बुधवार, 23 दिसंबर 2009

नाम

एक लड़की गाँव में
उपले पाथती हुई
लिखती है उस चरवाहे का नाम
जो उसे सबसे सुंदर समझता है
चोरी से दिए गोबर के बदले
उससे कुछ नहीं चाहता.

वह रात दिन उसके सपने देखती है
घर लीपते हुए
रोटी सेंकते हुए.

उसके होठों में वही गुनगुनाता है
उसकी आँखों में वही मुस्कुराता है

धीरे धीरे कड़ी धूप में सूख जाते हैं उपले
सूख जाता है उनमें उकेरा हुआ नाम
एक दिन गोबर से पीले हुए लड़की के हाथ
हल्दी की चटख में खो जाते हैं.

फिर तो चूल्हे में लगते हैं उपले
लड़की के सीने में सुलगता है नाम
धुँआती हैं आँखें जीवन भर.

(जब मैंने यह कविता लिखी मैं मीना को नहीं जानता था.अगर बाद में मैंने चंदन पाण्डेय की कहानी:रेखाचित्र में धोखे की भूमिका,नहीं पढ़ी होती तो मैं मीना को जान ही नहीं पाता.कहानी की किसी लड़की को बिना कहानी पढ़े कोई जान भी कैसे सकता है?अब जबकि मैं मीना को जानता हूँ मेरे जानने में मीना को नहीं भूल पाने तथा अपनी जानी लड़कियों में उसका मजबूर चेहरा देख लेने की अनिवार्यता शामिल हो गई है.यह लड़की मुझे कहानी की लड़की लगती ही नहीं.मैं मीना के बारे में उसे कहानी में मिली जिंदगी से आगे सोचता रहा हूँ.मैं कभी कभी किसी लड़की को मीना कहते कहते रह जाता हूँ,बस यह दुआ ऐसा करने से रोक लेती है मुझे कि नारायण को फिर मरना न पड़े.क्योंकि बोली ह्ई बातें कभी कभी भयानक रूप से सच हो जाती हैं.इस वक्त मैं ऐसा आदमी होता हूँ जो मीना को तो माफ़ कर देता है पर उसी पल नारायण के लिए ज़्यादा उदास हो जाता है.अंत की इस भूमिका में यह भी जोड़ ही दूँ कि आप जब मीना को जानेंगे तो इसे मीना से थोड़ी खुशनसीब लड़कियों के लिए लिखी गई कविता समझेंगे.इसमें मुझे ऐतराज़ नहीं)

गुरुवार, 17 दिसंबर 2009

एक बार पालतू हो जाने के बाद

कल शाम सड़क पर हाथी देखा.

रास्ता चलते हाथी दिख जाए तो शुभ होता है
मानते हैं लोग.

मैंने ग़ौर से देखा हाथी को कल
महावत की शाही बैठक
हाथी की अधीन चाल.

जड़ रहा था लात महावत हाथी की गर्दन पर
प्रणाम कर रहे थे आते जाते लोग
धीमे-धीमे हिलता हुआ जा रहा था हाथी.

बड़े से बड़ा क़द भी उधर ही जाने लगता है
जिधर ठेली जाती है गर्दन.

मैने देखा
पालतू बना धरती का सबसे बड़ा जीव
तो सिर से लतियाया जा रहा है
पूज रही है दुनिया.

आदमी का जवाब नहीं
बन सकता है महावत
बना लेता है किसी को भी पालतू.

केवल पेट-पीठ रह जाते हैं
एक बार पालतू हो जाने के बाद.

सोमवार, 14 दिसंबर 2009

समझौता

दिवाकर पत्नी से दुखी रहनेवाले किंतु दांम्पत्य से संतुष्ट व्यक्ति हैं.एक ही बेटा है जो इंजीनियरिंग की पढ़ाई के लिए हैदराबाद में रहता है.

दिवाकर की तकलीफ़ है कि करुणा मोबाईल पर ही टिकी रहती है सारा समय.हालांकि तसल्ली की बात ये है कि वह अपने काम,ज़िम्मेंदारियाँ समय से पूरे कर लेती है.उन्हें यह अखरता है कि उनकी पत्नी जिससे वे मनुष्य होने के नाते कभी कभी एकनिष्ठता की उम्मीद कर बैठते हैं पुरुष मित्रों के संपर्क में ज़्यादा रहती है.यह भी वे बर्दाशत कर ही लेते हैं क्योंकि उनकी भी कई महिला मित्र हैं.

उनके लिए असह्य यह आरोप होता है कि करुणा का यह स्वभाव नहीं.उसने तो प्रतिक्रिया में,बदला लेने के लिए यह सब शुरू किया है.

करुणा को लगता रहा है कि समर्पण के सहारे दिवाकर को सिर्फ़ अपना बनाकर नहीं रखा जा सकता.वह अपनी सारी स्वाभाविक एकांत फंतासियों का गला घोटते आते आखीर में वहीं तो पहुँची जहाँ एक अन-अपेक्षित करवट भी संदेह का वनवास रच देती है.वैवाहिक जीवन में एक समय के बाद पत्नी के आँसुओं से भी निस्पृह रहने लगता है पुरुष.यह जानकर ही तो उसने अपने भावात्मक एकांत चुनने शुरू किए.समझते हुए कि मरीचिका ही है यह.पर भरोसे ही कहाँ रहे अमिट?

पर करुणा की ज़िंदगी में कुछ पुरुषों की दोस्ती गहरे अर्थ रखती है,ऐसा दिवाकर सोचते हैं.सोच लेते हैं तो विचलित हो जाते हैं कभी कभी.दिवाकर यह भी सोचने से खुद को रोक ही लेते अगर उन्हें यह पता नहीं होता कि करुणा ने अपने मोबाईल में कुछ दोस्तों के नाम लड़कियों के नाम से सेव कर रखे हैं.कई बार उनके सामने आ जाने पर करुणा पुरुषों को लड़कियों की तरह संबोधित भी करने लगती है.
-जब मैं दकियानूस नहीं तब यह छल क्यों?
दिवाकर आपे से बाहर हो जाते हैं तब.फिर उनके झगड़े मार-पीट तक खिंच जाते हैं.ज़ाहिर है कमज़ोर ही हारता है के सिद्धांत से करुणा के हिस्से चोटें आती है.जीत से खिसियाया हुआ विजेता होते हैं दिवाकर.

