारा समाज जितना ‘सूचना-सम्पन्न‘ हुआ है,उसके पीछे प्रमुख रूप से ‘लिखे-छपे शब्द‘ की बहुत बड़ी भूमिका है, ‘बोले गये‘ शब्द वाले माध्यम की तो प्राथमिकताएं और प्रतिबद्धताएं केवल मनोरंजन ही है।अतः मुझे उस माध्यम से कुछ नहीं कहना।वह अभी तक परिपक्व ही नहीं हो पाया है।अधिकांश का ‘समाचार-विवेक‘ तो साध्यकालीनों की सनसनी के समांतर ही है। वे ‘सचाई‘ के साथ फ्लर्ट (!) करते हैं। उनका ‘रिमोट‘ सच के किसी दूसरे ‘सनसनाते संस्करण‘ को बदलने का उपकरण है। लेकिन सुबह के दैनिक अखबार यह मानते हैं कि वह मालिकों का कम पाठकों का ज्यादा है। इसीलिए, यदि पाठकों का एक छोटा-समूह ‘संवादपरक प्रतिरोध‘ की संभावना के पूरी तरह निशेष हो जाने के बाद, यदि निहायत ही गांधीवादी तरीके से अपना विरोध होली जलाकर प्रकट कर रहा है तो इसका अर्थ यह नहीं है कि समाचार-पत्रों में हो रही आयी उसकी आस्था का पूर्णतः से लोप हो गया है। गांधीजी ने,जब विदेशी वस्त्रों की होली जलायी थी तो वे ‘वस्त्रोत्पादन‘ के विरूद्ध कतई नहीं थे।ना ही वस्त्र धारण करने के काम से उनकी आस्था उठ गयी थी।वे तो प्रतीकात्मक रूप से एक अचूक सूचना दे रहे थे कि हमें ‘औपनिवेशिक विचार‘ का विरोध करना है,जो वस्तुओं में शामिल है।

अंत में इन दिनों जिस ‘शक्ति-त्रयी‘ की बात की जा रही है,उसमें ‘सूचना‘ भी राज्य सत्ता के समानान्तर मानी जा रही है।‘सूचना‘ का निर्माण और वितरण करने वाली दुनिया की चार पांच संस्थाओं को ‘सत्ता‘ का सर्वोपरि रूप माना जा रहा है, क्योंकि वे ही ‘विश्वमत‘ गढ़ती या बनाती हैं।उनमें किसी भी मुल्क या उसकी सरकार को ध्वस्त करने की भी अथाह कुव्वत है, लेकिन वे अपने मुल्क के ‘प्रतिरोध की आवाजों‘ की अनसुनी नहीं करती वर्ना नोम चॉमस्की जैसे लोगों के विचारों की आहटें शेष संसार को सुनाई ही नहीं देती।

मुझे ब्रिटिश प्रधानमंत्री चेम्बर लेन के आक्सफर्ड विश्वविद्यालय के दीक्षान्त समारोह में दिये गये उनके भाषण की याद आती है। उन्होंने कहा था, ‘आक्सफर्ड‘ ने हमें जब जब जैसा-जैसा करने को कहा हमने हमेशा ही ठीक वैसा-वैसा किया; लेकिन जब आक्सफर्ड को हमने अपने जैसा करने को कहा,उसने वैसा कभी नहीं किया और एक ब्रिटिशर की तरह मुझे इन दोनों बातों पर अपार गर्व है।

कुल मिलाकर चेम्बरलेन ने यही कहना चाहा हम ब्रिटिशर्स विचार के स्तर पर इतने उदार हैं हम अपनी प्रखरतम आलोचना का सम्मान करते हैं, लेकिन,हमें अपने मुल्क की बुद्धिजीवी बिरादरी पर भी गर्व है,जो असहमतियों को व्यक्त करने में भीरू नहीं है।किसी भी देश और समाज में भीरूता का वर्चस्व बौद्धिकों में व्याप्त होने लगे,तब शायद यह मान लेना चाहिए कि वह फिर से पराधीन होने के लिए तैयार हैं।