दिवाकर दूरसंचार विभाग में असिस्टैंट इंजीनियर हैं.उन्हीं के ऑफ़िस में गोविंद राव इंजीनियर हैं.दिवाकर,गोविंद राव से नज़दीकी बढ़ाना चाहते हैं.इस कोशिश में वे कई उपहार दे चुके हैं.कई बार घर खाने पर बुलाया.लेकिन गोविंद राव पर्याप्त दुनियादार हैं कोई न कोई बहाना करके टाल जाते हैं.दिवाकर की ज़िद है कैसे भी गोविंदराव का भरोसा हासिल हो.ऐसा हुआ तो उनकी दफ़्तर की मुश्किलें आसान हो जाएँगी.लाभ होंगे जो दिवाकर की नज़र में इस नये ऑफ़िस में करियर की दृष्टि से शुरुआती और अहम होंगे.

एक शाम वे करुणा के साथ मित्र के घर बेटे की जन्म दिन पार्टी में थे.कैसे भी यह बरकरार रखा है दिवाकर ने कि किसी भी दोस्ताना या पारिवारिक आमंत्रण में हों करुणा के साथ होंगे.महीने की एक फ़िल्म भी साथ साथ बिना नागा देखी जाती रही है.हालांकि इसमे कई वजहों से अब दोनों की रुचि घटती जा रही है.वहाँ गोविंदराव का होना अप्रत्याशित था.पर दिवाकर खुश हो गए.उन्होंने आगे बढ़कर गोविंद राव का अभिवादन किया.
-सर आपके यहाँ होने से रौनक बढ़ गयी है.
-थैंक्स.
-सर कभी मेरे घर भी पधारिए.करुणा कई बार कह चुकी है आप कभी घर नहीं आते.

गोविंद राव यह सुनकर संभ्रांत हँसी हँसते हैं.करुणा की त्यौरियाँ चढ़ जाती हैं और दिवाकर करुणा को देखकर सिमट जाते हैं.माहौल असहज न हो जाए यह सोचकर करुणा ही परिस्थिति सम्हालती है.
-हाँ सर कभी आइए न.अच्छा लगेगा.
-देखिए समय निकालूँगा.
अच्छा लगेगा को चुभलाते हुए गोविंद राव आश्वासन दे देते हैं.

लेकिन वहाँ से निकलते निकलते करुणा ने झगड़ना शुरू कर दिया.
-मैंने कब कहा कि उस मराठी चिरकुट को घर बुलाओ?
दिवाकर की कमज़ोर आवाज़ में शर्मिंदगी थी.
-मेरे मुँह से ऐसे ही निकल गया था.
-नहीं तुम मेरा इस्तेमाल करते हो.
करुणा उग्र और रुआँसी हो रही थी.दिवाकर कोई कड़वा जवाब,कोई भेदक ताना सोच ही रहे थे कि अचानक करुणा के चेहरे का भाव ही बदल गया.वह हँसमुख हो उठी.सामने मुस्कुराता हुआ एक युवक था.
-हलो,शुभेश कैसे हो?
-नमस्ते मैडम.बिलकुल अच्छा हूँ.
दिवाकर ने गौर किया चेहरा अपरिचित है पर नाम तो सुना सुना है.उन्हें याद आ गया.करुणा के मोबाईल में यह नाम कई महीनों से है.वे अन्यमनस्क हो गए.दिवाकर ध्यान से सुन रहे थे कि इस थोड़े वक्त में करुणा शुभेश को घर आने का आग्रह कई बार दुहरा चुकी है.उन्होंने यह भी नोट किया कि युवक के बर्ताव में अनिच्छा है पर नज़रों में अभ्यस्त लालसा. इस अभ्यस्त लालसा देख लेने को जीत लेना चाहते हैं दिवाकर.पर जाने कैसी आदिम दुर्बलता उन्हें परास्त करती आ रही है.

वे अपने छोटे से परिवार के प्रति काफ़ी कल्पनाशील होते हैं आमतौर पर.लेकिन घर के बारे में बिल्कुल नहीं सोचना चाहते जब करुणा अकेली होती है वहाँ.कई बार जब वे साथ होते हुए ही उसके अकेले घर में होने को सोच लेते हैं तो ख़ुद को खोखला महसूस करते हैं.विक्षिप्ततों से दिखने लगते हैं. सहसा.करुणा घर में उनकी कमी को पूरी ज़िंदादिली से जीती है जानते हैं वे.यह जानना अपने लिए उनका कवच भी है पर कभी कभी इसके समेत वे कहीं इस तरह विसर्जित हो जाना चाहते है जहाँ किसी की पहुँच न हो.

आमतौर पर स्मृतियों से भरे होते हैं दिवाकर.पर करुणा की कोई याद नहीं कौंधती उनके भीतर.साथ रहना और याद का अनुपस्थित हो जाना.इसे सुलझाना भी नहीं चाहते अब वे.जैसा है चलता रहे तो ही ठीक.
-अब चलो भी.
वे करुणा को झल्लाहट से घूरने लगे. युवक से कहना नहीं भूले
-माफ़ कीजिए ज़रा जल्दी में हूँ.

अब घर लौटते हुए वे झगड़ नहीं रहे थे.उनके व्यवहार में एक दूसरे को माफ़ कर देने का चिर परिचित समझौता उभर आया था.

शुक्रवार, 11 दिसंबर 2009

पेड़ के पास

जब मुझे लगता है
इस दुनिया में मेरा कोई नहीं
कोई मुझे प्यार नहीं करता
मुझे नहीं हराना किसी को
महत्वाकांक्षाओं की दौड़ में
मैं एक पेड़ के पास जाता हूँ.

जब मैं संकल्प दोहराता हूँ
मुझे किसी से कुछ नहीं चाहिए
सिर्फ़ लौटाते रहनी हैं समय को अपनी साँसें
जब दोस्तों के लायक मेरे पास कुछ नहीं होता
मैं एक पेड़ के पास जाता हूँ.

जब मुझे जाना होता है
अपनी धरती से दूर
बहुत दिनों के लिए
मै एक पेड़ के पास जाता हूँ.

मेरे सारे पूर्वज मिलकर
इतने घने नहीं हो सकते
जितना यह पेड़
इसके लिए मैंने कुछ नहीं किया
केवल इसके फल खाते हुए
इसे अपना कहते हुए मैं जवान हुआ.

मैं जब इस पेड़ के पास होता हूँ
छाँव तले होता है मेरा वजूद
हवाएँ मुझे सराबोर कर देती हैं.

जितनी देर मैं पेड़ के पास होता हूँ
पेड़ मुझसे कुछ नहीं कहता
चुपचाप बरसाता है आशीर्वाद.

मैं लौटता हूँ दुनिया में.

बुधवार, 9 दिसंबर 2009

दोस्त की बधाई दुश्मन की दुआ लगती रहें

मनोज कुमार पाण्डेय कथाकार हैं.छुपाकर कविताएँ भी लिखते हैं.समीक्षाएँ तो बाक़ायदा छपाते भी हैं.मनोज कभी तरंग में आकर कविताएँ सुना डालें तो खुद ही शरमा जाते हैं.उनके इस संकोच को देखकर शंका होती है क्या अब सचमुच कविताएँ सुनाना ज़्यादती करने की श्रेणी में आ गया है?कविता के संबंध में लोगों के इस रेसपांस से मंचीय कविता के आलोचक भी सीख सकते हैं.कवि तो ख़ैर थोड़ा सहज लिखें तो कविता-पाठकों दोनों का भला होगा.
मनोज कुमार पाण्डेय शायद कविता में ही अपना मुकाम बनाते अगर इस समय के कल्पनाशील,सफल संपादक रवींद्र कालिया उन्हें कहानियाँ लिखने को नहीं उकसाते.हालांकि मनोज की कहानियाँ पढ़कर कोई भी यही कहेगा-इन्हे कहानीकार ही होना था.मैं भी यही सोचता हूँ.
मनोज कुमार पाण्डेय में मेरी दिलचस्पी पैदा होने की एक यादगार घटना है.2004-05 में जिन दिनों मैं रीवा में एक स्कूल में पढ़ा रहा था;वहाँ वार्षिकोत्सव के लिए एक नाटक तैयार हो रहा था.सुनाई दे रहा था कि नाटक के युवा निर्देशक ख़ासतौर से इस काम के लिए शहर के दूसरे छोर से बुलाए गए हैं.वे युवा निर्देशक अपने ही लोगों के बीच खासे लोकप्रिय थे.उनसे मेरी भी जान पहचान थी.पर उनके समूह में मुझे भाव देने लायक नहीं समझा जाता था.इसीलिए स्कूल में रहते हुए भी मुझे रिहर्सल की भनक नहीं लगी.जब नाटक तैयार हो गया तो समारोह में ही भारी भीड़ के साथ जिसमें नेता,मंत्री भी थे मैने नाटक देखा.नाटक में थीम की ताजगी तथा परिचित अपनी सी कथा स्थितियों ने मुझे प्रभावित किया.नवमीं-दशमीं के छात्रों ने काफी मेहनत की थी.नाटक समाप्त होने पर मैंने निर्देशक को आगे बढ़कर बधाई दी.जिसे उन्होंने अन्यमनस्क मुस्कुराहट के साथ स्वीकार कर लिया.
इसके दो-तीन महीना बाद मुझे वागर्थ का पुराना विशेषांक मिला जिसमें कहानी छपी थी-चंदू भाई नाटक करते हैं.कहानीकार:मनोज कुमार पाण्डेय.कहानी मुझे जानी पहचानी लगी.पढ़ने के बाद तो पूरा नाटक ही याद आ गया.पहले झटके में तो यही लगा कहानीकार नकलची है क्या.अपना निर्देशक तो ऊँची चीज़ निकला.तुरंत चेक करने लगा.तारीखें मिलाईं.नतीज़ा निकला;युवा निर्देशक ने चोरी की है.समकालीन लेखन से अपरिचित लोग शायद इसे कभी जान ही न पाएँ.मैंने इस बार निर्देशक से मिलने की किंचित आक्रोश भरी पहल की.उनसे पूछा-यह तो मनोज कुमार पाण्डेय की कहानी थी,जिसका आपने कहीं ज़िक्र नहीं किया?निर्देशक अध्यात्मिक भी थे.यह कैसी क्षुद्र लौकिक चिंता है वाली निर्लिप्तता से उन्होंने निश्चिंत उत्तर दिया.आपको आम खाने से मतलब कि पेड़ गिनने से?मुझे निर्देशक से उलझने में और ख़तरे भी थे सो मैंने अपनी राह ली.बात आयी गयी हो गयी.अब तो सुना है निर्देशक ने भी राह बदल ली.दूसरी जुगत में रहते हैं.
लेकिन इसके बाद मैंने मनोज को ध्यान से पढ़ना शुरू कर दिया.मेरी नज़र में यह लेखक की बड़ी स्वीकार्यता थी.कहानी छपने के दो तीन महीने के भीतर उसका मंचन हो,खासकर उसी युवा वर्ग द्वारा जिसकी सपनीली असफलताओं को यह कहानी संबोधित है यह उल्लेखनीय बात है.
फिर मैंने मनोज की हर कहानी पढ़ी.नैनीताल में संपन्न हुए संगमन ने हमें आत्मीय होने,एक दूसरे को जानने,अपनी-अपनी कहानी सुनाने का मौक़ा दिया.(वर्तमान कथा जगत में संगमन की कितनी महत्वपूर्ण भूमिका है इस पर अलग से लिखूँगा).वहाँ से जब समृद्ध होकर हम लौट रहे थे तो लखनऊ तक संयोग से ऊपर की आमने सामने की बर्थ हमारी थीं
मनोज कुमार पाण्डेय की इतनी चर्चा करने की वजह यह है कि एक दिन मैं जोड़ रहा था कि इस समय चंदन पाण्डेय,गीत चतुर्वेदी,राकेश मिश्र,अरुण कुमार असफल,गौरीनाथ,कैलाश वनवासी,कुणाल सिंह,उमाशंकर चौधरी,शिल्पी,नीलाक्षी सिंह,अल्पना मिश्र,आदि कहानी की नयी ज़मीन तैयार कर रहे हैं.ये ऐसे कहानीकार हैं जिन्होंने कहानी की संभावना का विस्तार किया है.इन्हीं महत्वपूर्ण कथाकारों के समय में होते-होते इस कहानीकार के खाते में यादगार कहानियों की संख्या आधा दर्जन हो गयी है.विनम्रता पूर्वक बिना किसी आयोजनी प्रयास के.यह लेखकीय उपलब्धि मुझे अच्छी लगती है,प्रिय भी है.हिन्दी कहानी जगत अपनी उदारता के लिए मशहूर है.वह चंद्रधर शर्मा गुलेरी को कुल तीन कहानियों में केवल एक अच्छी कहानी उसने कहा था के लिए सिर आँखों पर बिठाए हुए है.फिर खाल,सोने का सुअर,शहतूत,जींस आदि मनोज की कहानियाँ पीढ़ियों और युवा या स्थापित कथाकारों की सीमाओं,विभाजनों से ऊपर उठकर क्यों नहीं पढ़ी,विश्लेषित की जानी चाहिए?ये ऐसी कहानियाँ हैं जिनका अतिक्रमण करना मनोज के लिए भी चुनौती रहेगी.
मनोज इन अर्थों में मौलिक कथाकार हैं कि उनके यहाँ बाहरी कथा युक्तियाँ नहीं हैं.इनमें बाहरी प्रभाव ढूँढना भी ठीक नहीं होगा.ये क्लासिक पढ़कर कहानियां गढ़ने वाले लेखक नहीं हैं.इस कथाकार की जीवन दृष्टि हमारे बहुत काम की है.इनकी कहानियों की जो कलात्मकता है वो ऐसे देखी जानी चाहिए-यथार्थ का कैनवस,स्मृति के रंग और रूपकों के जीवन से भरे चित्र.इनकी कहानियों के चरित्र पूरे परिवेश से अंत:क्रिया करते हैं.वे परिवेश को जीवंतता के साथ हमारे सामने जैसे उजागर कर देते हैं.यह परिवेश यथार्थ का समकालीन आख्यान बनकर हमें अपनी मौजूदगी का भी एहसास कराता है.इनके चरित्र मनुष्यों की तरह सांस लेते हैं उन्हें आइडिया के आक्सीजन पर नहीं रखते मनोज.इनकी कथा भाषा में सादगी है,संयत सांसों के प्रवहमान वाक्य किस्सागोई में ले जाते हैं.इसी किस्सागोई के सुंदर इस्तेमाल से मनोज ने न केवल रूपकों को सफलता पूर्वक निबाहा है वल्कि नये रूपक रचे भी हैं.यक़ीन न हो तो जींस कहानी पढ़कर देखिए.यह केवल शीर्षक नहीं आइने के बाद कहानी में दूसरा रूपक है.गिनकर देख लीजिए कितने कथाकारों के यहाँ ताजे रूपक हैं?
ठीक इसी दिन मनोज का फ़ोन आया.उनसे बातचीत में पता चला उन्हें राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के श्रुति कार्यक्रम में कहानी पाठ का आमंत्रण मिला है.साथ ही किसी एक कहानी का मंचन भी होगा.
यह कार्यक्रम हो चुका.मनोज ने वहाँ कहानी सोने का सुअर पढ़ी.खाल का मंचन हुआ.
अब अपनी इस देर की बधाई के लिए मैं क्या कहूँ?
लेकिन मेरे पास एक सच्ची वजह है.तब मेरा यह ब्लाग अस्तित्व में नहीं था.मैं इस अच्छे कथाकार को बधाई लिखता भी तो कौन छापता?पर अब मुझे कोई पुल नहीं पार करना पड़ रहा है तो अच्छा लग रहा है.कहते हैं अब तक दोस्त की बधाई और दुश्मन की दुआ फलते रहें हैं.ये आगे भी फलें यही दुआ है.मनोज की आनेवाली कहानियों के लिए शुभकामनाएँ.