अंत में कुल जमा मकसद यही है कि लोहिया की विचारधारा में गहन आस्था रखने वाले श्री अनिल त्रिवेदी, तपन भट्टाचार्य और जीवनसिंह ठाकुर ने भारतीय भाषाओं के आमतौर पर तथा हिन्दी के क्रिओलीकरण (हिंग्लिशीकरण) को लेकर खासतौर पर एक शांत और नितान्त निर्विघ्न प्रदर्शन किया तो वस्तुतः वे निश्चय ही इसके दूरगामी खतरों की तरफ पूरे देश और समाज को चेतस करना चाहते हैं।वे ठीक ही कह रहे हैं ‘भाषा का प्रश्न‘ महज भाषा भर का नहीं होता, वह समूचे समाज को सामाजिक-सांस्कृतिक और आर्थिक व्यवस्था का भी अनिवार्य अंग होता है।क्या हमें यह नहीं दिखाई दे रहा कि अमेरिका और ब्रिटेन ‘ज्ञान समाज‘ के नाम पर,मात्र अपने सांस्कृतिक उद्योग की जड़ें गहरी करने में लगे हैं। ‘कल्चरल इकोनॉमी‘ उनकी अर्थव्यवस्था का तीसरा घटक है, जो अंग्रेजी सीखने-सिखाने के नाम पर अरबों डॉलर की पूंजी कमाना चाहते हैं।हिन्दी, यदि संसार की दूसरी सबसे बड़ी बोली जाने वाली भाषा की चुनौतीपूर्ण सीमा लांघने को है,तब उसे एक धीमी मौत मारने के लिए उसका क्रिओलीकरण क्यों किया जा रहा है ? अभी षड्यंत्र की यह पहली अवस्था है, ‘स्मूथ डिस्लोकेशन ऑव वक्युब्लरि‘।अर्थात हिन्दी के शब्दों का चुपचाप अंग्रेजी के शब्दों द्वारा विस्थापन इसे सर्वग्रासी हो जाने दिया गया तो अंत में आखिरी प्रहार की अवस्था आ जाएगी और वह होगा, देवनागरी लिपि को बदलकर उसके स्थान पर रोमनलिपि को चला देना।यहां यह याद दिलाना जरूरी है कि 5 जुलाई 1928 को ‘यंग इंडिया‘ में जब गांधीजी ने लिखा कि अंग्रेजी साम्राज्यवादी भाषा है,इसे हम हटा कर रहेंगे, तब गोरी हुकूमत अंग्रेजी के प्रसार प्रचार पर छः हजार पाऊण्ड खर्च करती थी (तब भी यह राशि बहुत ज्यादा थी)। गांधीजी की इस घोषणा को सुनते ही उन्होंने लगे हाथ अंग्रेजी के प्रचार-प्रसार का बजट बढ़ा दिया। 1938 में बजट की राशि थी तीन लाख छियासी हजार पाऊण्ड। यदि अखबारों की होली जलाकर प्रकट किये गये इस विरोध के बाद हिन्दी के समाचार पत्रों मे भाषा के ‘क्रिओलीकरण‘ की गति तेज हो जाये तो यह स्पष्ट सूचना जायेगी कि भाषा संबंधी नीतियों के पीछे अंग्रेजी की ‘नवसाम्राज्यवादी‘ शक्तियां दृढ़ता के साथ काम कर रही हैं।

प्रभु जोशी
4,संवाद नगर
इन्दौर
094253-46356

शुक्रवार, 15 अक्तूबर 2010

हमारी महत्वाकांक्षा सदा बनी रहे

किताबों की संख्या भले ही कम हो परंतु वे अच्छी ज़रूर हों.हमारी अलमारियों में घटिया पुस्तकों के लिए कोई स्थान नहीं.किसी को भी यह अधिकार नहीं कि वह पाठकों का वक्त जाया करे.इमानदार श्रमिकों के अवकाश का हनन करे.

केवल वही आदमी किसी को सिखा सकता है जो स्वयं उससे अधिक जानता हो.

लेखक का कर्तव्य है कि वह पूँजीवाद के बचे-खुचे प्रभावों को जड़ों से उखाड़ फेंके जो अब तक लोगों के मस्तिष्क में छाए हुए हैं.

आज का हमारा पाठक एक कठोर और निर्मम आलोचक हो गया है.कोई भी उसे भूसा खिलाने की कोशिश न करे.जनता को बेवकूपफ़ बनाना असंभव है.इससे काम नहीं चलेगा.हमारा पाठक हमारी रचना में जहां कहीं भी कोई बात झूठी,कुटिल या कृत्रिम देखेगा उसे फौरन पकड़ लेगा.वह आपकी किताब अन्त तक पढ़ेगा भी नहीं,उसे फेंक देगा,उसकी निंदा करेगा.और बाद में जिस किसी से बात करेगा,आपकी बुराई करेगा.और जब एक बार आप अपनी प्रतिष्ठा खो बैठे तो दोबारा वह मिलने की नहीं.