गुरुवार, 3 दिसंबर 2009

आज भी खुला है अपना घर फूँकने का विकल्प

(यह लंबी साँस की कविता दिनेश कुशवाह सर ने मेरे आग्रह पर भेजी.अपने पहले रूप में यह वागर्थ के अक्टूबर-09 अंक में प्रकाशित हो चुकी है.उन्हीं की हस्तलिपि में.कविता के पहले ड्राफ्ट और इस रूप में ज़्यादा अंतर नहीं है पर यह कहना ही होगा कि यह पहले से अधिक व्यापक,ज़्यादा बेधक और बिल्कुल अचूक हो गयी है.चूंकि दिनेश कुशवाह एक ही कविता को सालों लिखते हैं.किसी हद तक संपादित करते रहते हैं इसलिए यह कहना जल्दबाज़ी होगी कि अब यह अंतिम रूप में है.कविता ने मुझे भी बहुत उद्वेलित किया.इसे लेकर जैसा स्वागत और निंदा कवि के हिस्से आए हैं उसके बारे में वे बताते हैं-सबकुछ अभूतपूर्व है.यह सात्विक क्रोध की कविता है.क्रोध अगर सात्विक हो तो खुद पर भी उतना ही टूटता है.निष्कलुष कवित विवेक आत्मालोचन से ही संतुष्ट नहीं होता.वह आत्मोत्थान की नींव भी रखता है.मैं समझता हूँ यह वैसी कविता नहीं है जिस पर वाह वाह किया जाए.सार्थक रचना कहन की सफलता भर नहीं होती.उसके प्रति जवाबदेह भी होना होता है.इस कविता पर बहस होनी चाहिए.साथ ही दिनेश जी को इस कविता के साथ खड़े होने तथा इसकी क़ीमत चुकाने को भी तैयार रहना चाहिए.निश्चित रूप से अब उनके सार्वजनिक कामों,निर्णयों को यहां से भी देखा जाएगा.कथनी करनी की तुलना की जाएगी.ऐसा हुआ भी है लंबे अर्से से क़रीब क़रीब शांत हो चले उनके रचनात्मक जीवन में हलचल पैदा हो गयी है.तारीफ़ और धिक्कार दोनों उन्हें घेरे हुए हैं.एक तरह से यह उनकी पहली कविता है क्योंकि इस महत्वपूर्ण कवि को अब तक निजी प्रेम की संवेदनाओं के कवि के रूप में नितांत सीमित दायरे में देखा जाता रहा है.इस सबने उन्हें ताक़त दी है.दिनेश जी उस कविता को भी पूरी करने में ज़िद के साथ जुट गए हैं जिसे लिखने से वे सचमुच डरते रहे हैं.उम्मीद है आप भी इस कविता पर कुछ न कुछ ज़रूर बोलेंगे-ब्लागर)

उम्र का पहला पड़ाव
जिसे पहले प्यार की उम्र भी कहते हैं
मैंने सबकुछ छोड़कर किया प्यार
और लिखी कविता.

उन दिनों प्यार ही
जीवन की पहली प्राथमिकता थी
कविता उसकी क्षतिपूर्ति
ये तो बाद में पता चला कि
इस ससुरी कविता से
जब न चोला बन सकता है न चोली
तो आप ही बतायें मैं इसका क्या करूँ?

जब चोली से भेंट हुई तो,
चोला ऐसा मगन हुआ कि
चोरों के गिरोह में शामिल होने की अर्जी देने लगा
सिर पर लादकर नून-तेल-लकड़ी.

अपने को ईमानदार चोर घोषित करता हुआ
जब किसी तरह शामिल हुआ चोर-बाज़ार में
तो चोरी की अपनी शर्तें थीं
और चोर की अपनी सीमा
तब जाकर पता चला कि सूर या तुलसीदास
मुझसे अधिक कुटिल-खल-कामी नहीं रहे होंगे
अवसर मिलता तो सब पतितन को टीको हो जाता
हो सकता है कुंभनदास फतेहपुर सीकरी से बैरंग लौटा दिए गये हों
अराजक क़रार देकर.

बहरहाल
मेरी पनहिया कई बार टूटी
पैरों में लुढ़ककर आ गिरी पगड़ी
कई बार
पर मैंने नहीं लिखीं
आत्मालोचन की वैसी कविताएँ.

आज सोचता हूँ कि
मैं अदना सा चोर था
व्यवस्था का चाकर
वे लोग जो पिस रहे थे चक्की में
उनके लिए राजा को गरिआता रहा
और उसकी नर्तकियों की करता रहा मनुहार
भड़वों के पाँव सहलाता रहा.

अगर राजा का तबलची भी हो गया होता
तो तानसेन की पदवी मिली होती
नर्तकियाँ आरती उतारतीं और
भड़वे उस्ताद कहकर तलवे चाटते.

मैं कबीर से पूछने गया
कि क्या करूँ दादा!!
ब्राह्मण से लेकर शूद्र
गांधी से लेकर लोहिया
एम एन राय से लेकर मायावती
सबसे गुहार लगाई
पर जो तब पिस रहे थे चक्की में
आज भी पिस रहे हैं.

अपने को मिलने लगी थी चुपड़ी
पर वो भी खा नहीं सकता
सुगर हो गई है
और छोकरियों के आगे
छछिया भर छांछ पर नाचने में
पहले जैसा उत्साह नहीं रहा.

अब पांड़े और कसाई हो गये
हिन्दू और तुर्कों की राह और बिगड़ गई
तब एक पाहन पूजा जाता था
अब लाखों क़िस्म के पत्थर पूजे जाते हैं
अब ठगनी नैना झपकाती है तो
कालगर्ल बना दी जाती है
राजतंत्र में राजा का बेटा राजा होता था
लोकतंत्र में नेता का बेटा नेता
मंत्री का बेटा मंत्री
राजे-रजवाड़े जननेता.

पचास साल के लोकतंत्र पर गिरी है
वंशवाद,गुण्डागिरी और जाति की गाज
कोढ़ में खाज की तरह कि
अंधे बाँटते हैं रेवड़ी
और चीन्ह चीन्ह कर देते हैं
दुर्योधनों की भीड़ से सभाएँ भरी हैं
मंच से माँ कहते हुए भारत को
रोज ही उसकी साड़ी टॉन रहे हैं दु:शासन
भीष्म,द्रोण और कृपाचार्य
प्रश्न पूछने का पैसा लेते हैं
एकलव्यों के अंगूठे कटते रहें तो
कृष्ण को कोई शिकायत नहीं है
किसी भी समय में इतने धृतराष्ट्र नहीं थे
कारिंदे जो सबसे बड़े चोर हैं वे सबको चोर समझते हैं
स्वाधीनता की दुर्गति तो देखिए
दलाली का इतना बड़ा तंत्र कभी नहीं था
मंजिल उन्हें मिली है
जो सफ़र में कहीं नहीं थे.

कबीर वितृष्णा से मुस्कुराए,कहा-
तुम इस युग के नये ब्राह्मण हो
अपने को अदना कहने में भी
झलकता है तुम्हारा अहंकार
दूसरे की बुनी चादर ओढ़कर
कबीर नहीं बना जा सकता
तुम क्या वाक़ई मेरे पथ पर चलना चाहते हो?
तुम क्या बनोगे कबीरपंथी
जब कबीरपंथी हो गए ब्राह्मण
कम्युनिस्ट हो गए कांग्रेसी
समाजवादी हो गए भाजपायी
ब्राह्मण हो गए बसपायी
रामनाम लेकर तर गए कसाई
यह फिर नये बहाने से
प्रजाओं की तलाश है
समझे प्रोफेसर मध्यवर्गायी!

जाति से ऊपर उठ भी जाओ
तो भारत में अपनी जाति से उबरना
बहुत कठिन है
तुम्हे तो अपनी जाति तब याद आती है
जब कोई उस पर हिकारत से अँगुली उठाता है.

मैं तो कभी नहीं भूला कि
बनारस का जुलाहा हूँ
जबकि मुझे बाभनी का बेटा बताया गया था
पर बताने से होता क्या है इस देश में
कर्ण को भी तो कुंती का बेटा बताया गया था
और मेरे जन्म के पहले से ही
ऋषियों की एक लंबी फेहरिस्त है
शूद्रा माँओं से जन्मने की
तो बताने से कुछ नहीं होता
होता है इससे कि बताने वालों के
कितने काम के हैं आप?
यहाँ माँ से नहीं बाप से तय होती है जाति

जाति धर्म सत्ता के जो थे सरताज
वही हैं आज भी
कुशवाहा जी कहाँ हैं आप?
जाइए-कामरेड ज्योति बसु से पूछिए कि
उनके मंत्रिमंडल में युगों तक
मंत्री क्यों नहीं बना एक भी चर्मकार?
और इंदिरा-सोनिया से पूछिए कि
उनके यहाँ बना भी तो
चमटोली का क्या बना दिया?

मेरे यहाँ आते हैं कभी-कभी
पंडित हजारी प्रसाद,बाबा नागार्जुन
ठाकुर विश्वनाथ प्रताप
कहते हैं कुछ करना चाहते थे हम भी
पर कर नहीं सके बच्चों का विवाह
जाति से बाहर.

आप तो हैं वर्ग की कक्षा के छात्र
वर्ण की मनोहरता लक्ष्मण बंगारू के आका
हिन्दू संत बनिया सम्राट अशोक सिंहल से पूछिए
कि अयोध्या में बन रहे राम मंदिर का
कौन होगा महंथ?
किस जाति का होगा पुजारी?
बताइए न कल्याण सिंह जी
जी! उमा भारती!
या आप ही बाबू कांशीराम?
जाति क्यों है कुछ लोगों के लिए सोने का तमगा
जिसे वे सीने पर सजाये
छाती फुलाये घूमते रहते हैं
और जाति कुछ लोंगों के लिए
क्यों है सफेद कुष्ठ का दाग़
जिसे वे हर घड़ी छिपाते फिरते हैं
आखिर सरकार
क्यों नहीं घोषित करती जाति को राष्ट्रीय शर्म
और अंतर्जातीय प्रेम विवाहों को राष्ट्र-सम्मान.

यह पंडित नेहरू का लोकतंत्र है
और पण्डित राहुल गांधी का सुराज
जहाँ देखो तो कम मजे में नहीं हैं
मुलायम,लालू परसाद या रामविलास पासवान
समझे कि नहीं समझे कुछ
यही कि अलख नहीं है पिया जो बोले सो निहाल.