लेखक के ऊँचे पद को हमें सोवियत भूमि में ऊँचा ही बनाए रखना होगा.और यह केवल सच्चे श्रम,अथक परिश्रम,अपनी शक्ति के हर कण से-शारीरिक तथा नैतिक,अनवरत अध्ययन से,निर्माण-संघर्ष में स्वयं भाग लेने से ही संभव है,तभी लेखक सबसे आगे की पंक्ति में अपना स्थान बना सकता है.पिछली सफलताओं तथा ख्याति पर संतुष्ट होकर बैठ जाने से काम नहीं चलेगा.हमारे देश के अग्रगामी लोग,स्ताख़ानोवपंथी,कभी अपनी सफलताओं से संतुष्ट होकर बैठ नहीं जाते.वे अपने वीरतापूर्ण काम द्वारा श्रम-क्षेत्र में अपना नेतृत्व बनाए रखते हैं.यह उनके लिए एक गौरव की बात हो गई है.पर बहुत से लेखक एक अच्छी किताब लिखने के बाद अपनी प्रशंसा से संतुष्ट हो बैठ जाते हैं.ज़िंदगी की रफ्तार तेज़ होती है.गतिहीनता को जीवन कभी क्षमा नहीं करता.और जीवन की गति ऐसे लेखकों को पीछे छोड़ जाती है.यही उनकी दुखांत कहानी बनती है.

निकोलाई ओस्त्रोव्सकी

शुक्रवार, 24 सितंबर 2010

मैं फैजान,आपसे अपनी ज़िंदगी के कुछ अच्छे और बुरे क्षण बाँटना चाहता हूँ.


यह फैजान ने लिखा है.फैजान दसवीं में पढ़ रहे हैं.इसे पढ़कर ही आप अंदाज़ा लगाइए कि फैजान कैसे हैं.कितना सोचते और याद रखते है.उनके बारे में कुछ साधारण बातें यह हैं कि पढ़ने में अच्छे हैं.शिक्षकों के दिए काम नियत समय पर करते हैं.घर में इकलौते हैं.कभी किसी को शिक़ायत का मौका नहीं देते.इसे सुनकर कक्षा के छात्र-छात्राओं की टिप्पणी थी कि फैजान लेखक बनेगा.आप भी अपनी राय ज़रूर बताएँ.


तब मैं उड़ीसा में रहता था.हालांकि मेरा जन्म भिलाई,म.प्र. में हुआ.पिताजी के स्थानांतरण के बाद हम सब उड़ीसा आ गए थे.मैं उस समय छोटा था इसलिए इसलिए मेरी सारी यादें धुँधली हैं.मैं बहुत प्रेम और दुलार में रहा.मुझे अपने पड़ोस की उस बूढ़ी दादी की बहुत याद आती है जो 10 दिन तक अस्पताल में रहकर मेरी देखभाल करती रही थी.हमारा उनसे कोई रिश्ता-नाता नहीं था.वे हमारी कुछ भी नहीं लगती थी.मगर उन्होंने वह किया जो कोई सगा भी हमारे साथ नहीं करेगा.

मैं बचपन में हट्टा-कट्टा था.मेरी लंबाई अपनी उम्र के बच्चों से बड़ी थी.इसलिए जब भी मुझसे कोई मेरे साल पूछता तो मेरी दादी मेरी उम्र बढ़ाकर बतातीं थीं.मेरे शरीर पर कपड़े हों या न हों एक काला टीका ज़रूर होता था.मेरी दादी पुराने खयालात की थी.वे अँधविश्वासों में यक़ीन करतीं थीं.इसलिए मेरी एक कुंडली बनी.मैं सबका दुलारा था.खासकर अपने पापा का.पापा मुझसे कहा करते-पहली बार कोई बच्चा बोलता है तो मुह से माँ निकलता है मगर मैंने पापा कहा था.दुनिया से हटकर मैं काम करता था.मेरे पिताजी भी दुनियादारी से हटकर चलनेवालों में से हैं.वे चाहते थे कि उनका बेटा मज़बूत बने.दुनिया की हर परिस्थिति का सामना करे.चाहे वह दुख हो या सुख सबको क़रीब से देखे.मेरी दादी पिताजी को डाँटती रहतीं थीं.

मेरे पिताजी बहुत अनुशासनवाले थे.इसलिए उन्होंने एक बार मुझे चांटा मारा,ताकि मैं चुप हो जाऊँ.दादी मेरे पिताजी को कहती थीं-कोढ़ी तेरा हाथ जल जाए.मेरे पिताजी जाकर मेरी दादी का महँह सूँघकर उनका गुस्सा शांत करते थे.मैं पिताजी के दोस्तों का भी दुलारा था. मेरी माँ.मुझे दरवाजे पर छोड़कर काम पर लौट जाती थी.जब आती तो मुझे न पाकर हैरान हो जाती थी.बाद में देखती तो मैं पापा के दोस्तों के कंधों पर घूम रहा होता था..इंसपेक्शन का दिन होता तो मेरे पिताजी मुझे पुलिस की वर्दी पहनाकर DIG का स्वागत करने के लिए खड़ा कर देते थे.ट्रेनिंग ले रहे भैया लोग भी मुझे बैरकों में ले जाकर मेरे गाल खींचा करते.