आदमी से प्रेम हो या देश से
प्रेम तब भी खाला का घर नहीं था
और आज भी खाला का घर नहीं है
दरअसल मैं होऊँ या तुलसीदास
गालियाँ दोनों ने दी हैं
जी जलने पर
पर लिखा है प्रेम पर.

तब लिखने पर खाल खींचकर
भूसा भर दिया जाता था
हाथी के पैरों तले कुचलवा देना थी आम बात
मुझे तो जल समाधि दे दी गयी थी
दो चार डंडा तो पा गये बाबा तुलसी भी
पर उनके पास सुविधा थी
विश्वनाथ मंदिर में महादेव जी से
सही कराने की
जैसे आज सुविधा है आलोचक पटाने की
या काशी के डोम के घर
शंकराचार्यों के जिमाने की
दोनों दो बातें हैं परंतु एक ही राह है
स्वर्ग में जाने की.

अपन तो ठहरे धुनिया-बुनिया बंगा
बुद्धू-लुच्चा-नंगा
और आज इसलिए जिन्दा छोड़ दिये गए हैं
कि हम वोट हैं
नेता अब लोंगों को कहाँ मानते हैं आदमी
सारी जनसंख्या को वे वोट समझते हैं.

ब्राह्मण के पास मन(शास्त्र) है
टाकुर के पास तन(शस्त्र) है
बनिया के पास धन(तंत्र) है
नेताओं के पास है जाति
और जाति को उनने वोट में बदल दिया है
इसलिए आज एक भी
नेता नहीं है जाति के ख़िलाफ़.

एक बात जान लो
आँच साँच पर ही आती है
झूठ का कुछ नहीं बिगड़ता
और जाति है सहस्त्राब्दियों का सबसे बड़ा झूठ
जो सच से बड़ा हो गया है.

फिर सुरक्षित ढंग से जियो जीवन
या करो प्रेम
दोनों ही होंगे बेस्वाद
भले लोग महात्मा को कहते थे बनिया-बक्काल
पर यह सब जानते हैं कि
बापू के मुंह में राम था
बगल में छूरी नहीं थी
आज भी गवाह हैं वरवर राव कि
कविता करता था कबीर
पर उसके जीवन और कविता में दूरी नहीं थी.

वरना किसे नहीं दिखता
किसानों की आत्महत्या और मर-मरकर जीना
पुलिस की गोली और आदिवासियों का सीना
सलवा जुडूम से संतोष नहीं हुआ
तो भूख के खिलाफ़ लगाएँगे सेना.
न जाने कब इस देश में दुबारा
होंगे गौतम बुद्ध,राहुल सांकृत्यायन,भगत सिंह,
चारू मजुमदार,अम्बेडकर और मोहनदास.

कुहासा घना है आज भी
चक्की में पिस रहे लोग छटपटाते हैं
पर अपनी लुकाठी लेकर चलने
और अपना घर फूँकने का विकल्प
आज भी खुला है.
-दिनेश कुशवाह

गुरुवार, 26 नवंबर 2009

रहना मां से दूर

जाने कितनी पुरानी बात है
मैं कहीं से आता था घर
तो साँकल से दरवाज़ा पीट पीटकर
ज़ोर ज़ोर से चिल्लाता था
अम्मा ओ..
काफ़ी देर बाद अम्मा दौड़ती हुई आती थी
उसके हाथों में हमेशा कोई अधूरा काम होता था
चेहरे में जल्दी नहीं सुन पाने का अपराधबोध
कभी कभी वह बिना वज़ह नही सुन पाती थी मेरी आवाज़
तो भागकर आते हुए रो पड़ती थी
सहमी होती थी दरवाज़ा खोलते हुए
जाने कितनी पुरानी बात बता रहा हूँ मैं
माँ को अब देखना सुनना दोनों कठिन हो गए हैं
वह कभी कभी बताती है सकुचाकर
उसे किसी किसी दिन मेरे पुकारने की आवाज़ सुनाई देती है
वह घुटकर रह जाती है
मैं अनसुनी करता हूँ उसकी यह बात
क्योंकि भावुक हो जाने में मुझे हल्कापन सा लगता है आजकल
पर एक दिन ऐसा हुआ जिसकी मुझे ख़ुद से उम्मीद नहीं थी
मैं शाम को ऑफ़िस से आया अपने सरकारी क्वार्टर
जैसे किसी ने धकेल दिया मुझे पुराने दिनों में
मैं ज़ोर ज़ोर से चिल्लाया कई बार
अम्मा ओ...
बाद में मैं पसीना पसीना था इस डर से
ऐसा सपने में नही किया मैंने
क्या होगा अगर पड़ोसियों ने सुन ली होगी मेरी पुकार
मैं घंटों बिसूरता रहा अकेले घर में
जाने कौन सा ऋण चुकाने मैं पैदा हुआ
रहता हूँ माँ से इतनी दूर....

बुधवार, 25 नवंबर 2009

कविता लिखने से नहीं आती

जिन्हें हमारे समय में अंत की घोषणाओं पर यक़ीन नहीं है वे भी इन घोषणाओं को पूरी तरह खारिज नहीं कर पाते.मेरा वास्ता कविता के अंत की घोषणा से पड़ता रहा है.मैं इस घोषणा के इंकार में ही ज़्यादा सोचता हूँ.मुझे नहीं लगता कि कविता का अंत हो सकता है.यह सबसे ज़्यादा बरती जानेवाली विधा है.मुझे कई बार तो लगता है कि कविता विधा नहीं जीवन स्थिति है.जब प्रकट होती है हम स्वीकार या अस्वीकार के आनंद से भर जाते हैं.जब कविता जीवन स्थिति का ही प्रतिरूप होती है तो लिखे हुए या कहे हुए रूप में यादगार हो जाती है.पर कविता अनलिखे रूप में ज़्यादा संप्रेषणीय होती है.किसी को कोई कविता याद हो तो सुने हुए का योगदान इसमें अधिक होगा.लिखना,हमेशा से गतिशील समाज में दस्तावेजीकरण का अंग रहा है.इसीलिए कवियों की भी लेखन पर निर्भरता रही.बाद में लेखकों ने ही खुद को कवि घोषित कर दिया.वाचिक और असल कवि पीछे छूट गए.
इसे आप मेरा अनुमान लगाना समझ सकते है.पर अनुमान करने में हर्ज़ ही क्या है.कविता के बारे में अनुमान और कल्पना के बगैर क्या बात होगी?लिखते हुए छूटते छूटते कितना कम बच पाता है यह लिखनेवाले बेहतर जानते हैं.आज अगर लोग कविता से विमुख हो रहे हैं तो इसका एक कारण यह भी है कि कविता लेखकीय हो गई.लेखकीय होते जाने से ही कविता में एकरूपता का दोष आया जो वास्तव में भावलोक की कठोरता है.लेखन में लाख खूबियाँ हों पर इसमें स्वत:स्फूर्तता का सबसे अधिक नुकसान होता है.हम जानते हैं स्वत:स्फूर्त वस्तु आसानी से प्रिय बन जाती है.यह मौलिकता का प्रस्थान बिंदु भी है.व्यक्ति एकरूपता खाने में भी बर्दाश्त नहीं करता.और आज लिखी हुई सारी कविताएँ क़रीब क़रीब एक सी होतीं हैं.शिल्प की जो थोड़ी बहुत निजता दिखती है वह असल में विचारों का अनोखापन है.
आप चाहें तो इस पर विचार कर सकते हैं कि अधिकांश कविताएँ एक सी क्यों लगती हैं?कविताओं से अगर कवि का नाम हटा दिया जाए तो शोधार्थी ही बता पाएँगे किसकी कविता है.मुझे लगता है यह कवियों का लेखक होते जाना है.लेकिन एक बात दिलचस्प है लेखक,कविता लिखना चाहते हैं और कवि लेखक हुए जा रहे हैं.कहानियों में चली आ रही कविता कवियों की ही देन है.
सब जानते हैं कि लिखी हुई बात में संवादधर्मिता लानी पड़ती है.क्योंकि लेखक इस वक़्त खुद के साथ होता है.अपने आप से कितना बोला जा सकता है. पर बोली हुई बातों में सबसे ज़्यादा संवाद ही होता है.तो क्या कविता संवाद है जिसे बोलने की बजाय लिखकर लोग नीरस,चुप्पा बना रहे हैं?या फिर अच्छा बोलनेवाले सब कवि हैं?क्या कविता बोली ही जानी चाहिए?इन प्रश्नों का जवाब देने से यह उदासी भली...लेकिन बोलनेवाले रहे कहां अब!..
यह संतोष की नहीं आत्मालोचन की बात है कि बोली हुई बातें ही आज भी श्रेष्ठ कविता की मिसाल हैं.कबीर पूरे वाचिक थे.पक्के कवि.सूरदास जब अंधे ही थे तो लिख क्या पाते होंगे.लेकिन सच्चे कवि.पाश,नाज़िम हिक़मत आदि की बातें ही गूँजती हैं चेतना में.धूमिल कह ही चुके हैं कविता पहले सार्थक वक्तव्य होती है.कुल मिलाकर बोलने का गुण अगर बात में आ जाए तो वह कविता हो जाती है.यहीं यह नाजुक बात भी समझ में आ सकती है कि बोली कभी एक सी नहीं होती.कविता में अगर बोली शामिल हो तो वह एकरूप,नीरस हो ही नहीं सकती.बड़े बड़े दावे करने की बजाय यह कोशिश हो कि कविता से एकरूपता विदा की जाए.लोग कविता पढ़ने लगेंगे.यहाँ यह कहने की भी ज़रूरत नहीं की आज भी सबसे ज़्यादा कविता ही लिखी जाती है.कवि लिखने में व्यस्त नहीं होते तो अपना देश बना डालते.जहां सुननेवालों,रहना चाहनेवालों का तांता लग जाता.
कविता में बोलने को लेकर इतना कहने के बाद अब लग रहा है एक अ-लेखक कवि की कविता गुनी जाए.यह कविता इसलिए भी कि इसे पूरा पढ़ पाने का अवसर कम ही मिलता है.इसे पढ़ते हुए मैं सोचा करता हूँ कबीर कैसे कहते होंगे इसे.उनकी भंगिमाएँ कैसी रहती होंगी तब.आवाज़ का उतार चढ़ाव मैं चाहकर भी कल्पना में सुन नहीं पाता.पर एक बात अवश्य अपनी आपसे बांट रहा हूँ कबीर हमेशा इसे कहते हुए ही मुझे सुनाई देते हैं.इस कविता के साथ ही कोष्ठक में हजारी प्रसाद द्विवेदी की शुरुआती व्याख्या(व्याख्या करने से ठीक पहले की ज़रूरी टिप्पणी) देते हुए बहुत खुशी हो रही है.अलग अलग समय में कहने और समझनेवाले क्या दो लोग हुए!...
हमन हैं इश्क मस्ताना,हमन को होशियारी क्या.
रहें आजाद या जग से,हमन दुनिया से यारी क्या.
जो बिछुड़े हैं पियारे से,भटकते दर-बदर फिरते.
हमारा यार है हम में,हमन को इंतज़ारी क्या.
खलक सब नाम अपने को,बहुत कर सिर पटकता है.
हमन गुरुनाम सांचा है,हमन दुनिया से यारी क्या.
न पल बिछुड़े पिया हमसे,न हम बिछुड़े पियारे से.
उन्हीं से नेह लागी है,हमन को बेकरारी क्या.
कबीरा इश्क का माता,दुई को दूर कर दिल से.
जो चलना राह नाजुक है,हमन सिर बोझ भारी क्या.

(वे सिर से पैर तक मस्त-मौला थे.मस्त-जो पुराने कृत्यों का हिसाब नहीं रखता,वर्तमान कर्मों को सर्वस्व नहीं समझता और भविष्य में सबकुछ झाड़ फटकार निकल जाता है.जो दुनियादार किए-कराए का लेखा-जोखा दुरुस्त रखता है,वह मस्त नहीं हो सकता.जो अतीत का चिट्ठा खोले रखता है वह भविष्य का क्रांतदर्शी नहीं बन सकता.....कबीर जैसे फक्कड़ को दुनिया की होशियारी से क्या वास्ता?).

रविवार, 22 नवंबर 2009

रास्ते के पेड़ की तरह होगा हमारा प्यार...

चाहते हुए कि यह सच न हो

तुम कहती हो
तुम्हारी डूब
आकर्षण है बाबू
कोई लड़की होती
तुम्हे इतना ही पागल करती
पर एक दिन सब बदल जाता है
कुछ भी नहीं होता हमेशा के लिए..