सब कुछ अच्छा चल रहा था.मगर मैं उस रात को कभी नहीं भूल पाऊँगा.जब सरकार ने खबर दी कि पारादीप में बाढ़ आनेवाली है.समुद्र से ज्यादा दूर नहीं थी वह जगह इसलिए वहाँ खतरा बहुत ज्यादा था.मेरे चाचाजी तब साथ थे.वे उस खबर को टालकर सो गए.मगर पिताजी उस रात जागते रहे.ठीक 12.47 मिनट पर बरगद का पेड़ सामनेवाले मेस पर गिरा.मेस वह जगह थी जहाँ से ट्रेनीस खाना लेते थे.पेड़ गिरने की बात से मेरे पिताजी ने आपा खो दिया.उन्होंने जल्दी-जल्दी माँ और चाचा को जगाया.बोरी-बिस्तर बाँधकर सामने के दोमंजिला घर में घुस गए.वर्षा ज़ोरों से होने लगी.पिताजी जब घर लौटे तो उन्होंने देखा कि चोर घुस आए हैं.पिताजी को देखकर वे भाग गए.फ्रिज,खटिया,टीवी सब पानी में तैर रहे थे.पिताजी ने एक डंडा,टॉर्च और कुछ ज़रूरत की चीज़ें लीं और घर-घर जाकर बाढ़ की सूचना देने लगे.सब मतलब वे दो सौ आदमी जो वहाँ रहते थे..सब उसी पक्के घर में आ गए थे.मैंने देखा था कई फीट ऊँची पानी की लहर जब उस घर से टकराई तो सब कुछ हिल गया था.सब जगह पानी ही पानी था.न लोग बाहर जा सकते थे न बाहर .भीड़ इतनी ज्यादा थी कि कुछ लोग वहीं दबकर मर गए.उस समय लोगों में घृणा या नफ़रत नहीं थी.सब एक ही जगह एक-दूसरे की जान बचाने में लगे थे.

उस समय कुछ भी मुमकिन था.लोग दो दिन तक बिना खाए जी रहे थे.आलू के दाम आसमान छू रहे थे..एक किलो आलू सौ रुपये में मिल रहा था.मजबूरन कुछ लोग खरीदते तो कुछ चोरी करते.कुछ लोग दुकानों के ताले तोड़ सामान चुरा लिया करते थे.मुझे वह सब अब भी याद है जब मेरी बातों को सुन पिताजी की आँखें नम हो गईं थी.मैंने पिताजी को कहा बस दो मुह खाना दे दो.और मैं कुछ नहीं माँगूगा.पिताजी अपने मासूम बच्चे की बात सुन दोस्त से खाना मांग लाए थे और मुझे दिया था.पर खुद भूखे रहे.लोग भी इतने भूखे थे कि कच्ची मछली भी खा लेते थे.सारी जगह मौत का मंजर था.

एक आदमी की राशन की दुकान थी.वह इतना दयालु था कि अपनी दुकान से सबको चावल दाल दिया.और वह भी फ्री में.लोगों ने खिचड़ी बनाकर खायी.जब बाढ़ चली गई तब सबकुछ तहस नहस हो चुका था.वह मुसीबत पूरी तरह टली ही नहीं थी कि एक और हादसा हुआ.पास ही में सिलेंडर फट जाने से ज़हरीली गैस फैल गई.सब लोग जान बचाकर भागने लगे.पिताजी ने दरवाज़ा बंद कर लिया.खिड़की झरोखों में कपड़ा लगा दिया.मम्मी से बोले कि कपड़े से अपना और मेरा मुँह अच्छे से ढँक लो.जब यह घटना टली तो लोगों की क़दम-क़दम पर लाशें मिलीं.कोई अनाथ तो कोई विधवा थी.सरकार ने बचे हुए लोगों की मदद की.पिताजी को नवीन पटनायक द्वारा मेडल मिला.

उस जगह का पूरा नक्शा ही बिगड़ गया था.पूरी जगह को मुंडली नामक जगह में शिफ्ट कर दिया गया.वहाँ से मेरा स्कूल 29 किलोमीटर था.मैं बस से अपने स्कूल जाया करता.वह एक अच्छी जगह थी.उसे पहाड़ काटकर बनवाया गया था.इसलिए दूर दूर तक दुकानें नहीं थी.वहाँ मुझे पढ़ाई में भी दुविधा थी.वहां न तो कोई पढ़ानेवाला था न किताबें मिल पाती थीं.मैं पहले जिस स्कूल में जाया करता था वह उधर भवन में चलता था.लेकिन जब बच्चे ज्यादा आने लगे तो खुद का भवन बनवाया गया.वह एक बड़ी इमारत थी.उसके सभी कमरे हवादार थे.वहाँ मेरे बहुत अच्छे दोस्त बने थे.हम सब बहुत मज़ा करते.

फिर पिताजी की पोस्टिंग चेन्नई हुई.एक बार तो नाम सुनकर उसका मतलब ढूँढने की कोशिश की.मगर चेन्नई का कोई अर्थ नहीं मिला.पिताजी को जल्द ही वहाँ से आउट कर दिया गया.मगर चेन्नई आने पर पिताजी को रहने को घर नहीं मिला.इसलिए हमें पिताजी से दूर भाड़े पर घर लेकर रहना पड़ा.वहाँ से मेरा स्कूल पाँच मिनट की दूरी पर था.वहाँ मुझे बहुत अनुभव हुए .कुछ महींनों बाद हमें चेन्ई में घर मिल गया.और हम चेन्नई के लिए रवाना हो गए.यह मेरी ज़िंदगी की पहली ट्रेन यात्रा थी इसलिए मैं बहुत भावुक था.मुझे डर लग रहा था कि हादसा न हो जाए.मगर कुछ नहीं हुआ.मैं आखिरकार चेन्नई पहुँच गया.तब पता चला कि एक और लोकल ट्रेन पकड़नी है.कई घंटे ट्रेन में बैठे हुए जब मैं ज़मीन में उतरा था तो ऐसा लगा कि अभी भी ट्रेन चल रही है.मैं अपने घर गया और स्कूल में मेरा दाखिला हुआ.

मेरे लिए यह डरावना था कि मैं स्कूल पहुँचा तो मुझे पता ही नहीं था कि मेरी आठवीं कक्षा कौन सी है.मैं घबराया हुआ था.डरते हुए एक सर से पूछा-सर आठवीं कक्षा कहाँ है?वह मुझे कक्षा के पास ले गए और एक लड़के के पास छोड़ दिया.उसका नाम उन्नी कृष्णन था.वह मुझे कक्षा में ले गया.मैं जब कक्षा में गया तो हैरान रह गया कि इतने ही छात्र कक्षा में पढ़ते हैं...

सैयद फैजान अहमद
केन्द्रीय विद्यालय तक्कोलम

सोमवार, 20 सितंबर 2010

‘फायनल असाल्ट ऑन हिन्दी‘:प्रभु जोशी


हिंदी का क्रियोलीकरण (हिंग्लिशीकरण) कितनी गंभीर समस्या है तथा यह किन साम्राज्यवादी सुनियोजित नीतियों का प्रतिफल है इसे प्रभु जोशी पिछले कई सालों से लगातार अपने भाषणों तथा लेखों में दो-टूक उदघाटित करते आ रहे है.इस संबंध में उनके कथादेश में प्रकाशित दो लेख-इसलिए हिंदी को विदा करना चाहते हैं हिंदी के कुछ अखबार तथा डोमाजी उस्ताद मारो स्साली को दस्तावेज जैसे हैं.बीते 14 सितंबर को हिंदी दिवस के अवसर पर लेखक का प्रतिरोध तब कार्य मुखर और आंदोलन की शक्ल में सामने आया जब उनकी अगुवाई में इंदौर के लेखकों,बुद्धिजीवियों ने गांधी प्रतिमा के सामने बीस से अधिक हिंदी अखबारों की होली जलायी.यह विरोध अखबार विरोध नहीं था(हालांकि दुर्भाग्य से मीडिया का एकतरफ़ा वर्चस्व इसे इसी रूप में दफ़नाने में क़ामयाब दिखा)बल्कि प्रतिकात्मक रूप से अखबारों की उस स्वेच्छाचारिता के खिलाफ़ आवाज़ थी कि अखबारों द्वारा ज़ारी बेलगाम हिंग्लिशीकरण बंद हो.क्रियोलीकरण के पीछे चली आती देवनागरी को विस्थापित कर रोमन लाने की कूटनीति,प्रायोजित बौद्धिकी असफल हो.वास्तव में यह अपनी भाषा,लिपि बचाने की एक वाजिब,पूर्वग्रहरहित मांग थी जिसका मीडिया से भयाक्रांत समाज ने नोटिस तक नहीं लिया.कुछ आतुर-अंध विकासवादियों ने दकियानूसी,निदनीय पहल साबित करने में भी वर्चुअल स्पेस का पूरा फायदा उठाया.नीचे जो लेख आप पढ़ेंगे उसकी इतनी लंबी भूमिका शायद उचित न लगे.मेरी भी असहमति अपनी जगह है ही कि इस लेख का शीर्षक,अनेक उद्धरण अँगरेज़ी में क्यों हैं (हालांकि जोशी जी इसे भास्कर के लिए लिखे गए सीमित शब्दसीमा होने की बाध्यता से जस्टीफ़ाई करते हैं) पर इसके बावजूद इस लेख और प्रभु जोशी जी की समग्र चिंता से मैं खुद को गहरे जुड़ा हुआ पाता हूँ.मैं भी सोचता हूँ यह लड़ाई जीतने तक ज़ारी रहे.आप क्या कहते हैं?-ब्लॉगर