मेरे भीतर गूँजती है
मन में बसी लड़कियों की हँसी
अंतहीन दास्तान...
मैं कहना चाहता हूँ
गीत गाना
दुआ मांगना
प्रार्थना करना
करुणा से भर जाना
आँसू झरना
करना इंतज़ार
महज़ लड़की का आकर्षण नहीं हो सकते
कमज़ोर मन को लगाने की कोशिश
होती नहीं उदात्त
रहती नहीं बनकर याद

समझाते हुए कि ऐसा नहीं होना चाहिए

तुम कहती हो
कोई किसी के बिना जी ही नहीं पाए
ऐसा नहीं होता दुनिया में
कोई इतनी भली भी नहीं लग सकती सदा
कि दूसरी कभी अच्छी ही न लगे
विवाह में अगर प्यार नहीं रह जाता
तो प्यार भी अमर नहीं होता बाबू
प्यासी दुपहरी में
गुज़र जाता है नदी के पानी की तरह
प्यार भी ओझल हो जाता है

मैं तुमसे झगड़ना चाहता हूँ इन बातों पर
रास्ते का पोखर नहीं होता प्यार
ग़ुस्सा करना
शिक़ायतें होना
अनबन रहना
दूरी बन जाना
अंतिम नहीं होते
हम फलांग सकते हैं
ऐसी छोटी मोटी खाइयाँ

आखीर में मनाते हुए
कि ऐसा होना चाहिए
हमें जीनी ही चाहिए रुकी हुई खुशनुमां ज़िंदगी
भरनी ही चाहिए अरमानों की उड़ान
तुम कहती हो
अब कुछ नहीं खोना
नहीं लेना देना किसी से
हम बनाएँगे अपनी बातों,यादों के स्मारक
रास्ते के पेड़ की तरह होगा हमारा प्यार
सब भूलकर
चलो सपनें देखें बाबू

मुझे फुसफुसाते हुए सुनती हो
मैं जो हूँ वह नहीं होता
तुम जो चाहती हो वह हो पाती
कुछ छोटा मोटा हमारे हाथों भी बन पाता
जैसे हवा,सुगंध,रंग,रौशनी,आकाश
मैं सजाता इनसे तुमको
आकार देता इन्हें तुम्हारे लिए.

मंगलवार, 10 नवंबर 2009

मराठी प्रेमी कल महाराष्ट्र को भारत में ही नहीं रखना चाहेंगे!

कल महाराष्ट्र विधान सभा में हिंदी में शपथ लेने के लिए समाजवादी पार्टी के विधायक अबू आज़मी पर एमएनएस के विधायकों ने हमला किया.उनके साथ मारपीट की.
ये ख़ुद को मराठी मानते हैं.जनता के चुने हुए प्रतिनिधि हैं और महाराष्ट्र में हिंदी नहीं चाहते.हालांकि इन्हें अंग्रेज़ी से परहेज़ नही है.इन्हे किसी का डर है न लिहाज़.इनकी शिक्षा,लोकतांत्रिक संस्कार इन्हें यह कुकृत्य करने से रोक सकते थे लेकिन इन्होंने इस अनुशासन या किसी तरह की सहिष्णुता का गला घोट लिया है.
इस देश में जब हिंदू चरमपंथ बढ़कर विघटनकारी होता जा रहा है तब एक मुसलमान विधायक का हिंदी में शपथ लेने की ज़िद करना हमारी ताक़त बन सकता था.लेकिन उल्टे उन्हें अपमानित होना पड़ा.यह बेहद शर्मनाक है.
सवाल उठता है कि ये तथाकथित मराठी प्रेमी हिंदी क्यों नहीं चाहते ?जवाब वही पुराना है.धार्मिक उन्माद,क्षेत्रीयतावाद और भाषायी चरमपंथ ही इन्हें ले देकर सत्ता तक पहुँचा सकते हैं.इसके लिए ये कोई भी क़ीमत चाहे वह संविधान की हो या राष्ट्रीय अस्मिता की जेब में लेकर चलते हैं.
यह राजनीति में अचानक आ गई गुंडागर्दी नही है.लोकतांत्रिक तरीके से आए निरंकुश गुंडों की फैलती हुई राजनीति है.इतिहास में इस राजनीति ने बड़ी हत्याएँ की हैं.अनगिन सच्ची आवाज़ों को हमेशा के लिए कुचल दिया है.
सवाल ये भी है कि भारत में हिंदी कौन चाहते हैं? एक उदाहरण काफ़ी होगा.अपने देश में किसी भी शब्द के लिए संविधान संमत अठारह भाषाओं के कम से कम इतने ही शब्द होते हैं.उपभाषाओं तथा बोलियों को मिलाकर यह संख्या सौ के लगभग होगी.फिर क्या वजह है कि अंग्रज़ी का शब्द पहली जगह ले लेता है?प्रभु जोशी जैसे लेखक,चित्रकार जब हिन्दी के हिंग्लिश होते जाने,अखबारों आदि के इस षडयंत्र में शामिल होने को बार बार रेखांकित करते हैं तो सहमति के स्वर क्यों नहीं उठते? हिंदी शब्दों के विस्थापन के ख़िलाफ़ हमारी लड़ाई शांत क्यों पड़ गई?हिन्दी शब्दों का पुनर्वास हमारे हिंदी प्रेम में क्यों शामिल नहीं है?
मैं मानता हूँ दक्षिण भारत में खासकर तमिलनाडु में बिना संस्कृत की सहायता के हिंदी का व्यापक प्रसार असंभव है.समूचे देश में संस्कृत की क्या स्थिति है? अब तो यह पूछना भी दकियानूसी होना है.लेकिन यह तय है अगर संस्कृत नहीं रही तो दक्षिण में हिंदी भी नहीं बढ़ पाएगी.
तमिलनाडु में अगर कोई हिंदी बोल रहा है तो दो ही बातें हो सकती हैं वह या तो मुसलमान है या केंद्र सरकार का कर्मचारी.तमिल हिंदू हिंदी जानते भी हों तो बोलने से बचते हैं.आपको मजबूर करते हैं अंग्रेज़ी बोलने के लिए.यह कहने में कोई मिलावट नहीं है कि तमिलनाडु में हिंदी मुसलमानों की वज़ह से ज़िंदा है.जिन्हें हिंदी-उर्दू की लड़ाई का ज्ञान है,जिन्हें उर्दू मुसलमानों की भाषा लगती है उन्हें मुसलमानों के इस अवदान को अवश्य याद रखना चाहिए.
महाराष्ट्र विधान सभा में हिंदी बोल रहे विधायक पर हमले को कोई दूसरा स्वार्थी रंग दे दिया जाए इससे भी हमें लोगों को बचाना होगा.
यह कहने की ज़रूरत नहीं कि महाराष्ट्र में हिंदी नहीं रही तो कल महाराष्ट्र भी भारत में नहीं रह सकता..यह एक भारत विरोधी विघटनकारी प्रवृत्ति है जो सत्ता के लिए भाषा की भी आड़ लेती है.विधायकों के चार साल के निलंबन से आगे जाकर इसके सूत्रधारों को कड़ी सज़ा मिलनी चाहिए.