सातवें दशक के उत्तरार्द्ध में प्रकाशित एल्विन टॉफलर की पुस्तक ‘तीसरी लहर‘ के अध्याय ‘बड़े राष्ट्रों के विघटन‘ को पढ़ते हुए किसी को भी कोई कल्पना तक नहीं थी कि एक दिन रूस में गोर्बाचोव नामक एक करिश्माई नेता प्रकट होगा और ‘पेरोस्त्रोइका‘ तथा ‘ग्लासनोस्त‘ जैसी अवधारणा के नाम से ‘अधिरचना‘ के बजाय ‘आधार‘ में परिवर्तन की नीतियां लागू करेगा और सत्तर वर्षों से महाशक्ति के रूप में खड़े देश के सोलह टुकड़े हो जायेंगे। अलबत्ता, राजनीतिक टिप्पणीकारों द्वारा उस अध्याय की व्याख्या ‘बौद्धिक अतिरेक‘ से उपजी भय की ‘स्वैर-कल्पना‘ की तरह की गयी थी। लेकिन, लगभग ‘स्वैर-कल्पना‘ सी जान पड़ने वाली वह ‘भविष्योक्ति‘ मात्र दस वर्षों के भीतर ही सत्य सिद्ध हो गयी। बताया जाता है कि उन ‘क्रांतिकारी‘ अवधारणाओं के जनक अब एक बहुराष्ट्रीय निगम से सम्बद्ध हैं।

हमारे यहां भी नब्बे के दशक में ‘आधार‘ में परिवर्तन को ‘उदारीकरण‘ जैसे पद के अन्तर्गत ‘अर्थव्यवस्था‘ में एकाएक उलटफेर करते हुए, बहुराष्ट्रीय निगमों तथा उनकी अपार पूंजी के प्रवाह के लिए जगह बनाना शुरू कर दी गयी। कहने की जरूरत नहीं कि ऐसी निगमें और उनकी पूंजी विकसित राष्ट्रों के नव-उपनिवेशवादी मंसूबों को पूरा करने के अपराजेय और अचूक शक्ति केन्द्र हैं, जिसका सर्वाधिक कारगर हथियार है, ‘कल्चरल इकोनॉमी‘ और जिसके अन्तर्गत वे ‘सूचना‘, ‘संचार‘, ‘फिल्म-संगीत‘ और ‘साहित्य‘ के जरिये ‘अधोरचना‘ में सेंध लगाते हैं। और फिर धीरे-धीरे उसे पूरी तरह ध्वस्त कर देते हैं। नव उपनिवेश के शिल्पकार कहते हैं, ‘नाऊ वी डोण्ट इण्टर अ कण्ट्री विथ गनबोट्स, रादर विथ लैंग्विज एण्ड कल्चर‘। पहले वे अफ्रीकी राष्ट्रों में उनको ‘सभ्य‘ बनाने के उद्घोष के साथ गये और उनकी तमाम भाषाएं नष्ट कर दीं। ‘वी आर द नेशन विथ लैंग्विज व्हेयरएज दे आर ट्राइब्स विथ डायलेक्ट्स‘। लेकिन, भारत में वे इस बार ‘उदारीकरण‘ के बहानेख् उसे ‘सम्पन्न‘ बनाने के प्रस्ताव के साथ आये हैं। उनको पता था कि हजारों वर्षों के ‘व्याकरण-सम्मत‘ आधार पर खड़ी ‘भारतीय भाषाओं‘ को नष्ट करना थोड़ा कठिन है। पिछली बार, वे अपनी ‘भाषा को भाषा‘ की तरह प्रचारित करके तथा ‘भाषा को शिक्षा-समस्या‘ के आवरण में रखकर भी, भारतीय भाषाओं के नष्ट नहीं कर पाये थे। उल्टे उनका अनुभव रहा कि भारतीयों ने ‘व्याकरण‘ के ज़रिये एक ‘किताबी भाषा‘ (अंग्रेजी) सीखी। ज्ञान अर्जित किया, लेकिन उसे अपने जीवन से बाहर ही रख छोड़ा। उन्होंने देखा, चिकित्सा-शिक्षा का छात्र स्वर्ण-पदक से उत्तीर्ण होकर श्रेष्ठ ‘शल्य-चिकित्सक‘ बन जाता है, लेकिन ‘उनकी‘ भद्र-भाषा उसके जीवन के भीतर नहीं उतर पाती है। तब यह तय किया गया कि ‘अंग्रेजी‘ भारत में तभी अपना ‘भाषिक साम्राज्य‘ खड़ा कर पायेगी, जब वह ‘कल्चर‘ के साथ जायेगी। नतीज़तन, अब प्रथमतः सारा जोर केवल ‘भाषा‘ नहीं बल्कि, सम्पूर्ण ‘कल्चरल-इकोनामी‘ पर एकाग्र कर दिया गया। इस तरह उन्होंने भाषा के प्रचार को इस बार, ‘लिंग्विसिज्म‘ कहा, जिसका, सबसे पहला और अंतिम शिकार भारतीय ‘युवा‘ को बनाया जाना, कूटनीतिक रूप से सुनिश्चित किया गया।

बहरहाल, भारत में अफ्रीकी राष्ट्रों की तर्ज पर सबसे पहले एफ.एम. रेडियो के जरिये ‘यूथ-कल्चर‘ का एक आकर्षक राष्ट्रव्यापी ‘मिथ‘ खड़ा किया गया, जिसका अभीष्ट युवा पीढ़ी में अंग्रेजी के प्रति अदम्य उन्माद तथा पश्चिम के ‘सांस्कृतिक उद्योग‘ की फूहड़ता से निकली ‘यूरो-ट्रैश‘ किस्म की रूचि के ‘अमेरिकाना मिक्स‘ से बनने वाली ‘लाइफ स्टाइल‘ (जीवन शैली) को ‘यूथ-कल्चर‘ की तरह ऐसा प्रतिमानीकरण करना कि वह अपनी ‘देशज भाषा‘ और ‘सामाजिक-परम्परा‘ को निर्ममता से खारिज करने लगे। यहां पुरानी ‘रॉयल चार्टर‘ वाली सावधानी नहीं थी ‘दे शुड नॉट रिजेक्ट ‘ब्रिटिश कल्चर‘ इन फेवर ऑफ देअर ट्रेडिशनल वेल्यूज।‘ खात्मा जरूरी है, लेकिन, ‘विथ सिम्पैथेटिक एप्रिसिएशन ऑव देयर कल्चर।‘ इट मस्ट बी लाइक अ डिवाइन इन्टरवेशन। नतीजतन, अब सिद्धान्तिकी ‘डायरेक्ट इनवेजन‘ की है। ‘देयर स्ट्रांग एडहरेंस टू मदरटंग्स‘ हेज टु बी रप्चर्ड थ्रू दि प्रोसेस ऑव ‘क्रियोलाइजेशन‘ (जिसे वे रि-लिंग्विफिकेशन ऑव नेटिव लैंग्विजेसेस‘ कहते हैं)।

क्रियोलीकरण का अर्थ, सबसे पहले उस देशज भाषा से उसका व्याकरण छीनो फिर उसमें ‘डिस्लोकेशन ऑव वक्युब्लरि‘ के जरिए उसके ‘मूल‘ शब्दों का ‘वर्चस्ववादी‘ भाषा के शब्दों से विस्थापन इस सीमा तक करो कि वाक्य में केवल ‘फंक्शनल वर्डस्‘ (कारक) भर रह जायें। तब भाषा का ये रूप बनेगा। ‘यूनिवर्सिटी द्वारा अभी तक स्टूडेण्ट्स को मार्कशीट इश्यू न किये जाने को लेकर कैम्पस में वी.सी. के अगेंस्ट जो प्रोटेस्ट हुआ, उससे ला एण्ड आर्डर की क्रिटिकल सिचुएशन बन गई (इसे वे फ्रेश-लिंग्विस्टिक लाइफ कहते हैं)।
उनका कहना है कि भाषा के इस रूप तक पहुंचा देने का अर्थ यह है कि नाऊ द लैंग्विज इज रेडी फार स्मूथ ट्रांजिशन।‘ बाद इसके, अंतिम पायदान है-‘फायनल असाल्ट ऑन लैंग्विज।‘ अर्थात् इस ‘क्रियोल‘ बन चुकी स्थानीय भाषा को रोमन में लिखने की शुरूआत कर दी जाये। यह भाषा के खात्मे की अंतिम घोषणा होगी और मात्र एक ही पीढ़ी के भीतर।

बहरहाल, हिन्दी का ‘क्रियोलाइजेशन‘ (हिंग्लिशीकरण) हमारे यहां सर्वप्रथम एफ.एम. ब्रॉडकास्ट के जरिये शुरू हुआ और यह फार्मूला तुरन्त देश भर के तमाम हिन्दी के अखबारों में (जनसत्ता को छोड़कर) सम्पादकों नहीं, युवा मालिकों के कठोर निर्देशों पर लागू कर दिया गया। सन् 1998 में मैंने इसके विरूद्ध लिखा ‘भारत में हिन्दी के विकास की सर्वाधिक महत्वपूर्ण भूमिका जिस प्रेस ने निभायी थी, आज वही प्रेस उसके विनाश के अभियान में कमरकस के भिड़ गयी है। जैसे उसने हिन्दी की हत्या की सुपारी ले रखी हो। और, इसकी अंतिम परिणति में ‘देवनागरी‘ से ‘रोमन‘ करने का मुद्दा उठाया जायेगा।’ क्योंकि, यह फार्मूला भाषिक उपनिवेशवाद (‘लिंग्विस्टिक इम्पीयरिलिज्म‘) वाली ताकतें अफ्रीकी राष्ट्रों की भाषाओं के खात्मे में सफलता से आजमा चुकी हैं। आज ‘रोमन लिपि‘ को बहस में लाया जा रहा है। अब बारी भारतीय भाषाओं की आमतौर पर लेकिन हिन्दी की खासतौर पर है। हिन्दी के क्रियोलीकरण की निःशुल्क सलाह देने वाले लोगों की तर्कों के तीरों से लैस एक पूरी फौज भारत के भीतर अलग-अलग मुखौटे लगाये काम कर रही है, जो वर्ल्ड बैंक, आई.एम.एफ., ब्रिटिश कौंसिल, बी.बी.सी., डब्ल्यू.टी.ओ., फोर्ड फाउण्डेशन जैसी संस्थाओं के हितों के लिए निरापद राजमार्ग बना रही हैं।

नव उपनिवेशवादी ताकतें चाहती हैं, ‘रोल ऑव गव्हमेण्ट आर्गेनाइजेशंस शुड बी इन्क्रीज्ड इन प्रमोटिंग डॉमिनेण्ट लैंग्विज। हमारा ज्ञान आयोग पूरी निर्लज्जता के साथ उनकी इच्छापूर्ति के लिए पूरे देश के प्राथमिक विद्यालयों से ही अंग्रेजी की पढ़ाई अनिवार्य करना चाहता है। यह भाषा का विखण्डन नहीं, बल्कि नहीं संभल सके तो निश्चय ही यह एक दूरगामी विराट विखण्डन की पूर्व पीठिका होगी। इसे केवल ‘भाषा भर का मामला‘ मान लेने या कहने वाला कोई निपट मूर्ख व्यक्ति हो सकता है, ऐतिहासिक-समझ वाला व्यक्ति तो कतई नहीं।

अंत में मुझे नेहरू की याद आती है, जिन्होंने जान ग्रालब्रेथ के समक्ष अपने भीतर की पीड़ा और पश्चाताप को प्रकट करते हुए गहरी ग्लानि के साथ कहा था ‘आयम द लास्ट इंग्लिश प्राइममिनिस्टर ऑव इंडिया।’ निश्चय ही आने वाला समय उनकी ग्लानि के विसर्जन का समय होगा। क्योंकि, आने वाले समय में पूरा देश ‘इंगलिश‘ और ‘अमेरिकन‘ होगा। पता नहीं, हर जगह सिर्फ अंग्रेजी में उद्बोधन देने वाले प्रधानमंत्री के लिए यह प्रसन्नता का कारण होगा या कि नहीं, लेकिन निश्चय ही वे दरवाजों को धड़ाधड़ खोलने के उत्साह से भरे पगड़ी में गोर्बाचोव तो नहीं ही होंगे। अंग्रेजी, उनका मोह है या विवशता यह वे खुद ही बता सकते हैं।

यहां संसार भर की तमाम भाषाओं की लिपियों की तुलना में देवनागरी लिपि की स्वयंसिद्ध श्रेष्ठता के बखान की जरूरत नहीं है। और हिन्दी की लिपि के संदर्भ में फैसला आजादी के समय हो चुका है। रोमन की तो बात करना ही देश और समाज के साथ धोखा होगा। अब तो बात रोमन लिपि की वकालत के षड्यंत्र के विरूद्ध, घरों से बाहर आकर एकजुट होने की है- वर्ना, हम इस लांछन के साथ इस संसार से विदा होंगे कि हमारी भाषा का गला हमारे सामने ही निर्ममता से घोंटा जा रहा था और हम अपनी अश्लील चुप्पी के आवरण में मुंह छुपाये वह जघन्य घटना बगैर उत्तेजित हुए चुपचाप देखते रहे।
(सीमित शब्द संख्या के बंधन के कारण अंग्रेजी शब्दों और वाक्यांशों का हिन्दी रूपांतर नहीं दिया जा रहा है।)



-प्रभु जोशी
4-संवाद नगर,नवलखा
इंदौर